Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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गुरुवार, जून 20, 2019

Feel Yourself ~ Shubhanshu

When someone in pain, do you need to recall Religion, before feeling his/her pain or just it's human nature to help someone?

Even animals has feelings and they helping each other's.

Feeling pain and joy of others are in our DNA. See, when someone smiling or laughing, we also feels the same and when someone crying, the result comes in our eyes as tears.

Only, religion makes us hard in the name of god, to do something against our nature, as killing someone for homosexuality, sex without marriage, atheists, other different religion followers etc.

Religion takes our humanity as well as natural morality. Everyone needs to live. We can't give death or punishment to anyone who don't harm us physically or mentally. If you really want to kill something, kill all the religions. Even they looks very kind. They all are slow poisons. They takes time to bloom to show their painful black side as a reality.

Feel yourself, feel your inner natural morality. Don't prove that your are not a human. They says that humans are intelligent, kind and faithful. If it is, then why we need to impose other's rules on us? We can think and we can live freely, as well as we are born free! 😊 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 

बुधवार, जून 19, 2019

आपकी वयस्कता ही आपकी आज़ादी ~ Shubhanshu

मैं एक नई रीत शुरू कर रहा हूँ। अब से मैं जन्मदिन नहीं बल्कि अपना स्वतंत्रता दिवस मनाऊंगा। जन्म की तिथि को नहीं, अपने वयस्क होने की तिथि को। वह भी वही होगी लेकिन मैं उस पर वर्ष लिखूंगा हमेशा, वही जो था मेरे 18वें वर्ष में। इस दिन मैं आज़ाद हो गया था, अपने माता-पिता से, मेरे केयर टेकर से, मेरे गार्जियन से। आज़ाद हो गया था अपनी मर्जी से जीने, गलती करने और सज़ा पाने के लिए। हो गया था आज़ाद, चुनने के लिए कि क्या सही है और क्या गलत है मेरे लिए। 

ज़िम्मेदार हो गया था खुद के प्रति। मेरा ये शरीर, ये जीवन बड़ी ज़िम्मेदारी है। इसे पूरा खर्च करना है। खुद के लिए। जीवन सुखों के लिए जीना है। दुःख हुआ तो वो भी मेरा हो। मेरा सुख तो मेरा होगा ही। किसी पर आरोप नहीं लगाना है तब से। खुद को आरोपी बनाने में ही ज़िम्मेदारी है। ठोकरें ही तो सिखाती हैं जीना।

भूल गया था दूसरों के गमों को, खुद के कम थे क्या? कौन आया मेरे आंसू पोछने जो किसी और को पंगु बना दूँ? आज जब खुद के दम पर जीने का इंतज़ाम कर लिया तो सफल हूँ। ये सफलता है मेरी खुद की। किसी का कोई हक नहीं इस पर और अब मैं कुछ छोड़ जाऊं तो ये होगा असली एहसान।

याद रखिये आपके मरने के बाद ही आपके बारे में अच्छी बातें होंगी। जीते जी कितनो के भी आंसू पोछिये, जूते ही खाओगे। इसलिये अच्छे से जी लो। आप अपने कर्म भुगतो, दूसरों को उनके भुगतने दीजिये। यही सच्ची समाज सेवा और आपका योगदान होगा। उदाहरण बनूँगा और बाकी उससे सबक लेंगे। याद रखिये सबको ख़ुशी नहीं दे सकते आप। फिर कुछ को हंसा के बाकी को रोता छोड़ोगे तो वो बद्दुआ देंगे। बेहतर है किसी की बद्दुआ और दुआ मत लो।

मर जाने के बाद मेरी सम्पत्ति किसी अच्छे कार्य में लगेगी तो सब गर्व से याद करेंगे। अभी तो बस गाली ही पड़ेंगी। कहेंगे कि शो ऑफ कर रहा है। सब इसके प्रसिद्ध होने के बहाने हैं। कोई एहसान नहीं कर रहा। नेता बनने के चोचले हैं। समझे कुछ?

