Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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सोमवार, जुलाई 29, 2019

महिलाओं की धर्मांधता का राज़ ~ Shubhanshu

प्रश्न: महिलाओं को ही ज्यादातर धार्मिक आयोजनों में संलग्न देखा जाता है। यही सबसे ज्यादा पाखण्ड और धर्म की पूरक बन कर सामने आती हैं। ऐसा क्यों है?

उत्तर: आश्रित होने की सोच ने डराया हुआ है। समाज ये सोच थोपता है। बचपन से ही महिलाओं को ये सिखाया जाता है कि तुम कमज़ोर हो, ईश्वर सर्वशक्तिमान है। तुम मर्द से भी बहुत कमजोर हो। तुमको उसी के साथ जीवन गुजारना है। उसी की सेवा करनी है। वही तुम्हारी रक्षा करेगा, बाकी अन्य मर्दों से।

यह डर, परिवार और पति पर निर्भरता, और यदि ये न भी हों तो अपनी नौकरी/व्यवसाय में असफल हो जाने का डर क्योंकि उन्होंने अपारंपरिक कार्य करने का खतरा उठाया है जिसका विरोध समाज ही नहीं उनके व्यवसाय से जुड़ा हर मर्द करता है। साथी महिलाएं भी यही कहती हैं कि कोई आदमी ढूंढो, तुमसे ये काम न हो पायेगा। इस दशा में डरी हुई महिला अकेली पड़ जाती है। उसे कोई मार्शल आर्ट सीखने की सलाह नहीं देता, सेल्फडिफेंस के उपाय नहीं सुझाता। किसी तरह से वापस वह आम ग्रहणी बन जाये यही सिखाता है समाज। 

और जब वह ग्रहणी होती है तो वह बाहर रहने वाले पुरुष के प्रति सदा आतंकित रहती है कि कहीं वो मर न जाये। मर गया तो मेरा और मेरे बच्चों का क्या होगा? आज भी हम अदालत और फिल्मों में किसी को सज़ा देते समय यह रहम करते हैं कि बीवी बच्चों वाला आदमी है, इस पर रहम करो।

इस तरह हम साबित करते हैं कि आदमी ही महिला और बच्चों का संरक्षक और दाता है। इस दशा में महिला केवल ऊपरी शक्ति के भरोसे ही बैठ जाती है क्योंकि उसने अपने पंख तो विवाह करके कतर दिए होते हैं। जिनका विवाह नहीं हुआ वे करने के सपने देखती हैं। कम बदमाश पति मिले, इसकी ही कामना करना, उनका प्रमुख कार्य होता है ईश्वर से। शरीफ पति (मूर्ख) उनको वैसे भी पसंद नहीं आएगा और अधिक बदमाश भी क्योंकि वो जेल जा सकता है या मौत के मुहँ में।

दूसरी एक जड़ है समाज के साथ सामंजस्य बैठाना। जैसे जो कुछ भी और साथी कर रही हैं और उनके बीच यदि बैठना है तो उनका कहना मानना ही उन सभी पाखण्डों को बलपूर्वक करवाने जैसा है।

साथ ही एक दूसरे से सुनी हुई चमत्कारी कहानियों से भी पाखण्ड पर विश्वास जाग्रत हो जाता है। जैसे यदि ये सत्य नहीं है तो इतने लोग क्यों कर रहे? खुद को मूर्ख और झुंड को सही मानना ही दरअसल इस तरह की घटनाओं की पोषक बन जाता है। जबकि होना यह चाहिए कि आपको, "मैं भी सही सोच सकती हूँ", "मैं भी सही हो सकती हूँ", "बहुत से लोग गलत भी हो सकते हैं", ऐसा सोच विचार रखना चाहिए।

अधिकतर पुरुष ऐसी सोच के कारण ही अधिक तेजी से बदलाव ले आते हैं क्योंकि उन पर समाज ज्यादा बंदिशें नहीं लगाता और वे खुद को शक्तिशाली समझते हैं। ~ Shubhanshu Dharmamukt 3019©

गुरुवार, जुलाई 25, 2019

समाज का स्याह चेहरा ~ Shubhanshu


किसी महिला/लड़की का सेक्स टेप/क्लिप वायरल करना दरअसल एक सामाजिक (कु)रीति है। यह मासूम लोगों का कार्य नहीं है। इसके पीछे समाजिक कारण है। समाज के अनुसार लड़कियों की उत्तम ज़िंदगी विवाह करना ही है। इसके विपरीत मनमर्जी से अपना जीवन जीने वाली लड़की या वैश्या एक बर्बाद महिला को कहा जाता है। एक ऐसी महिला जो बेशर्म है और फिर भी अपना जीवन जी रही है। जबकि शरीफ महिला आत्महत्या कर लेगी, समाज ये मानता है।

