जबसे नए शोधों ने यह साबित किया है कि Veganism इंसान के लिए मांसाहार की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद और निरापद है, तबसे पूरी दुनिया में Veganism को अपनाने पर बल दिया जा रहा है। लोगों को यह भी समझ में बखूबी आने लगा है कि मांसाहार महज बीमारियों की ही वजह नहीं है, बल्कि पर्यावरण, कृषि, नैतिकता और अहिंसा के मूल्यों के भी विपरीत है। यह अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक है!
महात्मा बुद्ध ने कहा था-जीवों पर दया करो। बुद्ध केवल मानवबलि ही नहीं, पशुबलि के भी विरोध में थे। Veganism का संबंध केवल भोजन से नहीं है, बल्कि यह हमारी सभ्यता, पशु अधिकारों, सुरुचि, संवेदना, दया और करुणा आदि से भी जुड़ा है।
आज पश्चिमी मुल्कों में Vegan होना आधुनिक फैशन बन गया है। आए दिन लोग खुद को Vegan घोषित कर इस नए चलन के अलमबरदार बनने में गर्व अनुभव करते देखे जा सकते हैं।
पश्चिमी दर्शनों की विचारधारा, जो कभी मांसाहार को सबसे मुफीद मानती थी, वही अब Veganism की ओर रुख करने लगी है। यह कई नजरिए से Veganism के हक में एक अच्छा संकेत कहा जाना चाहिए। लेकिन भारत सहित दुनिया के तमाम विकासशील देशों की स्थिति इससे ठीक उलट है। विकासशील देशों में बूचड़खाने बढ़ रहे हैं और मांसाहार को बढ़ावा देने के लिए वहां की सरकारें भी लगी हुई हैं।
यह जानते हुए भी कि मांसाहार कई समस्याओं का कारण है और इससे कृषि-संस्कृति को जबरदस्त नुकसान पहुंच रहा है। पोल्ट्री-फार्मिंग, फिश-फार्मिंग, वैटरी-फार्मिंग, रैबिट-फार्मिंग, क्वेल-फार्मिंग जैसे भ्रामक शब्दों के जरिए लोगों को गुमराह करने का सिलसिला जारी है। पिछली सरकारों ने केंद्र से जितनी भी योजनाएं इस तरह की गांवों, कस्बों और शहरों के लिए बनार्इं, वे सभी हिंसा को बढ़ावा देने वाली और अहिंसक कृषि-संस्कृति का नाश करने वाली रही हैं।
वर्तमान सरकार को देशभर में की जा रही इस तरह की हिंसा की खेती को बंद कराने की पहल करनी चाहिए। Veganism के दर्शन और अर्थशास्त्र को मानने वाले महज भारतीय दार्शनिक और वैज्ञानिक ही रहे हों, ऐसा नहीं है, बल्कि पश्चिमी दुनिया की विख्यात हस्तियों ने भी इसका खुलकर समर्थन किया और लोगों को Veganism की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया।
अरस्तू, चार्ल्स डार्विन, अल्बर्ट आइंस्टीन, लियो टालस्टाय, हर्बर्ट जॉर्ज वेल्स, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, बेंजामिन फ्रेंकलिन, वाल्टेयर, न्यूटन, विलियम शेक्सपीयर, पर्सी बिसे शैली जैसे अनेक नाम लिए जा सकते हैं। भारत में तो कभी सारा का सारा युग शाकाहारी (Vegetarian) हुआ करता था। वे लोग ही मांस खाते थे जो समाज के सबसे निम्न तबके के होते थे।
#VEGANISM: 1. कोई भी पशु उत्पाद न लेना/खाना/प्रयोग करना। पशुओं को उनके हाल पर प्रकृति के हाथ में छोड़ देना। नैतिकताओं का पालन।
2. केवल वनस्पतियों पर आधारित भोजन पर निर्भर रहना।
