कौस्तुभ: पूर्ण रूप से अप्राकृतिक जीवनशैली जीने वाले प्राणि को आप विकसित कैसे कह सकते हैं? ये विकास नहीं बल्कि खुद का और प्रकृति का विनाश है।
बबलेश: मोबाइल को फेंक दीजिये। कपड़े फाड़ दीजिये, कच्ची रोटियां खाइये। कृत्रिम रूप से निकला हुआ पानी मत पीजिये।
कौस्तुभ: मोबाइल क्यू फेंक दे? वह बेकार की चीज थोड़ी है।
हा कपडे अवश्यता नुसार ही पहनता हू। मै रोटिया कभी कभार मजबूरी में खाता हू। आप मुझे सुविधाओं का त्याग करने के लिए क्यू कह रहे है। मै विज्ञान तंत्रज्ञान विरोधी थोड़ी हू।
बबलेश: आप प्रकृति वाद का समर्थन तो इसी प्रकार कर रहे है, जैसे कृत्रिम वस्तुओ को छूते भी नही।
कौस्तुभ: मै विज्ञानवादी आदिमानव हूँ। ☺️
बबलेश: यह आदिमानव कौन होते है?
कौस्तुभ: प्राकृतिक जीवनशैली से रहनेे वाले अविकसित मानव।
बबलेश: समझ नही आया। कृपया शुद्ध और पूर्ण लिखिये। 🙏
शुभ: इधर भी ये आपको उंगली कर रहे है। उधर कल हमें कर रहे थे। 😀 उपयोगी वस्तुओं का लाभ उठाते हुए शरीर और मन की प्रकृति को समझते हुए जो स्वास्थ्य, मन और शरीर के लिये बेहतर हो करते हुए, तर्कवादी/विज्ञानवादी सोच से जीवन जीना जिसमें अनावश्यक सभी कार्यों, वस्तुओं का निषेध हो और प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का सीमित प्रयोग करते हुए कम से कम में जीवनयापन करना (minimalistic lifestyle) ही हम विज्ञानवादी प्रकृति मानवों का ध्येय है। हमारा उद्देश्य मानव की जनसँख्या की जगह जनगुणवत्ता बढाना है। यह आगे चल कर प्रकृति और पर्यावरण को उन्नत करके जीवन यापन को उत्तम बना देगा और बना रहा है।
बबलेश: क्या कपड़ा उपयोगी नही है? ओर आप एंड्राइड फ़ोन की जगह कीपैड वाला फोन भी रख सकते है। आप (हम) जिस नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे है, उससे निकलने वाले रेडिएशन से पक्षी मर रहे हैं और धरती पर पैदा होने वाले कीड़े मकोड़े बढ़ रहे है, जो पेड़ पौधे खा कर किसान की फसल खराब कर देते है।
शुभ: सब वहम है आपका।
बबलेश: विज्ञानवादी केवल प्रत्यक्ष पर विश्वास रखते है, वहम जैसा कुछ नही होता। मैं विज्ञानवादी हूं।
शुभ: शुभ: संगत से बड़ा कोई शिक्षक नहीं और हम आपकी संगत नहीं बदल सकते। इसलिये आपसे बात करना सिर्फ समय खराब करने जैसा है। आप को जानकारी है नहीं गहराई की और हम आपको गूगल से सर्च करके आपको पढ़ाने आये नहीं। केवल कुछ ही लोग हमारी बातों को समझने योग्य बुद्धि रखते हैं और वे लोग बहुत कम हैं।
हमने जो समझाया, उसके आगे हम कुछ नहीं बोल सकते। समझदार को इशारा काफी। आदिमानव और कबीले वासियों से सीखिये कपड़े का महत्व और सुविधा में की पैड वाले में वह सुविधाएं नहीं जो इसमें हैं। ऐसे ही नहीं इसे स्मार्टफोन कहते हैं। यह सिर्फ स्मार्ट लोगों को समझ में आता है।
बबलेश: कपड़े का होना विकास है। जबकि महानुभाव कौस्तुभ जी कह रहे है कि हम उन्हें विकसित कैसे कह सकते है? क्या हम जानवरो को विकसित कहना शुरू कर दें, जो कृत्रिम वस्तुओ का बिल्कुल भी उपयोग नही करते?
