दुनिया की इच्छाएं पूरी करने लगे तो याद रखना, जीवन कम पड़ जायेगा क्योंकि ये दुनिया बहुत बड़ी है, फिर अपनी इच्छाओं को कब पूरा करोगे?
और रही घर वालों की बात, वो "पुरुष बच्चा" चाहते हैं क्योकि समाज चाहता है कि उनके धर्म के लोग बढ़ें और माता-पिता का झूठा दम्भ कहता है कि उनके गुण वाले वंशज पैदा हों व उनकी सम्पत्ति के वारिस बने।
ये उनका स्वार्थ है जो आपके जीवन के सभी सुखों को निगल लेगा और जब वे अपने स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं तो आप भी सिर्फ अपना स्वार्थ देखें। एड़ी चोटी का जोर लगा दें, जैसे घरवाले और समाज अपनी इच्छाओँ को तुम पर थोप रहे है।
बिना स्वार्थ के कोई सम्बन्ध नहीं होता। बस जिसका देह और धन से कोई खास लेन-देन नहीं होता, उसे निस्वार्थ होना कह देते हैं। जबकि स्वार्थ दूसरों को आवश्यक रूप से खुश देखने का (जैसे बुरी परिस्थितियों में मदद करना) और खुद खुश रहने का उस जगह भी होता ही है। इस तरह के स्वार्थ को भावनात्मक स्वार्थ कहते हैं। यही प्राथमिक भावनात्मक स्वार्थ मेरा भी रहता है सबके प्रति।
जब कोई कहे कि बुढ़ापे में क्या करोगे? तब, जब हाथ पैर बेकार हो जायेगें?
तो कहना गाते हुए, "जब सब-कुछ टूट गया...तो जीकर क्या करेंगे? एक पुड़िया ज़हर की लेंगे और कहीं जाकर डूब मरेंगे..."
ऐसी हालत में कोई मूर्ख ही अपनी ऐसी-तैसी करवाने के लिए जीवित रहेगा। वैसे भी वृद्धाश्रम में बढ़ती भीड़ और अपने बच्चों द्वारा रोज पीटे जाते वृद्ध, समाज का कहा सबकुछ करके भी अकेले ही कष्टों भरा जीवन गुजार रहे हैं। उनके अधेड़ बच्चे तो खुद विवाहित जीवन की जद्दोजहद और अपने बच्चों को बर्बाद करने में व्यस्त हैं, जिनको इस तरह की ज़िंदगी उनके इन बुजुर्ग माता-पिता ने ही थमाई है।
● अब पछताए होत क्या? जब चिड़िया चुग गई खेत।
● जब बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होए?
वैसे भी बड़े विद्वानों ने अपने पूरे जीवन का केवल एक ही निगेटिव और पॉजीटिव मिश्रित वाक्य कहा था और वह वाक्य था:
"आप चाहें सुपर ह्यूमन ही क्यों न हों, कितने भी अमीर और समृद्ध क्यों न हों, सबकुछ करके थक जाओगे लेकिन सबको सन्तुष्ट/खुश नहीं कर पाओगे। खुद को खुश करने में ही जीवन निकल जायेगा, बेहतर होगा अभी इस काम पर लग जाएं।" ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©
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