कहानी: श्रीमान वीगन शुभाँशु सिंह चौहान जी।
मेरी एक दोस्त थी। वह पहले बहुत ही संकीर्ण विचारधारा की थी। उसने मिलते ही मुझे भैया कहना शुरू कर दिया। मैंने उससे कहा कि अपने पापा से कहकर पहले मुझे गोद लेकर जायदाद नाम करने की कार्यवाही तो करवाओ लेकिन वह बोली, "नहीं। आप को मैं भाई ही कहूंगी। कारण मैं नहीं बता सकती।"
मैंने सोचा, कोई बात नहीं। यार, कुछ लोग होते हैं डरपोक। होने दो। अभी हिम्मत नहीं है खुल कर जीने की तो कोई बात नहीं।
मैंने उसको उसी रूप में स्वीकार कर लिया। हम अब जब भी मिलते मैं उसको उसके नाम से बुलाता और वो मुझे भाई कह कर। धीरे-धीरे मैं भी घुलमिल गया। अपनी बहन से जैसे सब बातें करता था उससे भी करने लगा। जैसे आज फलाँ लड़की ने मुझे गले लगा लिया, फलाँ ने किस ले लिया आदि।
कभी-कभी लिपिस्टिक भी लगी रह जाती और मैं बताना भूल जाता तो वह टोक देती। तब उससे ही पुछवाता था मैं लिपिस्टिक। वह कारण पूछती, डांटते हुए, जैसे मेरी अम्मा हो। मैं बता देता कि मैं एक ग्रुप में सबको हंसा रहा था कि उसमें से एक खूबसूरत लड़की किस लेकर भाई गयी। पता नहीं कौन थी।
वह बहुत अजीब सी हालत में पहुँच जाती। कभी-कभी कहती कि उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है और यह कह कर वह चली जाती।
लेकिन मैं समझ न सका। मैं उसे अब बहन की ही तरह ट्रीट कर रहा था। हर अंदर की बात खुल के उससे कह देता था लेकिन वह पता नहीं क्यों असहज हो जाती थी।
जब बाकी लड़कियाँ मुझे मेरे नाम से बुलातीं और हाथ मिलाती थीं तो वह मुझे ऐसे देखती थी जैसे मैने कोई गलती कर दी हो। लेकिन मैंने सोचा कि यह तो मेरा हाथ भी अपने हाथ से छूने नही देती। शायद इसीलिए इनकी संकीर्ण सोच का परिणाम है वह बात तो मैं अनदेखा कर देता था।
लेकिन अब बात बढ़ने लगी। वह और लड़कियों को मेरे साथ देखती तो नज़रें फेर लेती और अगर लड़कियां मेरे पास आ जातीं तो वह चली जाती बिना कुछ बोले।
उसका बोलना भी बहुत कम हो गया। कभी-कभी उसकी मिसकॉल आती लेकिन काल back करता तो वह काट देती थी। पता नहीं क्या चल रहा था उसके मन में।
एक दिन लाईब्रेरी में हम दोनो साथ में चुपचाप बैठे किताब पढ़ रहे थे। अचानक उसका हाथ मेरे हाथ से छुआ। मुझे झुरझुरी सी आ गई। मैंने घबरा कर हाथ झटक दिया तो वह सकपका गई। मुझे लगा कि गलती से टच हुआ था।
वह हंसने लगी। तो मैं वापस बैठ गया। उसकी हल्की सी आवाज आई, "सुनो शुभ।"
"ह हाँ, कहो क्या हुआ?" मैं हड़बड़ा कर बोला।
"धीरे...बोलो।" इतना कह कर वह अपनी सीट मेरी सीट के एक दम करीब ले आई। मुझे लगा कि लाइब्रेरी में शोर न हो इसलिए वह ऐसा कर रही है।
"यह बताओ, तुम तो रोज न जाने कितनी लड़कियों से हाथ मिलाते हो और मेरे हाथ की छुअन से इतना क्यों घबरा गए?"
मैंने सिर झुकाए हुए ही उसे पुतलियाँ ऊपर करके देखा और बोला, "तुमने ही मना कर रखा है, तो कहीं गलती मेरी तो नहीं थी? यह सोच कर मैं घबरा गया था। बस।"
"और तो कोई बात नहीं है न?"
"नहीं और कोई बात नहीं है।"
"तो क्या मैं आज से तुमसे हाथ मिलाया करूँ?"
