कच्चा भोजन तक खाना मुश्किल हो जाता है उसे क्योंकि वह प्रसंस्करित (processed) खाद्य पदार्थ खाने के लिये नहीं बना। उसे जो सीधे और स्वादिष्ट खाने को मिलता है वही खाता है। जैसे मीठे-खट्टे फल, कंद, मूल आदि।
मांस, सींग, दांत, कस्तूरी, दूध, अंडे, चमड़े के अतिरिक्त शहद, लाख, रेशम, मूंगा, मोती, कीड़े से बना लाल रंग, कैंथरइडीन oil, सांडाह oil, पशुओं पर परीक्षण किए जाने वाले वनस्पति उत्पाद आदि भी पशुक्रूरता के अंतर्गत रजिस्टर उत्पाद हैं। जिनका विश्वव्यापी विरोध् बीते 100 सालों से चल रहा है। अब इस आंदोलन ने और भी गति पकड़ ली है क्योंकि लोग omnivores जीवन को अब खतरनाक मानने लगे हैं।
कम शारीरिक श्रम के कारण अब पशुउत्पाद के घातक स्वास्थ्य परिणाम आने लगे हैं। केवल पशुउत्पाद ही cholesterol और अन्य घटक जैसे केसीन प्रोटीन लिए होते हैं। मानव की धमनियां 30 वर्ष की आयु के बाद से कठोर होने लगती हैं। उनका लचीला पन समाप्त होने लगता है और इस उम्र के बाद से अब तक जो भी खाया-पिया था वह संयुक्त रूप से अपना रंग दिखाने लगता है। हम अपनी आदतें आसानी से नहीं बदल सकते अतः जो 30 वर्ष तक कुछ न बिगाड़ पाया वह आगे भी नहीं बिगाड़ पायेगा जैसी सोच से ग्रस्त हो जाते हैं और मृत्यु आसानी से हमारे करीब पहुँच जाती है।
लचीलापन खत्म होने से लोहे के पाइप की तरह कठोर हो चुकी रक्त की धमनियों में यह cholesterol रक्तकणों के साथ मिल कर एक थक्का बनाता है और धमनियों में फंसने लगता है। इससे ह्रदय को ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है। जब यही रास्ता इतना अधिक अवरुद्ध हो जाता है कि मस्तिष्क तक रक्त नहीं पहुँचता तो मृत्यु हो जाती है।
साथ ही यह भी पाया गया है कि दूध, अंडे, माँस में तरह तरह के कैंसर पैदा करने वाले कारक मौजूद होते हैं जो कि आपको मधुमेह, कैंसर, पथरी जैसे घातक रोगों से मार सकते हैं। बीते वर्षों में अपने बेहतर स्वास्थ्य के वादे के कारण वीगनिस्म विश्व भर में फैल गया है और 1 नवंबर को विश्व वीगन दिवस घोषित कर दिया गया है। साथ ही vegan समर्थन दर्शाने हेतु पशुक्रूरता के विरोध में और प्रेम के पक्ष में वीगनिस्म का झंडा भी अब बन चुका है।
केसीन यानी दूध की प्रोटीन दरअसल एक sedative पदार्थ है जिसकी आदत पड़ जाती है। यह अमाशय में पहुँचते ही डोपामाइन को उत्प्रेरित करके हमे अच्छा महसूस करवाता है और हमे इसकी आदत पड़ जाती है। चीज़, पनीर, छेना आदि शुद्ध केसीन के बने उत्पाद हैं। जिनको जो भी एक बार खा लेता है वह बार-बार खाने को मजबूर हो जाता है। खुद को शाकाहारी बोलने वाले सनातनी लोगों की पसंदीदा सब्जी पनीर ही मिलेगी। अतः उनको माँस ही पसन्द आता है।
