Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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Human and Animals are not things to use, they are all persons



जिज्ञासु: क्या हम सब एक-दूसरे का वस्तुकरण करते हैं?

शुभ: हाँ, जब भी हम किसी भी संज्ञा को मेरी, मेरा, हमारा, तेरा, तुम्हारा, आपका कहते हैं तो वह स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि आप उसे वस्तु समझते हैं। केवल वस्तुएं ही हमारी या आपकी हो सकती हैं। इंसान स्वतन्त्र है।

इसीलिए मैं कम से कम वस्तुकरण हो ऐसे शब्द प्रयोग करता और मानता हूँ। इसको मित्रता और परिवार के सम्बोधन में ही शामिल करता हूँ क्योंकि इनकी भंयकर आदत समाज को पड़ चुकी है। रिश्ते और विवाह के बनते ही वस्तुकरण शुरू हुआ और फिर ये मित्रता को एक अलग ही सम्बन्ध दर्शाने लगी। इसलिये इसका भी वस्तुकरण हो गया।

यदि विवाह संस्था न होती तो सभी मित्र होते, मेरा या तुम्हारा कहने की ज़रुरत ही नहीं होती। अजनबी मिलते और जानपहचान हो जाती। घनिष्ठता होती तो घनिष्ट मित्र कह सकते थे। मेरा-तुम्हारा बोल कर हम बाकियों को नीचा दिखाते ही हैं कि ये हमारी प्रोपर्टी है, आपकी नहीं।

सबसे ज्यादा ये प्रेमियों में देखने को मिलता है। 'मै तेरा हो जाऊं, तू मेरी हो जाए।' जैसे शब्द गुलाम बनाने, बनने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं और एक दूसरे के अधिकारों पर कब्जा करने का उपक्रम है। मेरी प्रेमिका, मेरी पार्टनर शब्द (जो मैं भी अब तक प्रयोग करता रहा था जब तक आज मैंने इस बारे में गहराई से नहीं सोचा।) साफ दर्शाते हैं कि मेरी पार्टनर या प्रेमिका या मित्र तुम्हारी नहीं है। उससे दूर रहो। इसे इंग्लिश में possessiveness कहते हैं और हिंदी में परिग्रह कहते हैं।

तथागत गौतम बुद्ध ने कहा था कि वस्तुओं का संग्रह मत करना। इसी क्रम में उन्होंने अपने स्वामित्व की समस्त वस्तुओं को त्यागने में ही भलाई समझी। इसमें उनकी पत्नी और बच्चा समेत परिवार के बाकी सदस्य और देश तक छोड़ना शामिल था। इसे उन्होंने अपरिग्रह नाम दिया। अपरिग्रह मतलब nonpossesiveness है। कुछ हमारा नहीं है। हम किसी वस्तु का उपयोग करते हैं। उस पर अधिकार करना परिस्थितियों पर निर्भर है। बेजान वस्तुओं को तो आप सांसारिक उपभोक्ता होने के नाते इस्तेमाल कर सकते हैं। परंतु जीव-जंतु?

अगर कोई जीव-जंतु खुद की देखभाल नहीं कर पा रहा मानव निर्मित जगह पर तो उसको परिजन की ज़रूरत है।  उसके मालिक नहीं हैं आप। किसी दिन वो जाना चाहे तो उसे जाने दीजिए।

इसी तरह हमारे परिजन होते हैं। वे बच्चों की ज़िम्मेदारी तब तक लें जब तक वे असहाय हैं। 16 से 18 वर्ष की आयु तक आप उनको नियंत्रित कर सकते हैं। उसके बाद आपको उनको स्वतंत्र करना होगा। चाहें वे कितने भी अपरिपक्व क्यों न लगें। ये आपके लालन पालन की कमी है कि उसे परिपक्व नहीं बना सके।

अब परिपक्वता उसे बाहरी दुनिया से लड़ कर आएगी। यही सार्वभौमिक सत्य है। आपकी प्रेमिका, प्रेमी, मित्र कोई आपका सामान/वस्तु नहीं हैं। इनका अपना खुद का कोई भी निर्णय हो सकता है। अपने निर्णय उन पर न थोपें। केवल समझाएं। अगर अगला बड़ी गलती कर रहा है तो उसे थोड़ा बलपूर्वक समझाएं। बहुत अधिक घनिष्ठता है और नहीं समझ रहा/रही तो आप आवश्यकतानुसार चपत भी लगा सकते हैं लेकिन बाद में उसकी क्षमा भी मांगिये। मार-पीट मत करने लगिये। अंत में दुख ही होगा।

और फिर भी अगला अपने निर्णय पर अड़ा रहे तो जाने दीजिए उसे। उसने अपना भविष्य तय कर लिया है। अच्छा या बुरा, आप उसे मत रोकिए, अन्यथा आपका भविष्य अगला ज़रूर बर्बाद कर देगा। कुछ लोग ठोकर खाकर ही सम्भलते हैं। उनको खाने दीजिये।

कुछ भी हो, जंतुओं और इंसानों (जंन्तु) का वस्तुकरण करने से बचिए। वस्तुकरण इंसान या जानवर को इंसान या जानवर नहीं, सामान बना देता है। जो तोड़ा जा सकता है और छोड़ा जा सकता है। जो आप नहीं चाहेंगे कि आपके साथ हो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

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