शुभ: विकास सिर्फ बुद्धि का और सुविधाओं से देश का हो सकता है। कपड़े किसी भी तरह मानव के विकास में सहयोगी नहीं हैं। वे केवल विपरीत परिस्थितियों में इस्तेमाल होने वाले हेलमेट और सूट की तरह हैं। जिनको ज़रूरत पड़ने पर ही पहना जाता है।
दुनिया में कोई भी मोबाइल फोन ऐसा नहीं है जिससे सहन करने योग्य से ज्यादा रेडियेशन निकलता है। जो बकवास लोग फैला रहे हैं वे परंपरा वादी सोच से ग्रस्त हैं। कोई पक्षी रेडिएशन से नहीं मरता। अगर वह मरेगा तो हम सब भी मरेंगे। कीड़े बढ़ नहीं रहे बल्कि हम उनके हिस्से के भोजन को उनसे छीन रहे हैं। अब वह अपने भोजन पर टूटते हैं तो यही न्याय है। वैसे भी कीटनाशक डाल-डाल के कौन सा अमृत उगा रहे हैं आप?
अनाज, बेस्वाद सब्जियां आदि कीड़ों का भोजन था हमेशा से। मानव ने जनसँख्या की भूख मिटाने हेतु अंधाधुंध बड़े पेड़ काट कर छोटे आकार के पौधे (घास नुमा) उगा लिए (जिनकी खेती आसान थी) जिनसे ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में नहीं बन रही। वाष्पन भी निचली सतह पर होने के कारण बिखर जाता है। इसलिये सिंचाई के लिये वर्षा नहीं हो रही।
फसलों की जगह वृक्ष वाले फलों के बाग लगाना ज्यादा उचित है। वे पोषण, भोजन के साथ ऑक्सीजन और वर्षा भी लाते हैं। साथ ही बाढ़ को रोकने का कार्य भी करते हैं। जबकि फसल इस तरह के भूमि कटाव को रोकने में कोई मदद नहीं करती। वह खुद ही झुक जाती है। बाढ़ में फलों के वृक्ष की फसल कभी खराब नहीं होती।
आप जिनको पशुधन बोलते हैं उन पशुओं को जितना अनाज खिला कर मल में बदल दिया जाता है, उनका दूध अंडा और मांस प्राप्त करने हेतु, वही अगर मानव को खिला दिया जाता तो ज्यादा मदद मिली होती world hunger खत्म करने में। इन जानवरों के जीन में छेड़छाड़ करके इनको ऐसा बनाया जा रहा है ताकि इनको मानव की हमेशा ज़रूरत बनी रहे।
इनकी फार्मिग (खेती) करके उनकी संख्या बेहताशा धन के लालच में बढ़ाई जा रही है। जो कि ग्लोबल वॉर्मिग की एक वजह भी बन रहा है। इनके मल और डकार में ग्रीनहाउस गैस मीथेन होती है। जो इनकी ज्यादा संख्या में होने के कारण वायुमंडल के एक बड़े हिस्से को प्रभावित करके ओज़ोन गैस की परत की क्षति पहुँचा रही है। अज़ोंन परत का छेद फिर से खुलने लगा है।
जितना समय चारा (अनाज) उगाने में लगता है+उसको बार-बार पशुओ को खिलाने मे लगा समय (6 माह से कई वर्ष तक)+उनके उत्पादों को प्रोसेस करने में लगा समय+मेहनत+संरक्षण का खर्च (रेफ्रिजरेटर)+उसको पकाने में लगा समय (वनस्पति से कहीं ज्यादा समय लगता है पशुउत्पाद को तैयार करने में)= बहुत ही देर में पहुँचने वाला महंगा+बुरे कोलेस्ट्रॉल युक्त+अनावश्यक हार्मोन युक्त+कैंसरकारी तत्व+पशु पस (मवाद) से युक्त ज़हरीला भोजन जो 30 वर्ष की आयु के बाद आपकी धमनियों के लचीले न रहने के कारण रक्त को आखिरकार अवरुद्ध करके आपको ह्रदयघात देकर व मधुमेह, पधरी व कैंसर पैदा करके नष्ट कर देता है।
अभी भी समय है सुधर जाओ। नहीं तो ज़िन्दगी ही अलविदा कह देगी।
बबलेश: बड़े हो चुके लोग नही जानते कि एक बेहद पेचीले मामले में एक बच्चा भी बहुत अच्छी सलाह दे सकता है। खैर, कपड़े सर्दियों में ठंड से बचाते है, गर्मियों में गर्मी से, सड़क पर धूल से, बारिश में गीले होने से (रेन कोट), गर्मियों में शरीर का पानी नही सूखने देते। हर जगह कपड़े हमारी सुरक्षा करते है, कैसे त्याग दें? आप बताओ?
