20 लाख साल पहले के मानव का कंकाल मिला। कुछ पशुओं की हड्डियों में पत्थर के औजारों से मांस खरोचने के निशान मिले तो अंदाज़ लगाया जा रहा है कि वह मानव मांसाहारी था।
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हमारा सवाल वहीं का वहीं है कि शिकार सीखने से पहले वह क्या खाता था? उसका शरीर शिकार करने के लिए कभी बना ही नहीं तो बिना शिकार किये, वह मांसाहारी कैसे रह सकता था?
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कृमि रूप परिशेषिका (appendix) प्रमाण है कि मानव शुरुआत से ही Vegan था। बाद में पका भोजन (कम सेलुलोस वाला) खाने से अब इसका इस्तेमाल नहीं हो पा रहा।
देखिये: कृमिरुप परिशेषिका (appendix)
अब ये लोग कह रहे हैं कि ये वाला मानव मांसाहारी था। अब था तो था, लेकिन एक वैज्ञानिक समूह बेमतलब में फिर से एक बकवास मत दे रहा है कि मांस खाने से मानव के दिमाग का विकास हुआ।
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कैसे? सर्वविदित है कि जैवविकास (evolution), "सर्वोत्तम की उत्तरजीविता" के सिद्धांत से होता है। उनको करने के लिये ब्रह्मांड किरणों से आया विकिरण और DNA की दुर्घटना पूर्ण त्रुटियां ज़िम्मेदार होती हैं।
उदाहरण के लिये, शुरुआत में जिराफ लम्बी तथा छोटी गर्दन वाले दोनो तरह के होते थे। लेकिन आज सिर्फ लम्बी गर्दन वाले पाए जाते हैं। (खुदाई में मिले कंकालों के अध्ययन से)
वैज्ञानिक लैमार्क ने कहा कि ऊंचाई पर मौजूद पत्तियों को खाने के चक्कर में ज़ीराफ़ की गर्दन लंबी हो गई। जबकि खोजी जैव वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने प्रमाणों के साथ कहा कि गलती से कुछ जिराफ़, लम्बी गर्दन वाले पैदा हुए और वही भोजन पा कर बचे और बाकी सब मर गए। बताइये दोनो में से किसकी बात सही लग रही है? 😁
सीधी बात है, चार्ल्स डार्विन की बात ही सही है। लैमार्क वाली बात में ऐसा लग रहा है कि हम अपनी जरूरत के अनुसार अपने शरीर में बदलाव कर सकते हैं। जो कि हमारे बच्चों में भी जाने तय हैं। क्या वाकई? 😁
इस तर्क से हम सीखते हैं कि जैवविविधता दुःखद या सुखद घटनाओं द्वारा हुए DNA परिवर्तन पर टिकी है न कि अनुकूलन पर। अनुकूलता एक ही जीवन तक सीमित रहती है। अगली पीढ़ी को फिर से 0 से शुरू करना ही पड़ेगा।
अब अगर अगली पीढ़ी या पीढ़ियों में, कोई बच्चा ऐसा पैदा हो जाये जिसका शरीर पहले से ही बाहरी दुनिया के अनुकूल हो तो उसे कुछ सीखना नहीं पड़ेगा। इसी के बच्चे आगे जाकर अनुकूल पीढ़ी बनाएंगे।
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अब अगर कोई कहे कि भोजन से अगली पीढ़ी में कोई बदलाव आ सकता है तो वह विज्ञान को जानता ही नहीं है। भोजन किसी कमज़ोर हो चुके व्यक्ति को भला-चंगा कर सकता है, कुपोषण को खत्म कर सकता है लेकिन आपके अंडाणु और शुक्राणुओं के DNA को नहीं बदल सकता।
अगर ऐसा वाकई होता, तो हम अपनी पीढ़ियों के IQ माँस खिला कर बढा सकते थे। जो कि असम्भव है।
इसके विपरीत, वैज्ञानिक प्रमाण और शोध साबित करते हैं कि मांसाहारी इंसानो की बुद्धि, शाकाहारी और निरवैद्य (Vegans) से कम ही होती है। ऐसे कई शोध हुए और उनकी थीसिस ऑनलाइन देखी जा सकती है। इन शोधकर्ताओं के सामने आने पर मांस को विकास का कारण बताने वाले वैज्ञानिक कह रहे हैं, "हमें नहीं पता कि ऐसा कैसे हो रहा है।"
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चलिये मैं बता देता हूँ, कि ऐसा कैसे हो रहा है। एक अन्य रिसर्च हुई है जिसमें ये साबित हुआ है कि जिनका मस्तिष्क बुद्धिमान (अधिक IQ) होता है, वे अपने आप शाकाहारी या Vegan बन जाते हैं या कहा जाए तो केवल वही vegan बन पाते हैं जिनकी बुद्धि अधिक होती है।
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कम बुद्धि के लोग स्वाद के लालच में और किसी भ्रष्ट एक्सपर्ट (जिसका इस आर्टिकल में उल्लेख है) के कंधे पर रख कर बंदूक चलाते हैं। उनको लगता है कि एक्सपर्ट के रूप में विज्ञान उनके साथ है। जबकि विज्ञान किसी एक व्यक्ति या समूह की बपौती नहीं है।
कई रिसर्च साबित करती हैं कि पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग को मांसाहार और उसके लिए पशुउत्पाद उपलब्ध करवा रही इकाइयां बढा रही हैं। जिनके चलते भविष्य में प्रलय आ सकती है।
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अब कोई बुद्धिमान होगा तो अपने आप इस प्रलय को रोकने का प्रयास अपने स्तर से करेगा ही। यही कारण है कि Vegan बुद्धिमान होते हैं। साथ ही माँस खाने वाले मानव अधिकतर मस्तिष्कीय कुपोषण का शिकार मिलते हैं। तार्किक रूप से Vegan आहार शैली उनको अधिक पोषण देकर उनकी बुद्धि को बढ़ा देती है। यह एक अन्य कारण है Vegan मानवों की अधिक बुद्धि का।
अतः ऊपर बताया गया वैज्ञानिक और उन जैसा हर वैज्ञानिक समूह सबको मूर्ख बना रहा है। उनको, जो विज्ञान के बारे में गहराई से नहीं जानते। कारण क्या है?
ये वो लोग हैं जिनको मांस, अंडा और डेयरी उद्दोगों द्वारा धन देकर मांस के लाभ समझाने के लिये कहा गया है। ज्यादातर लोग बस बड़े पद पर बैठे व्यक्ति के कहे पर ही चलते हैं। खुद का मस्तिष्क प्रयोग नहीं करते।
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~ Shubhanshu Dharmamukt (M.Sc Zoology) 2020©
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