3. अन्याय, क्रूरतापूर्ण व्यवहार, कोलेस्ट्रॉल, केसीन, लैक्टोज आदि हानिकारक पदार्थों से होती असमय मृत्यु व प्रति सेकेंड वैश्विक बढ़ते तापमान (global warming) का उन्मूलन।
#VEGETARIAN: 1. केवल हत्या करके मांस न खाना लेकिन पशु का क्रूरतापूर्ण शोषण करके उससे जबरन उत्पाद छीनना। जैसे, दूध, अंडा, शहद, रेशम, लाख, मोती इत्यादि।
2. पशुओं के साथ दुर्व्यवहार (बाँधना, पीटना, पूछ मरोड़ना, कैद करना आदि), उनसे काम करवाना (हल, तांगा, बैल गाड़ी), जबरन सांड/भैंसे से बलात्कार करवा के या कृत्रिम अमानवीय गर्भाधान करवा कर हर साल बच्चे पैदा करना।
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि मांसाहार और देश-समाज की आर्थिक स्थिति में गहरा रिश्ता है। जो लोग मांसाहार और अर्थव्यवस्था का रिश्ता नहीं मानते उन्हें उन तथ्यों पर जरूर गौर करना चाहिए, जिसमें मांसाहार को आर्थिक संवृद्धि के लिए बहुत बड़ा अवरोध बताया गया है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में हर साल वैध-अवैध तरीके से बीस करोड़ जानवरों का वध किया जाता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मुताबिक अगर मात्र भेड़ों को ही कत्लखाने में न ले जाया जाए तो उनसे चार सौ पचास करोड़ रुपए से अधिक की आय हो सकती है, जबकि देश को उनके मांस से एक करोड़ से भी कम की आय होती है।
अगर केवल अलकबीर बूचड़खाने में भैसों का वध न किया जाए तो देश को पांच साल में ही केवल र्इंधन से देश को 610.25 करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा की बचत हो सकती है।
एक सामान्य उदाहरण से इसे इस तरह से भी समझ सकते हैं: एक भैंस प्रतिदिन औसतन बारह किलोग्राम गोबर पैदा करती है, जिसमें छह किलोग्राम सूखा गोबर होता है। पांच सदस्यसीय परिवार के लिए रोजाना औसतन बारह किलोग्राम उपलों की जरूरत होती है।
अलकबीर कसाईघर में 8,200 भैंसें रोजाना कत्ल की जाती हैं। ये भैंसें 91,200 परिवारों के र्इंधन की जरूरत पूरी कर सकती हैं। बड़ी मात्रा में कंपोस्ट यानी देशी खाद बनती है, जो आगेर्निक खेती के काम आती है। गांवों में आज भी भोजन बनाने के लिए र्इंधन के रूप में उपलों का इस्तेमाल किया जाता है। बूचड़खानों में लाखों की संख्या में पशु वध के कारण गांव के गांव पशुओं से रहित होते जा रहे हैं और गांव में गरीबी बढ़ती चली गई है। गांव की स्थानीय अर्थव्यवस्था गहरे तौर पर पशुओं के गोबर, खाद, ईंधन आदि से जुड़ी है।
तथाकथित विकास ने गांवों को भोजन बनाने के ईंधन की निर्भरता भी बढ़ा दी है। इसी तरह कृषि उत्पादन को भी मांसाहार से परहेज करके बहुत बड़ी तादाद में बढ़ा सकते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के मुताबिक हर साल 9.12 लाख भैंसें बूचड़खानों में कत्ल कर दी जाती हैं। ये भैंसें 2.95 करोड़ टन गोबर खाद उत्पन्न कर सकती हैं। इससे 39.40 हेक्टेअर कृषि भूमि को खाद मुहैया कराई जा सकती है।
औसतन हर साल पशुओं द्वारा 10.89 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हो सकता है। इस तरह देखा जाए तो पशुओं के कत्ल से हर साल अरबों रुपए की हानि होती है। लेकिन सरकारे इस पर कभी ध्यान नहीं देती हैं और न ही देशवासियों द्वारा ध्यान दिलाने पर उस पर कोई विचार ही करती है।
पश्चिमी देशों में जन्म के समय एक बछड़े का भार सौ पौंड होता है और चौदह महीने बाद जब वह कसाईखाने में भेजा जाता है तो उसका भार ग्यारह सौ पौंड हो जाता है। उसको इस अवधि तक पालने में 1400 पौंड दाना, 2500 पौंड घास, 2500 पौंड साइलेज और 6000 पौंड पास्चर खर्च हो जाता है। इसमें बछड़े के 1100 पौंड भार में से 460 पौंड मांस उपलब्ध हो पाता है। जाहिर है कि बछडे का तीस प्रतिशत शरीर तो भक्षण के काबिल नहीं होता।
मतलब अधिक व्यय में बहुत कम उत्पादन। वहीं दूसरी तरफ जमीन के उसी हिस्से से मांस की जगह पांच गुना अधिक अन्न पैदा किया जा सकता है। अगर दूसरे प्रकार से हिसाब लगाया जाए तो सोलह पौंड अन्न से केवल एक पौंड मांस मिलता है। मांस प्राप्त करना अन्न प्राप्त करने की अपेक्षा हर तरह से घाटे का सौदा है। कुछ अर्थशास्त्री मानते हैं कि अगर सारा विश्व Veganism अपना ले तो खाद्य समस्या ही नहीं आर्थिक, पर्यावरण, जल, स्वास्थ्य, अन्न, फल और सब्जी से जुड़ी तमाम समस्याएं खत्म हो सकती हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, नैतिकता की कमी जैसी समस्यायें कुछ ही दिनों में हल हो जाएंगी।
कृषि के द्वारा भुखमरी से छुटकारा पाया जा सकता है। साथ में करोड़ों लोगों की जीविका भी चलती है। दस एकड़ में धान की खेती करके एक साल तक 40 लोगों का पेट पाला जा सकता है। इसी तरह इतनी ही जमीन में सोयाबीन की खेती करके एक साल तक 60 लोगों का पेट पल सकता है। और अगर इतनी ही जमीन पर मक्का की खेती की जाए तो पंद्रह लोगों की जीविका का इंतजाम हो सकता है। लेकिन अगर इतने ही क्षेत्रफल में मांस प्राप्ति के लिए पशु पाले जाएं तो एक साल में केवल और मुश्किल से तीन लोगों को रोजगार मिल सकता है। यह भी विचारणीय बात है कि पशु के शरीर का तीस प्रतिशत भाग भोज्य नहीं होता। जितना खर्च करके मांस प्राप्त करने के लिए उसे मोटा किया जाता है, उसे उसकी हत्या करके कदापि नहीं मिल सकता है। आर्थिक दृष्टि से से देखें तो आहार के रूप में मांसाहार, वनस्पति की अपेक्षा बहुत मंहगा पड़ता है। एक मांसाहारी, बीस Vegans की खुराक अपने पेट में डालता है।
मांसाहारियों का यह तर्क होता है कि अगर विश्व के अधिकांश लोग Vegan हो जाएंगे तो वनस्पति जन्य भोजन कम पड़ जाएगा और पशु-पक्षियों की आबादी समस्या बन जाएगी। लेकिन यह महज मांसाहार को उचित ठहराने के एक कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं है। विश्व के जाने-माने अर्थशास्त्री माल्थस के मुताबिक खाने-पीने की वस्तुओं और जन-संस्था के बीच संतुलन प्रकृति स्वयं बनाए रखती है। अगर मनुश्य अपनी आबादी को बेरोक-टोक बढ़ने देता है तो प्रकृति महामारियों और विपदाओं से उसे संतुलित करती है। इसलिए यह कहना कि मांसाहार को शाकाहार के लिए जीवित रखा जा रहा है, तथ्यों का धूर्त्त संयोजन है।
जो आंकड़े पिछले पचास सालों से देश-विदेश के आहार-शास्त्रियों और अर्थ-विषेशज्ञों ने जुटाए हैं, उनसे यह सिद्ध होता है कि Veganism, मांसाहार की तुलना में अधिक सस्ता, गुणकारी, निरापद, रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाला और इंसान की प्रकृति के अनुकूल है। मांसाहार करने वालों का एक तर्क यह भी होता है कि मांसाहार, वनस्पतियों की तुलना में अधिक सस्ता है। लेकिन इस तर्क में भी कोई दम नहीं है।
जब हम पशु-वध रोकने के फायदे के बारे में विचार करते हैं तो पता चलता है कि इससे ऐसे अनेक लाभ है जिसे अगर विश्व समाज समझ ले तो पशु-वध सबसे हानिकारक और विध्वंसकारी कार्य नजर आएगा। कुछ विशेष बातों पर ध्यान देकर हम मांसाहार से होने वाली हानियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
भारत के सिर्फ यांत्रिक बूचड़खानों को बंद कर दिया जाए तो लाखों निर्दोष जानवरों का वध ही नहीं रुकेगा बल्कि उसमें इस्तेमाल होने वाला पचपन करोड़ लीटर से अधिक पानी की बचत होगी जो धुलाई में इस्तेमाल होता है।
बूचड़खानों और मांसाहार की प्रवृत्ति को कम करके पर्यावरण प्रदूषण और अन्य कारणों से होने वाले अनगिनत रोगों को कम किया जा सकता है। शाकाहार के हिमायती विचारक पीटर फ्रीमेन के मुताबिक पशुओं द्वारा चरी हुई एक एकड़ भूमि, पांच हजार पौंड अन्न और बीस हजार पौंड सब्जी आदि प्रदान कर सकती है, जबकि उस भूमि को चरने वाले जानवरों के मांस से केवल एक हजार पौंड मांस प्राप्त होता है।
मांसाहार दूसरों को भूखा रखने का जिम्मेदार है, क्योकि लाखों जानवर उन लोगों का अन्न खा जाते हैं जो लोग भूखे सोने के लिए मजबूर हो रहे हैं। ऐसे में जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें बूचड़खानों को बंद करके देश की जहां खाद्यान्न समस्या का हल निकाल सकती हैं, वहीं पर पानी, पर्यावरण, और उर्वरक की समस्या का हल भी निकाल सकते हैं। रोजगार जो करोड़ों लोगों को मिलेगा वह अलग।
अगर हम वीगनवाद अपनाएँ तो हम न सिर्फ अधिक समझदार, दयालु, नैतिक, न्यायिक, मानवीय, क्रूरता मुक्त व ग्लोबल वार्मिग को रोकने में सहयोग करेंगे बल्कि दो विशेष सम्प्रदायों में आपसी वैमनस्य व हिंसा का भी उन्मूलन बिना किसी समस्या के हो जाएगा।
जो निर्दोष जानवर को तकलीफ देकर खुश होता है, वह निर्दोष मनुष्य को भी तकलीफ देकर खुश होगा। जो निर्दोष पशुओं के साथ हिंसा, क्रूरता, अत्याचार करते हैं, उनकी प्राकृतिक आज़ादी का हनन करते हैं उनको अपने साथ हुई कैसी भी हिंसा पर भी चुप रहना चाहिए। अपने ही कर्म जब अपने पर ही आ पड़ें तो उनसे सबक सीखना चाहिए। शिकायत करने का हक तो आप कब का खो चुके।
Note: गोबर चूंकि जानवर स्वयं त्याग रहा है तो जब तक वह जीवित है उससे गिराया गया गोबर खाद बनाया जा सकता है, गोबर गैस और उपले भी। जिससे किसी तरह की शोषण व हिंसा प्रतीत नहीं होती है। लेकिन इसमें पशुओं को बाँधना/कैद करना शामिल नहीं है।
सम्बन्धित शोध कृपया इधर देखें (English): वैश्विक मानक शोध, भोजन पर। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©
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