शुभ: मानव पर जब यह विकल्प नहीं था तो वह अनुकूल परिस्थितियों में रहता था। जिस तरह प्रवासी पक्षी अनुकूलित जगह पर जाने के लिये लम्बी दूरी तय करते हैं। अब मानव ने इतनी संख्या बढ़ा ली है वह अब संगठित रहने लगा है। जान पहचान वालों के बीच comfort zone बनाये बैठा है।
अतः अब वह स्थायी रूप से एक जगह पर ही घर बना कर रहने लगा है अतः प्रायः प्रवास नहीं कर पाता। जबकि कुछ लोग सर्दी में गर्म और गर्मी में ठंडी जगह जाते हैं। बाकी के लोग अब प्रतिकूल जगहों पर ही AC कूलर, पंखा, रेफ्रिजरेटर आदि लगा कर महंगी बिजली के लिए अपनी मेहनत से कमाए धन का भुगतान करते हैं।
इस तरह उसके शरीर में मौजूद समतापी संवेदी तंत्र निष्क्रिय प्रायः हो चला है। इसको दोबारा सक्रिय करने के लिए इस प्रकार के कृत्रिम अनुकूलन वाले कारकों को हटाना होगा। जिनमें वस्त्र आपके अनुसार आते हैं। इसके लिये धीरे-धीरे कपड़े कम करने होंगे। जैसे मानव ने धीरे-धीरे इस अनुकूलन को गंवाया है उसी तरह यह वापस आएगा।
धूल-मिट्टी अगर सांस से फेफड़े में अधिक मात्रा में न जाये तो नुकसान नहीं करती। लू और बारिश मे बाहर निकलना बेवकूफी है। फिर भी यदि आपको आवश्यकता है तो भीग/तप सकते है लेकिन समय लगेगा अनुकूल होने में। अतः अभ्यास करते रहें। एक दम से नँगे होकर शरीर को अनुकूल करने के स्थान पर कॉलेप्स न कर दें। बीमार पड़ जायेंगे।
घरों में शर्मो हया का नाटक छोड़ कर परिवार को बैठ कर अपने उद्देश्य समझाएं। उनको बताएँ कि आप यह नया और अलग कार्य क्यों शुरू कर रहे हैं। किसी को भी दिक्कत होने पर उसके सामने जाने से बचें। शरीर दिखाने के लिये ही बने हैं छिपाने के लिये नहीं। नहीं तो हमारे शरीर पर भी मोटा फर होता या हम किसी शैल (घोंघे, सीप जैसे आवरण) के साथ पैदा होते। एक दूसरे के भरोसे को तौलने के लिये यह बहुत अच्छा प्रयास होगा।
इसी से इंसान के मोनोगेमस होने, रिश्तों में रोमांस व सेक्स न होने जैसे मिथकों की भी कलई खुलेगी। बैठ कर हर समस्या पर परिवार विचार करें। नहीं है परिवार, तो घर में धीरे-धीरे नग्न रहने का अभ्यास करें। समय आने पर शरीर अनुकूलन सीख लेगा। सिर्फ कोई निप्पल या लिंग देख लेगा, यह सोच कर वस्त्र न लपेटें। देखने से क्या घट जाएगा?
नग्न देख कर लोग आज शर्म-शर्म बोलते हैं; जैसे 30 वर्ष का होने से पहले ही विवाह न करें, नौकरी/व्यापार न करें और यदि विवाह के बाद लड़का या बच्चा ही न पैदा करें तो सब मिल कर शर्म-शर्म कहने लगते हैं। यह समाज का भीड़ बढ़ाये रखकर धंधे के लिये अधिक ग्राहक उपलब्ध करवाना और प्रतियोगिता बढ़ा कर सस्ती मजदूरी पर कार्य कराने की सोची समझी नीति है जिसको जाने-अनजाने सभी लोग कॉपी कर रहे हैं।
सोचने वाली बात है कि 96% मूर्खों से दुनिया भरी पड़ी है और लोग 4% की तरफ उंगली उठा कर खुद पर गर्व करते हैं कि मानव बुद्धिमान है। है न कमाल का मजाक? मुस्कुराते रहिये, अपनी बर्बादी पर क्योंकि एक इंसान ही है जो किसी के गिरने पर भी हंसता है और किसी को गिरा कर भी। बस इस बात का डर है कि कहीं गिरने वाले आप न हों। मैं भी दांत निकाले नज़दीक ही खड़ा हूँ। धन्यवाद! 💐 2019/01/10 23:20 ~Vegan Shubhanshu SC 2019©