"हाँ, क्यों नहीं? लगता है तुम बदल रही हो।"
"नहीं। वह बस ऐसे ही। सोचा कि इसमें समस्या ही क्या है? जब तुम और दूसरी लड़कियों को नहीं है समस्या, तो मैं फिजूल में ही इतने टाइम तक इसे गलत समझती थी। ही ही ही।"
मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि अब वह अपनी सोच में खुलापन ल्ला रही थी। तभी उसने अचानक ही अपना हाथ, मेज के नीचे की आड़ में आगे बढ़ाया। मैंने देखा, उसकी आँखों में ऐसा कुछ था जैसे वह बहुत बड़ा काम करने जा रही थी। उसके हाथ में हो रहा कम्पन, उसकी एक हिलती टांग, उसकी घबराहट, जोश और हिम्मत उसका सच बोल रहे थे। कितनी दूर रही होगी वह विपरीत लिंग से? यह सोच कर बहुत अफसोस सा हुआ।
मैंने अपना हाथ धीरे से आगे बढ़ाया और उसने जैसे ही हाथ करीब आते देखा, अपनी आंखें बंद कर लीं। मैंने हल्के से उसके हाथ से अपना हाथ मिलाया और मुझे भी पहली बार उसकी छुअन महसूस करने के कारण झुरझुरी चढ़ गई।
लेकिन उसकी वह हिलती टांग पहले रुकी, फिर हाथ का थरथराना लेकिन होठ थरथराने लगे। उसके हाथ की पकड़ मेरे हाथ पर और मजबूत हो गई और उसकी हथेली के पसीने के कारण मेरा हाथ फिसलने लगा।
तभी लाइब्रेरियन करीब से गुजरी। उसे देख कर मेरी दोस्त (तथाकथित बहन) A ने अपना हाथ झटके से खींच लिया। लाइब्रेरियन को पता न चला।
वह उठी और वॉशरूम चली गई। थोड़ी देर बाद जब वह वापस आई तो तरोताज़ा लग रही थी। उसने चलने का इशारा किया और फिर हम लोगों ने अपने-अपने बैग उठाये और बुक्स वापस करके अपने-अपने icard वापस ले लिए।
लेकिन कुछ ही दिनों में ऐसा लगने लगा जैसे अब तो हद हो गई। अब वह आये दिन मेरा हाथ ही पकड़े रहती। चलते-चलते हाथ पकड़ कर चलने लगती तो अजीब लगता कि सिर्फ हाथ मिलाने की बात हुई थी न?
एक् और अंतर आया उसमें। अब वह जब दूसरी लड़कियों को मुझे दूर से बुलाते देखती तो मेरा हाथ कस के पकड़ लेती और जाने नहीं देती। कई बार तो मुझे उसका हाथ झटकना भी पड़ गया क्योकि बेकार की ज़बरदस्ती मुझे पसन्द नहीं।
मैं लड़कियों को स्प्ष्ट देखना चाहता हूँ। मन में कुछ और बाहर कुछ जैसा मुझे पसन्द नहीं। मैं जब कुछ नहीं छिपाता तो आपको भी नहीं छिपाना चाहिए।
एक दिन और बड़ी हद हो गई। जब एक लड़की मुझसे बहुत हँस-हँस के बात कर रही थी (मैं उसे हँसा रहा था) तभी न जाने वह कहां से निकल आयी और मेरी बगल से आकर मेरी बायीं बाहं में अपनी बाहं डाल कर खड़ी हो गई। मैंने धीरे से उससे अपनी बाहं छुड़ाई और उसे हैरत भरी नज़र से देखा तो वह हंसने लगी।
पहले वाली लड़की सकपका के बोली, "मैं बाद में मिलती हूँ, ठीक है शुभ्? Bye!"
"Bye तारा!"
"यार यह अचानक तुमने क्या हरकत करी उसे देख के?"
"अरे, तो क्या हो गया?" वह कुटिल मुस्कान के साथ बोली।
"हुआ कुछ नहीं बस तुम तो मुझे छूने से भी डरती हो तो आज यह इतना कैसे चिपक गईं?"
"तुमको बुरा लगा क्या? आगे से ध्यान रखूंगी मैं। ok? Bye!"
"अरे, यार तुम भी न। छोड़ो, भूलो उसे। मुझे कुछ बुरा-वुरा नहीं लगा। बस मैं shocked हो गया था। अब ठीक लग रहा है।"
"मतलब अब मैं तुम्हारे हाथों में हाथ डाल सकती हूँ?"
"अरे...यार यहाँ सबके सामने ऐसे ठीक नहीं और तुम मुझे भाई बोलती हो उसका भी तो ख्याल करो न?" यह सुन कर वह एक दम अपसेट हो गई। फिर बोली, "तो क्या एक बहन ऐसे अपने भाई को नहीं छू सकती?"
"न...न...तुम गलत समझ रही हो यार। अब देखो वह रवि खड़ा है। क्या तुम उसे अपना भाई बना सकती हो?"
"हाँ, क्यों नहीं।"
"फिर उसके साथ ऐसे ही घूम सकोगी?"
इस बात पर उसने नज़रें झुका लीं।
"यही, कह रहा था मैं। तुम ठीक से झूठ तक तो कह नहीं पाती हो।"
यह सुनकर उसने एक दम मेरे चेहरे को देखा और रुमाल निकाल कर आंसू पोछते हुए जाने लगी। मैं वहीं खड़ा रहा। उसे जाते देखता रहा। वह न रुकी और नज़रों से ओझल हो गई। क्रमशः
2018/07/05 07:18
Author ~ Mr. Vegan Shubhanshu Singh Chauhan, 2018©