उनकी हर पसंदीदा वस्तु में वे इस प्रोटीन को डालना अच्छा समझते हैं। जैसे दम आलू की सब्जी और छोले तक में ये मलाई या दही डाल देते हैं। दही और मक्खन सबसे ज्यादा पशुवसा (देशी घी के नाम से प्रचलित पशु वसा) लिए होता है जो कि दिल का दौरा पड़ने का प्रमुख कारण बनता है। इसे लोग मलाई, दही से निकाल कर मक्खन और बना बनाया खरीद कर भी खाते हैं जो कि स्वादिष्ट लगता है। ये इसी कारण लगभग हर भोजन में डाला जाता है। यह तेजी से पच जाता है और ऊर्जा का अनुभव होता है। लैक्टोज शर्करा भी ऊर्जा देती है। ऊर्जा देने वाले खाद्य पदार्थ भी लती बना देते हैं।
दही में यह शर्करा लैक्टोबैसिलस जीवाणु द्वारा खा कर मल द्वारा अम्ल में बदल कर छोड़ दिया जाता है। दही का खट्टा पन इसी मल के कारण होता है। इसमें भी केसीन ही होती है अतः इसकी भी लत लग जाती है। लस्सी आदि अन्य दही के उत्पाद भी आपको मृत्यु के करीब ले जा रहे हैं।
2017 में ओम साईं प्रोडक्शन के सहयोग से एक खोजी पत्रकार ने अपने दादा और पिता की इन बीमारियों से हुई मृत्यु के बाद इस कड़वे सत्य की खोजबीन की। उसने डॉक्टरों के कहे अनुसार सब कुछ किया लेकिन अपने प्रियजनों को बचा नहीं पाया। इसी घटना से उसके मन में डॉक्टरों के प्रति शक बैठ गया और उसने एक खोजी पत्रकारिता के ज़रिए इन सभी हेल्थ ऑर्गनाइजेशनो के US में बने हेडक्वार्टर में खुद जाकर सवाल जवाब किए।
प्रतिक्रिया भयानक थी। इससे पहले भी जिन लोगों ने इस तरह के सवाल जवाब किये थे उनकी लाश तक गायब करवा दी गई थी। मतलब ये संस्थान धोखाधड़ी कर रहे थे। लेखक/पत्रकार ने अपनी खोज जारी रखी और WHO द्वारा घोषित processed मांस पर दी गई गाइडलाइन पर कार्य किया। इस गाइडलाइन में WHO ने बताया है कि मांस में कैंसर, डायबिटीज, ह्रदयघात और पथरी पैदा करने के गुण होते हैं। यह केवल शाकाहारी जंतुओं पर ही प्रभावी होते हैं। इसी कारण प्रकृति में प्रायः शाकाहारी जंतु मांस try भी नहीं करते।
पत्रकार ने ऐसे लोगों पर रिसर्च की जो कि इन बीमारियों से मरने वाले थे। पत्रकार ने उनको 2 हफ्ते vegan भोजन पर रखा और वे ठीक होने लगे। उनकी दवाइयां बन्द करनी पड़ीं और जब उन्होंने खुद इतना बड़ा असर देखा तो उन्होंने पत्रकार को खुशी के आंसुओं के साथ गले लगा लिया। बहुत ही मार्मिक दृश्य था।
दूसरी ओर कुछ लोग कहते पाए गए कि vegan भोजन पर जीवित तो रहा जा सकता है लेकिन ताकतवर नहीं हुआ जा सकता। मसल बनाने के लिये मांस ज़रूरी है। पत्रकार ने खोज जारी रखी और उसे vegan एथलीट मिल गए जो कि बड़े खिलाड़ी थे। उन्होंने बताया कि vegan बनने से पूर्व वे औसत दर्जे के खिलाड़ी थे लेकिन vegan बनते ही उनकी परफॉर्मेंस कई गुना बढ़ गयी। कई पहलवान और बॉडीबिल्डर भी vegan होकर ज्यादा ज़ल्दी मसल गेन कर सके थे।
कई डॉक्टर भी vegan मिले जिन्होंने इस सब को विस्तार से समझाया कि असल सत्य कुछ और है और हमको पढ़ाया कुछ और जाता रहा है। विटामिन बी12 का मांस से ही प्राप्त होना, शक्कर का ह्रदय घात से सम्बन्ध होना आदि बातें बकवास हैं। B12 केवल बैक्टीरिया बनाता है। यह हमारे मुहँ में और आंतों में होता है। यह लगातार बनता रहता है। शरीर को इसकी बहुत अल्प मात्रा में आवश्यकता होती है।
