Zahar Bujha Satya

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Evolution, animal product propaganda and the real human diet




आग और पहिये की खोज बड़े दिमाग के 'उतपरिवर्तन स्वरूप' बन जाने से ही होनी सम्भव हुई थी। कहने का मतलब है कि आग से पके भोजन ने उनके मस्तिष्क बड़े नहीं किये। वे पहले से ही बड़े पैदा हुए थे।

जबकि कुछ वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि मध्यकाल के आदिमानव के मस्तिष्क का आयतन मांस खाने से बढ़ गया, जो कि तार्किक नहीं है। मस्तिष्क न तो जीवन काल में कभी बढ़ता है और न ही सामान्य सर्वाहारी भोजन से कोई गुण अगली पीढ़ी में ही जाता है।

हालांकि रेडियोधर्मी विकिरण या इससे युक्त भोजन घातक उतपरिवर्तन करके मनुष्य की अगली पीढ़ी में विकार या सुधार उतपन्न कर सकती है। ऐसा गामा किरणों के DNA को क्षतिग्रस्त कर देने से होता है। चित्रकथा वाला इंक्रीडिबल हल्क ऐसी ही एक घटना से हुए म्यूटेशन को दर्शाता है।

पाषाण काल में रेडियोधर्मी विकिरण कैसे आया होगा? जब भी कोई उल्का पृथ्वी से टकराती है तो पृथ्वी से अभिक्रिया करके परमाणु विस्फोट करती है। जिससे रेडियोधर्मी विकिरण बहुत बड़े इलाके में फैल जाता है। हो सकता है कि इसी कारण से विविध प्रकार के जीव जंतु बनना ज्यादा तेज हुआ हो। इसके अतिरिक्त हम हर समय कॉस्मिक किरणों के रेडियोधर्मी रेडिएशन से तो घिरे ही रहते हैं। यही सम्भवतः हर किसी के उतपरिवर्तन की ज़िम्मेदार हैं। हर कॉस्मिक किरण एक मरते हुए तारे के सुपरनोवा विस्फोट से आती है।

पोषण या कुपोषण की बात करें तो पका मांस, कच्चे के मुकाबले पचाना आसान है और कच्चे के हिसाब से कम मात्रा में ही अधिक ऊर्जा दे सकता है, परन्तु उसके पोषक तत्व (विटामिन आदि) जो मांसाहारी/सर्वाहारी जानवर बिना पकाए खाकर प्राप्त कर लेते हैं, वे पकाने से नष्ट हो जाते हैं।

अतः ऊर्जा तो अवश्य पके हुए कम मांस से भी मिल जाएगी, परंतु पोषक तत्व लगभग खत्म हो जाएगे। जो कि कुपोषण पैदा करके जल्द मृत्यु के कारण बनेंगे। पोषक तत्वों के लिये चूंकि कच्चा माँस पचाने लायक नहीं है, तो फलों और स्वादिष्ट वनस्पतियों पर ही मानव को निर्भर रहना पड़ेगा।

आग के पास रहने से मानव का विकास रुका और उसकी सामाजिक रह कर सुरक्षित रहने की आदत भी पड़ गई। सुरक्षा द्वारा विकास के रुकने, व धर्म प्रेरित विवाह द्वारा प्रकृति द्वारा प्रजनन के श्रेष्ठ चुनाव को खत्म करने से मानव अब हर तरह के मानवों की बड़ी जनसंख्या को जन्म दे रहा है। जिसके कारण अपराधी और मानसिक बीमार लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है।

पहले ऐसे लोग देखते ही मार डाले जाते थे क्योंकि वे अलग दिखते थे, लेकिन समय के साथ इंसान की इंसानियत बढ़ती गई और कमज़ोर, दुष्ट व कम अक्ल के इंसानों को भी वह पालने लगा। यही आगे चल कर उनके काल बनने लगे।