उसकी नज़र में एक वैश्या, विवाह के बिना या विवाह के साथ (यदि पति सहमत न हो) पोर्न, सेक्स से जुड़ी होती है। यह पोर्न/सेक्स 'विवाह के इतर होना' दरअसल उससे उतपन्न बच्चों का धर्म, सम्पत्ति, वंश, नागरिकता, रंग, समुदाय, जाति से कट जाना है। समाज इन सबका समर्थक है और कमाल है कि इन्हीं रंगभेद, लिंगभेदी नफरतों के कारण ही खुला प्रेम और सेक्स बदनाम है। ये समाज सेक्स/सम्भोग का अर्थ बच्चे होना ही मानता है। भले ही अगला नसबन्दी कराए हुए ही क्यों न हो, कंडोम, पिल्स, डायफ्रॉम, पुल आउट आदि को तो छोड़ ही दीजिये।

समाज ने विवाह आपके लिए कभी नहीं बनाया, वो उसने अपने लिए बनाया और देखिये समाज को ही आपके विवाह की सबसे ज्यादा चिंता होगी। भले ही विवाह के बाद आप मरें या जियें, उनको आपके बच्चों की चिंता रहेगी कि वे पैदा हुए या नहीं। वे भी पैदा हो गए तो समाज का रंग एक दम बदल जायेगा। अब आप और आपका परिवार जाए भाड़ में, उनको अब कोई मतलब नहीं।

बच्चों के जवान होते ही समाज को पुनः आपके बच्चों की फिक्र होने लगेगी। अब वे आपको इनकी जल्दी से शादी करवाने को ज़ोर डालेंगे। आप इनकी बातों से डर कर अपने बच्चों पर विवाह का दबाव डालेंगे और फिर से वही होगा जो आपके साथ हुआ था।

दरअसल उनको अपने बच्चों के लिए लड़का और लड़की चाहिए, अपना वंश चलाने के लिए व सम्पत्ति के हस्तांतरण के लिए। इसलिये दूसरों का विवाह आवश्यक है। इसीलिये वे दूसरों के बच्चे देख कर खुश होते हैं और कोई कारण सीधे-सीधे नहीं है। यकीन न हो तो कभी इनके पालनपोषण की ज़िम्मेदारी उनको उठाने को कह कर देखिये। 😂

समाज को जाति/धर्म/रंग/स्थान/इतिहास/आपका स्टेटस देखना है तो विवाह के बिना कैसे दिखेगा ये? इसीलिये उसे 'विवाह के बिना सेक्स' को गलत साबित करना ही है। यदि साबित नहीं कर पाएगा तो वह मरे हुए (विभिन्न कारणों से) लावारिस बच्चों की फ़ोटो/विडियो दिखा कर आपको भड़कायेगा कि देखो प्रेम करने वालों की करतूत। पैदा करके फेंक देते हैं।

यही विवाह समर्थक (धार्मिक/वामपंथी दोनो इस स्थान पर समान हैं), यह नहीं बताते कि 9 माह तक वह कुँवारी (अविवाहित) लड़की अपना पेट और अपनी प्रसव पीड़ा कहाँ और कैसे छुपाती रही? (असम्भव परिस्थिति)

महिला को क्यों इतना दमित किया गया सेक्स पर? क्योंकि महिला बच्चा पैदा करती/कर सकती है। कुदरत के द्वारा बने कुदरती स्वभाव के कारण पुरुष इस ज़िम्मेदारी को उसी महिला पर छोड़ देता है। सदियों तक ऐसा ही चला और सभी जंतु ऐसे ही रहते हैं (एक पक्षी को छोड़ कर)।

लेकिन समाज ने विवाह संस्था को बनाये रखने के लिए महिला को इतना सताया कि वह बिना विवाह के जीवन की कल्पना भी नहीं कर पा रही। इसलिये वह सोचने लगी है कि सिंगल पेरेंट होना उसके लिए असम्भव है। (जबकि वर्तमान में विवाह के बाद भी करोड़ो लोग सिंगल पैरेंट हैं)।