vegan लोगों के लिये जिनमें इसकी कमी महसूस हो वे इसे बाहर से खरीद कर खा सकते हैं या अधिक कमी हो तो इंजेक्शन से ले सकते हैं। शक्कर वाली बात बिल्कुल ही बकवास है कि उससे ह्रदय का कोई लेनदेन है। शक्कर शरीर में जाकर ग्लूकोस में बदल जाती है और ग्लूकोस क्या है यह सबको पता है। जिन पशुओं में विटामिन B12 होता है उनके फार्म मालिक उनको वह खिलाते हैं। कुदरत में यह मल में बड़ी आंत से निकल कर भूमि तक पहुँचता है। चरने वाले जानवर इस मल को अल्पमात्रा में खा जाते हैं। उसी से B12 उन के भीतर पहुँचता है।
मानव के सर्वाहारी होने की बात को करीबी सर्वाहारी जंतु भालू से तुलना करके जांचा गया और मानव तुलना करने योग्य भी न लगा। उसने सब कुछ साधनों के प्रयोग से करना सीखा था जबकि भालू इसके लिए ही बना निकला। केनाइन दांत कहीं से भी सर्वाहारी जैसे नहीं थे। आंखों की रात में देखने की क्षमता भी शून्य। नाक भी मांस की गंध के प्रति अरुचिकर निकली। कान और दौड़ने की क्षमता भी बिल्कुल बेकार निकली। साथ ही मारकाट करके खाने वाले जानवर के भोजन को देख कर 98 फीसदी मानवों को उल्टी और बेहोशी तक आ जाती है।
प्रायः रोगाणु युक्त कच्चा मांस खाने से मानव मर जाता है। दूध भी लोग उबाल कर पीते हैं मतलब उसमें भी रोगाणु। यानी वह बिना रोगाणु मुक्त किये मांसाहारी भोजन नहीं कर सकता लेकिन शाकाहारी वाला कर सकता है।
मतलब वह मांस से डरता है, खायेगा कैसे? मजबूरी ही इसका कारण हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे शेर और कुत्ते पेट खराब होने पर घास खाते है। प्राचीन काल में मानव ने मजबूरी में शिकार करने का निर्णय लिया। इससे पहले वह फलों पर जीवन काटता रहा। पेड़ों पर बंदर की तरह चढ़ना सीखा और मांसाहारी जानवरों से रक्षा करने के लिये हथियार और आग का इस्तेमाल किया। आग और पहिये का आविष्कार न किया गया होता किसी विद्रोही द्वारा तो आज मानव की भिंडी बिक गयी होती।
शिकार भी झुंड में और जब किसी कारण से भोजन लायक वनस्पतियों का अभाव हो गया तभी। इसीलिये वह प्रोसेस करके ही मांस खा सकता है जो कि कैंसर, डायबिटीज, पथरी और ह्रदयघात लिये होता है। यानी अभी नहीं तो कुछ समय बाद होने वाली निश्चित मृत्यु।
पत्रकार ने पता किया तो पाया कि ये सभी संस्थान अरबों रुपये egg, meat and dairy industry से दान में ले रहे थे। बदले में उनको इन उत्पादों का प्रचार करना होता है। सोचिये अगर ये सामान्य भोजन है तो इनको इतने महंगे प्रचार की क्या ज़रूरत? सीधी बात है कि ज़हर को अमृत बनाने के लिये इन बड़ी विश्वसनीय संस्थाओं को खरीदा जा चुका है और यही कारण है कि लोग बीमार पड़ते रहते हैं और दवा बनाने वाली कम्पनियां और इस तरह के भोजन रूपी ज़हर को बेचने वाले अमीर बनते रहते हैं। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2018© 5 pm to 6:08pm, Dec 12
संदर्भ:
Source: Official Website
Paid Netflix Originol Documentry Watch Here
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें