आम जीवन में मैंने देखा है कि लोग 50-60 वर्ष की आयु आते-आते बीमार, अपंग और दयनीय हालत में पहुँच जाते हैं। जो ज्यादा बीमार नहीं होते वे इस कदर कमज़ोर और लाचार हो जाते हैं कि उनको किसी जवान व्यक्ति के हाथ पांव उधार लेने पड़ते हैं। यानि न सिर्फ वे अपनी कष्टमय ज़िन्दगी बेमतलब में जीते हैं बल्कि एक जवान व्यक्ति का जीवन भी अपने साथ बर्बाद करवा देते हैं।
मैंने बहुत गहराई से बचपन, जवानी और बुढ़ापा देखा है। देखा है कि कैसे एक बच्चा जवान हो जाना चाहता है और कैसे एक जवान वापस बच्चा हो जाना चाहता है। कमाल है कि कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता। जीवन के 3 पड़ाव में से सिर्फ 2 तक जाना चाहता हैं लेकिन तीसरे के करीब आते ही वापस लौट आना चाहता है।
दरअसल यह भी मानव स्वभाव है। जीवन क्या है? जीवन एक रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप जन्मे चेतन मन, उनसे बनी इंद्रियों द्वारा होने वाले एहसासों, मस्तिष्क में डोपामिन जैसे हार्मोनों के ज़रिए होने वाले आनन्द को अनुभव करने का नाम है। इसी के प्रतिरक्षा तंत्र में हम कष्ट और दर्द महसूस करते हैं। ये भी आवश्यक हैं लेकिन केवल बचाव के लिए। दर्द हमें नुकसान दायक कारक से बचाता है। डर हमें नुकसानदेह परिस्थितियों से बचाता है। दुःख रुदन द्वारा हमें कठिन परिस्थितियों से होने वाले निराशा जनक नर्वस ब्रेकडाउन होने से बचाता है। यह सब किसलिये?
दरअसल यह सारी सुविधाएं शरीरों में खुद की रक्षा करने हेतु होती हैं। खुद ये शरीर जब तक है, स्वस्थ है, तब तक हम लोग, लोग हैं अन्यथा ज़िंदा लाश हैं।
ज़िंदा लाश क्या होता है? ज़िंदा लाश का अर्थ है कि एक ऐसा जर्जर शरीर जो सिर्फ सांस लेता, खाता, हगता और सोता है। वह कोई भी आनन्द नहीं ले सकता। आनन्द का न ले पाना ही आपकी मृत्यु है। लेकिन यह शरीर की मृत्यु नहीं है।
विज्ञान द्वारा हम आज मरे-अधमरे शरीर को भी वेंटिलेटर पर रख कर ज़िंदा दिखा सकते हैं। क्योंकि मशीन से दिल, फेफड़े का काम लेकर कर ज़िंदा होने के लक्षण पैदा कर दिये जाते हैं। जबकि व्यक्ति तो कब का मर चुका होता है। धन का लालच आपको चिकित्सक बनवाता है तो आप व्यापार ही तो करोगे? जब धन की भूख बढ़ जाएगी तो आप धन ही तो नोचोगे!
चिकित्सालय मरों को नहीं जिया सकते। वे घायलों के घाव भरते हैं।
हम क्या हैं? हम शरीर हैं। शरीर खत्म, हम (चेतना) खत्म। शरीर का अस्वस्थ/अक्षम होना यानी आनन्द खत्म। आनंद खत्म तो फिर जीवन का क्या करना? दुःख वही सार्थक हैं जो वापस आनन्द ला सकें। रोना वही सार्थक है जो मुस्कुराहट ला सके। दर्द वही सार्थक है जो आंनद ला सके। कष्ट वही सार्थक है जो सुख ला सके।
मैंने इंसानों के पृथ्वी पर आगमन से लेकर भविष्य में उसके खात्मे तक को देखा है। मैंने देखा है कि कैसे इंसान ने आनन्द के लिये सही और गलत रास्ते अपनाए। स्वार्थ से लेकर निःस्वार्थ तक। नफरत से लेकर प्रेम तक। लालच से लेकर त्याग तक। सब के सब आंनद की तलाश में निकलते रहे। कोई राजा बन कर सुख पा गया तो कोई सन्यासी होकर सुखी हो गया।
इसी कड़ी में मैंने देखा कि शरीर को स्वस्थ रख कर हम जीवन का आनन्द लंबे समय तक ले सकते हैं। शरीर का दुरुपयोग करके हम इसे ज़ल्दी ही कष्टमय मृत्यु की ओर धकेल सकते हैं। मैंने जानवरों का गहनता से अध्ययन किया है। मैंने उनको अपनी उम्र पूरी करके शांति से मरते देखा है।
इंसान की औसत आयु 100 वर्ष मानी गई है लेकिन ऐसा लगता है कि यह भी घट-बढ़ सकती है। इंसान कुछ भी कर सकते हैं। इनमें भेड़चाल होती है। कोई अगर कुछ कर रहा है और तुरन्त बर्बाद न हुआ तो सब वही करने लगते हैं। सबकी उम्र निर्धारित है फिर भी इंसान की औसत आयु कैसे घट-बढ़ रही है?