इस दशा में जो भी कोई किसी महिला को open सेक्स करता पाता है तो उसे बर्बाद करके बाकियो के लिए वह उदाहरण सेट करता है। ताकि उसके घर की महिला कहीं 'विवाह से इतर सेक्स' करती न पकड़ी जाए।

इन सब गलत कार्यों जड़ ये विवाह संस्था ही है। ज़रा इसे हटा कर देखिये। छेड़छाड़, वीडियो वायरल करना, शर्म से आत्महत्या, ऑनर किलिंग, वैश्या और सेक्स जैसे taboo गायब हो जाते हैं। एक भव्य, सुंदर समाज दिखने लगता है जहाँ लोग स्वयं अपनी ज़िंदगी को आज़ादी और ज़िम्मेदारी से जीते नज़र आते हैं। शायद मेरी तरह! 😊 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शनिवार, जुलाई 06, 2019

चलो भीड़ बढ़ाएं सनम! ~ Shubhanshu

Natalist (breeder): अपने आप को जारी रखने की नैसर्गिक इच्छा से संतान पैदा करते हैं!

दरअसल, यह प्रकृति ही है, जो #एकोsहं_बहुस्याम: के महत् उद्देश्य से जीवों का विस्तार करती रहती है! 

हम तो प्रकृति की #सृजन_फैक्टरी के #जॉब_वर्कर हैं, जो सैक्स-आनंद और वात्सल्य-सुख जैसे #इन्सेंटिव (प्रोत्साहन)  लेकर प्रकृति का #जॉब_वर्क करते हैं! 

हम तो दिन अस्त,  मजूर मस्त वाली भूमिका में है! 
सृजन-फैक्टरी, माल और फिनिश्ड गुड्स की मालकिन प्रकृति ही है! 

यह प्रकृति ही है, जिसने खुशबूदार परागयुक्त फूल (मादाएं) पैदा की हैं, और उसी ने  पराग वाले फूलों पर मंडराने वाले #भ्रमर पैदा किये है!

प्रकृति ने ही मादा में सारा वसंत उडेल दिया है और उसी ने भ्रमर में फूल-फूल पर मंडराने की #भूख भरी है!

Shubh: अहा! क्या सुंदर बगीचा खिला है हवाई पुलाव का! अतिसुन्दर! अहो भाग्य! जय बच्चा पार्टी। 😂😂😂

ये कोई नई बात नहीं है। आपको जबरन वो कार्य करने को क्यों कहा जा रहा है जो आप खुद करने को मरे जा रहे हैं? सेक्स किया नहीं कि बच्चा अंदर से हैलो डैड/माँ बोलने लगता है। फिर भी सामाजिक दबाव क्यों? दरअसल कोई बच्चा पैदा करना ही नहीं चाहता। जाकर देखिये कितना बिकता है गर्भनिरोधक। इतना कि आप सोच भी नहीं सकते। बाकी मैथुन भंग करके बच्चा होने से रोकते हैं।

इसीलिये समाज (प्रायः धार्मिक) आपसे जबरन बच्चे पैदा करवाना चाहता है। दरअसल विवाह संस्था को बचाना है। सरकार भी यही कह रही कि चाहें पति कितना भी बलात्कार करे, न तलाक हो और न ही उसे कोई सज़ा। यकीन न हो तो चेक कर लें। खुद जांचना है? बिना विवाह के मिठाई बांटो, बच्चा होने की। पता चल जाएगा कि समाज कितना प्रसन्न होता है। और यही 'विवाह कर लिया है' कह कर देखना साथ में। तब देखना, कितना फूले नहीं समाते लोग। दरअसल उनको आपके बच्चे से मतलब नहीं है। होता, तो उनको क्या मतलब कि यह विवाह का परिणाम है या सेक्स का? साथ ही वे उसके पालनपोषण का खर्च भी उठाते मिल कर। लेकिन नहीं। सब चाल है। समाजिक मनोरोग है ये।

Natalist मनोरोग से पीड़ित लोगों को लगता है कि वे पृथ्वी पर आखिरी मानव बचे हैं। इसी मनोरोग को natalism कहा जाता है। इसे भुनाने हेतु वह रंगीन कल्पनाएं गढ़ लेते हैं। इनको न तो दुनिया का कोई ज्ञान होता है और न ही इतनी समझ कि उनके पैदा हुए बच्चों का असल भविष्य क्या होगा और इस पृथ्वी के पर्यावरण, सीमित संसाधन (जल, जंगल, भोजन और ज़मीन) का वह क्या हाल करेगा? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मूर्ख समझा है क्या? ~ Shubhanshu



मेरे पैदा होने बाद मुझे जो सबसे पहले बनने का विचार आया था, वह था आविष्कारक, वैज्ञानिक और लेखक बनने का।

बड़ा हुआ तो पता चला कि इनकी कोई वैल्यू ही नहीं है इस समाज में। डॉक्टर, इंजीनियर, बैंक PO, IAS, PCS बस यही सबकुछ है।

लेखन, आविष्कार, विज्ञान, इसमें फेमस भी वही होता है जो खुद ही अपने पर्चे बांटे। जो खुद का ही प्रचार करे। इधर खाने को लाल पड़े थे और हम लड्डू बांटे?

हटा सावन की घटा। बन तो मैं दोनो गया, कब का, लेकिन भाड़ में जाएं दुनिया वाले। जब बन रहा था, तब तो जूते मारे, गालियां दीं, अपमान किया और परेशान किया।

मुझे आपका असली चेहरा दिखा और मैं आप की दुनिया से दूर होता गया। अब अकेला करने के बाद, मेरा दिल, हिम्मत और उम्मीदें तोड़ने के बाद भी, साथ दूँ? आपका? चूतिया समझा है क्या?

ये तो वही बात हुई कि तुम सबसे विद्रोह करके तुम्हारे लिए खाना बनाऊं और तुमसे ही पिट कर, मार ख़ाकर तुमको अपने हाथों से खिलाऊं? मेरे को मूर्खता के कीड़े ने अभी न काटा है...

हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा जा बे, फूट बे। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

ये क्या भीड़ में खोए हुए हैं? ~ Shubhanshu


बहुत से लोग 5000 लोग लिस्ट में और हजारों फॉलोवर को इसलिये रखते हैं क्योंकि वे खुद को बहुत बड़ा समाजसुधारक या गुरुदेव समझते हैं। मैंने कहा कि मित्रसूची में तो सिर्फ मित्र होने चाहिए, और वे कम ही होते हैं। तो साहब सभी गुरूदेव बोलते हैं कि दोस्त थोड़े ही हैं लिस्ट में, मूर्ख हैं, उनको सुधारूँगा तभी तो देश बदलेगा!

मैं थोड़ी देर हंसता रहा फिर कहा कि मित्र, जो मूर्ख होगा वह कुछ सीखेगा क्यों? वो गलत होगा तो आपसे जुड़ेगा ही क्यों? जो भी आपसे जुड़ेगा वह तो आपको बदलने के लिए जुड़ेगा या आपके विचारों से समानता व समर्थन रखता होगा। जो आपको बदलना चाहता है उससे जुड़ कर आपको फायदा नहीं बल्कि नुकसान है और जो समानता और समर्थन रखता है उसके आप मित्र नहीं हैं तो वो भी बेकार है और उनको सुधारना क्या? वो तो पहले ही सुधरे हुए हैं।

ज़रूरत तो हमें खुद को सुधारने की होनी चाहिए, दूसरे खुद ही बदल जायेंगे आपसे प्रेरित होकर। अपने बारे में लिखिये। जो आप कभी करते नहीं। जो करना चाहिए वो करते नहीं और जो बेकार है वह जोरशोर से कर रहे।

उनको जोड़िए जो आपके विचारों से प्रभावित हों और खुद को बदलने की कोशिश कर रहे हों। भविष्य में वे ही आपके असली मित्र बनेंगे। वे सम्भावित मित्र होते हैं। उन्हीं के लिए आप और आपकी लिस्ट है। न समर्थकों के लिए और न ही सिखाने वालों (egoist) की।

अब क्या कारण है भीड़ रखने का? इसका जवाब अगले के पास नहीं था, क्या आप के पास है? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शुक्रवार, जुलाई 05, 2019

नफ़रत का कोई इलाज नहीं, सज़ा है ~ Shubhanshu


जातिवादी लोग, जाति/वर्ग के आधार पर किसी को सही या गलत समझते हैं न कि सबूतों के आधार पर और ऐसे लोगों को सबक सिखाया जाना चाहिए।

यह वैसे ही लोग हैं जो लिंग/रंग/जन्मस्थान/स्टेटस/नाम/परिवार/वर्चस्व के आधार पर सही और गलत का फैसला लेते हैं। इनकी सज़ा मौत ही हो ऐसा मैं समर्थन करता हूँ।

