Zahar Bujha Satya

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बुधवार, जुलाई 03, 2019

भारत में फेमिनिस्म और समानता के बदले अर्थ ~ Shubhanshu

महिला आयोग फेमिनिस्ट नहीं है। वो महिला को अपाहिज मान कर उसे बैसाखी पकड़ाता है। यानी महिला को कमज़ोर और नाकारा मानता है। इसलिये आरक्षण और तरह तरह की सुविधाएं देने की वकालत करता है। यह वीमेन सपोर्टिव मिशन है न कि फेमिनिस्म। इस तरह के आयोग लिंगभेदी होते हैं। संविधान का सपोर्ट सिस्टम ही दरअसल असंवैधानिक होता है।

समानता का व्यवहार करना संविधान का मूल तत्व है और इसी को तरह तरह के सपोर्ट देकर भंग किया जाता है। सभी को समान अवसर मिले, ये भी संविधान में दर्ज तत्व है लेकिन संविधान, आयप्रमाणपत्र, जाति प्रमाण पत्र, लिंग आदि के आधार पर कुछ नागरिकों को विशेष सुविधाएं देता है। जबकि सब्सीडी एकमात्र ऐसा सपोर्ट है जो बहुत ऊंचे मानदंड पर भेद भाव करता है यानी ₹ 10 लाख/वर्ष आय वालो को छोड़ कर सबको मिलती है (अभी केवल LPG)।

इसके लिए तर्क ये दिया जाता है कि कुछ लोगों का जीन ही खराब है। (ये बात खुले आम नहीं कही जाती क्योंकि वे ऐसा कह कर किसी को नाराज़ नहीं करना चाहते परन्तु उनके सभी तर्कों का निष्कर्ष यही निकलेगा। सपोर्ट सिस्टम की कार्यविधि भी यही प्रमाणित करती है।) इसके अनुसार वे कभी सामान्य लोगों की तरह प्रगति नहीं कर सकते। उनको सपोर्ट न दिया तो वे पिछड़ जाएंगे बाकियो से।

कमाल है कि कुछ को आर्थिक आधार पर सपोर्ट दिया गया, किसी को अल्पसंख्यक होने पर तो किसी को केटेगरी के आधार पर लेकिन महिला को तो लिंग के आधार पर सपोर्ट दिया गया। मतलब महिला को जन्मजात पिछड़ा मान लिया गया। वो चाहे किसी भी धर्म, केटेगरी, या आर्थिक स्थिति में क्यों न हो, वह किसी भी श्रेणी/केटेगरी/स्टेटस के पुरुष से पिछड़ी रहेगी।

जब संविधान ही में ही मानवों की कैटेगरी और नस्ल, प्रजाति तय कर दी गयी है तो समानता की बात बस एक अन्य ही अर्थ पैदा करती है। जो कहती है कि मानव भी असमान होते हैं। उनको समान करने के लिए सरकार को सहयोग करना चाहिये। मुझे नहीं पता कि बाकी देशों में ऐसा है या नहीं, या मैं बताना नहीं चाहता क्योंकि सोचने के लिए भी मैं आपके लिए कुछ सवाल छोड़ जाता हूँ। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

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