1. शरीर से कमज़ोर लोग कुटिलता द्वारा षडयंत्र करने लगे।

2. दिमाग से कमज़ोर लोग बलिष्ठ शरीर द्वारा मार पीट कर जबरन छीनना सीख गए।

3. दिमाग और शरीर, दोनों से कमज़ोर लोगों को समाज ने भिखारी के रूप में अपना लिया। जो कि आर्थिक बोझ बन गए।

इस तरह मानव समाज आधुनिक होकर श्रेष्ठ होने के स्थान पर हर तरह का मिश्रण बनता चला गया। ये परिघटना मानव का विकास लगभग रोक चुकी है।

भोजन के रूप में जहाँ पका मांस जिलेटीनाइज़ होकर पचाना आसान होता है और कम खाने पर भी ज्यादा ऊर्जा देता है, वहीं वह पोषक तत्व विहीन होने के कारण, पोषण नहीं देता। स्वस्थ रहने के लिये पौष्टिक फल सब्जी खाना अनिवार्य है।

साथ ही यदि पका माँस नियमित खाया जाए तो यह arteriosclerosis (heart attack), डायबिटीज, कैंसर और मधुमेह पैदा कर देता है। ठंडे देशों में चूंकि खुद को गर्म रखने के लिए शरीर की उपापचय दर अधिक होती है, अतः वहाँ इसके असर देर से देखने को मिलते हैं। अपितु 35 वर्ष की आयु तक कोई भी मांसाहारी स्वस्थ दिख सकता है। उसका कारण जवान शरीर की अधिक इम्युनिटी और धमनियों का इस आयु तक अधिक लचीला बना होना है।

35 वर्ष की आयु के बाद इम्युनिटी कम होने, धमनियों के सिकुड़ने और कड़क होने से मांसाहारी/डेयरी उत्पाद का सेवन आपकी कब्र/चिता तैयार करने लगता है। यह वह सीमा है जहां से वापस आने के लिये एकदम से Vegan बनना ही कुछ मदद कर सकता है। अन्यथा इसके अधिक समय बाद vegan बनने पर भी recovery मुश्किल हो जाती है। इन्हीं कारणों से, देरी से या बीमारी के बाद vegan बने लोगों में भी ह्रदयघात/डायबिटीज/कैंसर आदि से मृत्यु देखी गयी है। जिसका कारण, पहले से ही शरीर को मांसाहार से पहुँचा नुकसान रहा था।

आधुनिक मानव की सूंघने की शक्ति कम है। इसका कारण भी सम्भवतः सड़े मांस से आती बदबू के कारण केवल ऐसे मानवों का अधिक जीवित रहना रहा जो अधिक बदबू को महसूस नहीं करते थे। कम गंध महसूस करने से वे अधिक माँस खा सके।

जबकि तेज़ गंध महसूस करने वाले मानवों को इन मानवों को सम्भवतः युद्ध में खत्म कर दिया था क्योंकि वे इनके मांस खाने का बदबू के कारण तगड़ा विरोध करते होंगे। आज भी जो मानव मांस की बदबू बर्दाश्त नहीं करते वे मांसाहारी मानवों से लड़ते पाए जाते हैं।

कम घ्राण शक्ति (सूंघने) के कारण मानव अजीबोगरीब भोजनों को भी खाकर जांचने लगा और उसके भोजन में दूध, अंडे व शहद आदि पशुउत्पाद भी शामिल हो गए। इससे पहले उसमें बेस्वाद सब्जियों को भी केवल उत्सुकता वश पका कर खाया। जबकि फलों से आती गंध के प्रति मानव सदा से ही संवेदनशील रहा है और सूंघ कर ही स्वादिष्ट फल पहचान लेता है।

प्राचीन काल में जो भी मानव का भोजन रहा हो, हम लोग सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं। लेकिन आज के समय में भी यदि मानव को सीधे खाने योग्य जो भी आकर्षित करता है वह फल ही हैं और अध्ययन करने पर मानव फलाहारी ही पाया गया है। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

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