इस कठोर सज़ा के पीछे मेरा तर्क है कि कोई भी व्यक्ति गलत या सही, तर्क व सबूतों के आधार पर ठहराया जा सकता है और उपर्युक्त कारणों को नफ़रत की जड़ बनाना एक जड़ स्थिति है जिसको बदला नहीं जा सकता। अतः अगला व्यक्ति आजीवन इन आधारों पर किसी न किसी निर्दोष की जान लेने का प्रयास करता रहेगा और वह बहुत से समुदायों के लिए खतरा बन जायेगा।

कोई किसी की नफ़रत को खत्म करने के लिए अपनी जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, रंग, जन्मस्थान, नाम, परिवार आदि नहीं बदल सकता और इस प्रकार इसका कोई भी हल नहीं मिलता। फिर इस नफरत से कोई हत्या/जुल्म होंगे तो उसकी भरपाई नहीं हो सकती।

अतः इस तरह के जातिवादियों के लिए सुबूत एकत्र करके कड़ा केस बनाया जाए और कानून को और कठोर बनाया जाए ताकि सज़ा का आधार हमेशा सही और गलत ही रहे, न कि कोई काल्पनिक नफरत। धर्ममुक्त जयते, जातिमुक्त जयते, शिशुमुक्त जयते, विवाहमुक्त जयते, पशुक्रूरता मुक्त जयते, ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

बुधवार, जुलाई 03, 2019

भारत में फेमिनिस्म और समानता के बदले अर्थ ~ Shubhanshu

महिला आयोग फेमिनिस्ट नहीं है। वो महिला को अपाहिज मान कर उसे बैसाखी पकड़ाता है। यानी महिला को कमज़ोर और नाकारा मानता है। इसलिये आरक्षण और तरह तरह की सुविधाएं देने की वकालत करता है। यह वीमेन सपोर्टिव मिशन है न कि फेमिनिस्म। इस तरह के आयोग लिंगभेदी होते हैं। संविधान का सपोर्ट सिस्टम ही दरअसल असंवैधानिक होता है।

समानता का व्यवहार करना संविधान का मूल तत्व है और इसी को तरह तरह के सपोर्ट देकर भंग किया जाता है। सभी को समान अवसर मिले, ये भी संविधान में दर्ज तत्व है लेकिन संविधान, आयप्रमाणपत्र, जाति प्रमाण पत्र, लिंग आदि के आधार पर कुछ नागरिकों को विशेष सुविधाएं देता है। जबकि सब्सीडी एकमात्र ऐसा सपोर्ट है जो बहुत ऊंचे मानदंड पर भेद भाव करता है यानी ₹ 10 लाख/वर्ष आय वालो को छोड़ कर सबको मिलती है (अभी केवल LPG)।

इसके लिए तर्क ये दिया जाता है कि कुछ लोगों का जीन ही खराब है। (ये बात खुले आम नहीं कही जाती क्योंकि वे ऐसा कह कर किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते परन्तु उनके सभी तर्कों का निष्कर्ष यही निकलेगा। सपोर्ट सिस्टम की कार्यविधि भी यही प्रमाणित करती है।) इसके अनुसार वे कभी सामान्य लोगों की तरह प्रगति नहीं कर सकते। उनको सपोर्ट न दिया तो वे पिछड़ जाएंगे बाकियो से।

कमाल है कि कुछ को आर्थिक आधार पर सपोर्ट दिया गया, किसी को अल्पसंख्यक होने पर तो किसी को केटेगरी के आधार पर लेकिन महिला को तो लिंग के आधार पर सपोर्ट दिया गया। मतलब महिला को जन्मजात पिछड़ा मान लिया गया। वो चाहे किसी भी धर्म, केटेगरी, या आर्थिक स्थिति में क्यों न हो, वह किसी भी श्रेणी/केटेगरी/स्टेटस के पुरुष से पिछड़ी रहेगी।

जब संविधान ही में ही मानवों की कैटेगरी और नस्ल, प्रजाति तय कर दी गयी है तो समानता की बात बस एक अन्य ही अर्थ पैदा करती है। जो कहती है कि मानव भी असमान होते हैं। उनको समान करने के लिए सरकार को सहयोग करना चाहिये। मुझे नहीं पता कि बाकी देशों में ऐसा है या नहीं, या मैं बताना नहीं चाहता क्योंकि सोचने के लिए भी मैं आपके लिए कुछ सवाल छोड़ जाता हूँ। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©