ऐसा नहीं है कि मैं इसलिये गाली नहीं देता कि मुझे आती नहीं। बल्कि इसलिये क्योंकि मुझे बहुत ज्यादा गालियां आती हैं लेकिन उनकी अपनी जगह है। दोस्तों में गालियाँ तनाव कम करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं और जिसका टाइम आ गया होता है उस पर गुस्से में गाली बकने से कम से कम गुस्सा तो कम होता ही है।
जनता के सामने गालियां देने से मानहानि होती है। इसलिये ये एक अपराध है। अकेले में गाली दी जा सकती है। फिर अगला तय करेगा कि क्या फैसला करना है। रहना है या जाना है या फोड़ना है।
बात बात पर नफरत भरी गाली देने वाला कुछ ज्यादा ही सुरक्षित समझता है खुद को। जबकि उसकी जान किसी भी स्वाभिमानी के हाथों में फँसी होती है। गालियाँ वास्तव में घृणित और गुप्त रखे जाने लायक आरोप होते हैं जो कि झूठे होते हैं और उनसे लोगों के मन में शक पैदा किया जाता है।
जैसे गाली सुन के चुप रहने वाले पर 2 शक किये जाते हैं।
1. वाकई में यह वैसा ही है जैसी इसे गाली दी गई है।
2. ये शांत है क्योंकि ये निर्दोष है और आरोप से इसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब ये दोनों ही अनुमान जनता के ऊपर छोड़े जाते हैं कि वो किस बुद्धि की है। मैं गालियों का प्रयोग सिर्फ अपने साथियों पर करता हूँ जो इनको फ्रेंडली लेते हैं। गुस्से में भी किसी-किसी पर करता हूँ जो दोबारा दिखाई नहीं देता फिर।
जबकि इसके विपरीत गालियों के बदले गाली देने वाला मूर्ख होता है। वह दरअसल उकसावे में आ जाता है और प्रतिक्रिया देकर खुद के बारे में शक पैदा करता है कि यदि निर्दोष है तो आरोप से बुरा क्यों लगा? बुरी तो सामने वाले की सोच है जो आपको गुस्सा दिला कर अपने निचले स्तर पर लाना चाहता है और फिर आपको हराना आसान होगा। दरअसल वो हार चुका है, पहले ही।
ये सत्य है कि मैं सीधा हूँ क्योंकि मैं सबका भला चाहता हूँ। लेकिन मैं चालाक भी हूँ क्योकि जानता हूँ कि सबका भला करना सम्भव ही नहीं। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©
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