मैंने जंतुओं की गहनता से पड़ताल की है। शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका और अतिसूक्ष्म DNA का भी अध्ययन किया है। देखा है कि कैसे आण्विक स्तर पर शरीर कार्य करता है। कैसे शरीर में छोटा सा परजीवी जाकर उसे नष्ट कर देता है। कैसे हमारी खान-पान की खत्म हो चुकी सेंस ने हमें अभक्ष्य को भक्ष्य बना कर खुद की कार्य प्रणाली को क्षतिग्रस्त कर डाला है। कैसे दीर्घायु केवल दुआओं और आशीर्वाद में ही सीमित रह गई है। सही भी तो है, दुआ और आशीर्वाद में हम वही तो कामना करते हैं जो हो नहीं सकता या जो होना दुर्लभ होता है।
पशुओं में खुद की सेंस होती है कि क्या खाना है और क्या नहीं। भोजन ही हमारे शरीर का निर्माण करता है। हमारा भोजन जैसा होगा, वैसा ही होगा हमारा भविष्य। मैंने देखा कि एंटीऑक्सीडेंट कैसे मुक्त मूलकों को नष्ट करके कोशिकाओं को स्वस्थ बनाए रखते हैं। मैंने देखा कि शारिरिक संरचना के अनुसार भोजन करने वाले जन्तुओं का शरीर उनकी संरचना के अनुसार शरीर को चलाता है। जैसे मांसाहारी और सर्वाहारी जन्तुओं में मुक्त मूलक प्रभावी नहीं होते या वे ही उनकी आयु निर्धारित करते हैं। जबकि वनस्पति आधारित भोजन वाले जन्तुओं में मुक्त मूलक तेजी से बूढ़ा करना शुरू कर देते हैं।
इस वृद्धावस्था को रोकने के लिए वनस्पति बहुत बड़ा योगदान देती हैं। केवल वनस्पतियों में ही एंटीऑक्सीडेंट पाए जाते हैं जो कि मुक्तमूलक को नष्ट करके कोशिकाओं को स्वस्थ रखते हैं। वनस्पति आधारित भोजन वाले जंतु यदि किसी कारण वश पशुउत्पाद या मांस खाने लगते हैं तो वे न सिर्फ मुक्तमूलकों को पनाह देते हैं बल्कि bad cholesterol और कैंसरकारी तत्व भी शरीर में एकत्र करने लगते हैं।
ये तत्व स्तन कैंसर (स्त्री/पुरुष), मुहँ, गले, खून, गर्भाशय, आंत आदि के कैंसर, अधिक कैल्शियम होने के कारण हुई विपरीत क्रिया से अस्थिभंगुरता, शरीर के विभिन्न अंगों व नसों में पथरी, मधुमेह, मोटापा, गठिया, जोड़ो का दर्द, दांतों का असमय गिरना आदि तमाम विकार, 35 वर्ष की आयु के बाद कठोर हो चुकी रक्त नलिकाओं के बन्द होने से हुए ह्रदयाघात और पक्षाघात (लकवा) के खतरे पैदा कर देते हैं। ह्रदय की अन्य समस्याओं में; छेद होना, उसकी संरचना में आनुवंशिक दोष होना आदि आते हैं जिनमें बिना कोलेस्ट्रॉल के भी मृत्यु हो सकती है।
इस तरह लंबे जीवन का राज़ जान कर मैं कुछ ऐसे आनंद के त्याग में लग गया जो आगे जाकर कष्ट को दावत देने वाले हैं। मैं अपने परिवेश में डाली गई खराब आदतों में आनंद महसूस करके जो लत लगा बैठा था उनसे जूझने लगा। बार-बार खुद को समझाया है कि खाने के लिये मत जियो। जीने के लिए खाओ। इसी कड़ी में क्या लाभदायक है और क्या नुकसानदायक? यह भी दिमाग में डाला।
भोजन में पशुउत्पाद, नशा, कैफ़ीन ऐसे कारक हैं जो लत डाल देते हैं। डेयरी का केसीन प्रोटीन एक addictive तत्व है। इसे एक बार खाने के बाद अमाशय में एक क्रिया होती है और दिमाग को तुरन्त डोपामिन छोड़ने का आदेश मिलता है। ठीक वैसे ही जैसे नशे, तंबाकू, अफीम, गांजा, भाँग आदि पदार्थो से और सेक्स से मिलता है।
इनकी लत लग जाती है। छोड़ना जैसे एक युद्ध हो जाता है, खुद से ही। कोई कितना भी समझा दे लेकिन सब जानते हुए भी मन नहीं मानता। मैं भी इन परिस्थितियों से गुजरा हूँ। अपने आप को रिहैबिलिटेशन सेंटर बना कर आज़ाद हो गया एक दिन। भोजन की कैद से।
फिर शुरू की खोज कि क्यों चिकित्सक इस खतरे को जानते हुए भी किसी को नहीं बताते। क्यों ज़हर को दवा बताने पर तुले हैं? जवाब जानने की कड़ी में मुझे एक डॉक्यूमेंट्री मिली जो 2017 में ही बनी थी। उसमें बताया गया कि डेयरी, मीट, पोल्ट्री इंडस्ट्री चिकित्सा जगत को अरबों डॉलर का भुगतान कर रही हैं इस सब के प्रचार के लिए। अब सब साफ था।
मैंने तय कर लिया था कि मुझे ज़ल्दी नहीं मरना है। मुझे कष्ट में नहीं जीना है। मुझे बुढ़ापा पीछे धकेलना ही होगा। मुझे बुढ़ापा दयनीय नहीं बनाना। इसलिये मैंने शरीर की आवश्यकता के अनुसार भोजन प्रारंभ किया और मैं आश्चर्य जनक रूप से स्वस्थ और शक्तिशाली होता चला गया। मेरी बुद्धि में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ और मैं लोगों के बीच सम्मान पाने लगा। कभी मूर्ख कहा जाने वाला शुभाँशु आज विद्वान कहा जाने लगा है। लंबे ज्ञानवर्धक लेख लिखने लगा है। अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण पा लिया। असम्भव अब सम्भव हो चला है।
इतना कुछ लिख कर, चित्र बना कर, आविष्कार करके शांत बैठा हूँ। इस आशा में कि अभी समय नहीं आया है। लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए कि वे मेरी कठोर सत्य से भरी बातें सुन-समझ सकें। अभी उनको सबके बीच लाया तो वे भड़क जाएंगे। अपने पूर्वजों को गलत साबित होते देख कर कुपित हो जाएंगे। इतना भीषण बदलाव उनको सदमा दे देगा और वे दे देंगे मुझे असमय मौत। कर देंगे मेरी हत्या।
फिर क्या करना उनको वो सब देकर जो उनके लिए अच्छा है लेकिन उनको चाहिए ही नहीं? ममतामयी माता तक बच्चे के रोये बिना उसे भोजन नहीं देती फिर मैं तो समाज से अलग एक निष्ठुर इंसान हूँ। जो अपने माता-पिता को स्वस्थ रखने के लिये जी जान एक कर दे रहा है ताकि वे बिस्तर न पकड़ लें। जबकि बाकी लोग अपने बुजुर्गों को बिस्तर पकड़ा कर उनकी सेवा में लगे हैं। सेवा ऐसी कि उनका शरीर जल्द ही मृत्यु को प्राप्त हो जाये।
कोई ज़रूरत नहीं है। अव्वल तो स्वस्थ रहिये। दूसरे अगर शरीर जवाब दे गया है तो क्या कर रहे हो जीकर? सांस लेकर छोड़ना जीवन नहीं है। अपनी सेवा करवाने में अपने बच्चों का जीवन बर्बाद करवाना प्रेम नहीं है। क्यों कष्ट सह रहे? अगर स्वस्थ हो सकते हैं, इलाज हो सकता है तो करवाइए। आत्मनिर्भर बन सकते हैं तो प्रयास कीजिये और अगर सब बेकार है तो खत्म कीजिये इस इहलीला को। तड़पते हुए मरने से बेहतर है झटके से मृत्यु। मर्सी किलिंग ले लो।
दूसरों पर निर्भर होना आप बुरा मानते हैं लेकिन बुढापा आते ही यह निर्भरता पुण्य में कैसे बदल जाती है? किसी पर ऐसे निर्भर होना जो उसे कष्ट दे, निर्भरता नहीं है। परजीविता है। जो जिस पर पलती है उसी को खा जाती है।
मैं बुढापे से दूर रहने के हर सम्भव वैज्ञानिक प्रयास कर रहा हूँ। पक्का है कि औरों से ज्यादा अजर और लम्बा जीवन जियूँगा। लेकिन नहीं पता कि मृत्यु का कारण क्या होगा इसलिये पहले से तय है कि अगर बेकार हो गया तो मर जाना पसन्द करूँगा लेकिन किसी पर परजीवी बन कर जीना नहीं। आनंद लेने की पहली शर्त है कि किसी और के आंनद में खलल न पड़े। आशा है कि आपको आज पता चल गया होगा कि अगर अकेले भी रहना पड़े तो आप को क्या करना है। ~ Vegan Shubhanshu Singh Chauhan 2019© 2019/04/13 16:47
6 टिप्पणियां:
अति उत्तम सर! वाकई काफी ज्ञानवर्धक है आपकी पोस्ट! पूरी पोस्ट पढ़ और समझ ली है मैंने। मगर एक समस्या मेरी यह है कि मैं एक नशा करता हूँ जिसका नाम है "गुड़ाखू"! बिल्कुल मंजन की तरह होता है। फर्क सिर्फ इतना है- यह नशीला होता है। इसका सेवन ठीक इसलिए किया जाता है जैसे- तम्बाकू का सेवन मन की शांति के लिए किया जाता है। क्या मैं इस एक नशे से भी रोगग्रस्त हो सकता हूँ? इस एक नशे से क्या मेरी आयु में कोई जटिल प्रभाव पड़ने वाला है? गुड़ाखू और दूध/पनीर को छोड़कर नशामुक्त और शाकाहारी बने आज 1 वर्ष पूर्ण हो गए हैं मेरे। मैंने बहुत कोशिश की मगर इस गुड़ाखू की लत को छोड़ नहीं पा रहा हूँ। एक बात और , नास्तिक/धर्ममुक्त, शाकाहारी, नशामुक्त, विवाहमुक्त तो अब मैं भी बन गया हूँ। अब मुझे इन सारी चीजों से कोई दिलचस्पी नहीं है। इन सारी चीजों का सेवन करने वालों से अब दूरियाँ भी बना ली है मैंने। मगर आज तक मैंने कभी किसी के साथ सेक्स नहीं किया है सिवाय 2 दिन किश के। मेरी इस टिप्पणी के सन्दर्भ में और भी कोई उपाय/सुझाव/राय या संशोधन हो तो बताएं जरूर।
आपने addiction शब्द पढा होगा पोस्ट में। किसी भी लत वाली वस्तु के परिणाम अच्छे नहीं होते। साफ लिखा है कि इससे कैंसर होता है। धीरे धीरे इन सब को कम करना होगा। अंग्रेजी डॉक्टर से मिलो। गुड़ाखू तम्बाकू ही है। इसको छुड़ाने के लिए कुछ आता है।
जैसे और लोग प्रेम में पड़ते हैं वैसे ही आप भी पड़ेंगे। इसमें कोई बताने योग्य बात नहीं है। जब कोई आपके साथ जीवन बिताना चाहे तो उसे भी अपनी विचारधारा से परिचित करवा दें। प्रेम होगा तो वह आपकी विचारधारा पर ज़रूर गौर करेगी। धन्यवाद।
जी बिल्कुल! अवश्य ही अंग्रेजी डॉक्टर से मुलाकात करेंगे।
अवश्य सर!
OK
एक टिप्पणी भेजें