मैं तो 18वें जन्म दिन की आज़ादी की खुशी याद करूंगा हर साल। कुछ अच्छा करूँगा, उस दिन जिससे मुझे खुशी मिले। आप जो मर्जी करो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मरती नदी, मरता जीवन ~ Shubhanshu

जब लोग मरते हैं तो इतना दुःख नहीं होता क्योंकि प्रायः उनके अपने कर्म उनकी दशा के ज़िम्मेदार होते हैं और बहुत हैं, बेवजह जीते हुए पर्यावरण को बर्बाद करते, भूजल, ज़मीन और जंगल बर्बाद करते हुए। लेकिन जब एक नदी की मौत होती है...

तब आँसू आ जाते हैं मेरी आँखों में, क्यों कि एक नदी सिर्फ पानी की एक धारा नहीं होती। वो ज़िन्दगी होती है जंगल, गांव और शहर की। एक बम फटता है तो ज्यादा नहीं मरते, लेकिन जब एक नदी मरती है तो वो मिटा देती है अपनी राह के हर ज़िंदा अस्तित्व को। एक नदी अकेले नहीं मरती। वो साथ ले जाती है, अस्तित्व, जीवन का।

भूजल की कमी से नदी सूखती हैं, कृपया भूजल की जगह क्लोरीन फिल्टर से पानी साफ करके पिएं। इस्तेमाल किया पानी फिर इस्तेमाल करने का जुगाड़ करें। वर्षा का जल नाले में जाने की जगह सोक पिट बना कर भूमि में समाने की व्यवस्था करें। इसे वाटर हार्वेस्टिंग कहते हैं। आपके लिए ही मेरी भी एक पुकार है, ये जीवन आपके ही हाथों में है। चाहों तो आने दो, या चाहों तो जाने दो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मूर्खों की सामूहिक ताकत और अकेले विद्वान ~ Shubhanshu

जो आपकी संगत में उतपन्न सोच के जैसा लिखे, वह महान लेखक। जो आपकी मूल समस्याओं की जगह अपनी भड़ास दूसरों पर निकालने वाली सोच रखे, वो महान। जो लड़ने-भिड़ने, मारने-काटने की बात करे; बिना तर्क के और इंसाफ को मजाक कहे, वह महान। जो खुद को बदलने की जगह दूसरों को जबरन बदलने के लिए शोर मचाये, वो महान। दरसअल 96% ऐसे लोग मूर्ख हैं और खुद को महान समझते हैं क्योंकि उनकी 'संख्या' ज्यादा है।

उनको महामूर्ख का चुनाव करके उसे सबसे महान बनाना ही होगा क्योंकि उसमें उसकी वाली सारी मूर्खता एक ही जगह पर एकत्र है। जहाँ वह सभ्यता की बात नहीं करता, नृशंसता और हैवानियत की बात करता है। उदाहरण साफ दिखाते हैं कि कैसे एक शांति और विकास की बात करने वाला भीड़ द्वारा कुचल दिया जाता है और कैसे उस भीड़ को भेजने वाला एक हिंसा भड़काने वाले भाषण को देकर (बिना बुद्धि के गाल बजा कर) सर्वप्रिय और सबका मालिक समान बन जाता है।

इस समाज में सामाजिक कौन है? हर किसी को, हर किसी से तो नफरत है। सड़क पर कोई वाहन टकरा जाए तो सब बिना मामला जाने कमज़ोर पर टूट पड़ते हैं। जब कोई घायल हो जाता है तो उसकी वीडियो बना कर साथियों को डराने का मनोरंजन तैयार किया जाता है। घायल जब लाश बन जाता है तब उसे पुलिस उठा कर पंचनामा भर के ठिकाने लगा देती है। जानवर वही सुरक्षित है जिसे आपके धर्म ने बचा लिया। (बाकी सब तो आपके जानी दुश्मन हैं) कोई पानी मांगता है तो कहीं नल नहीं दिखता। उसके हत्थे तक निकाल कर रख लेते हैं लोग, ताकि पानी की बोतल बिक सके। जिस पर पैसा नहीं वो सीधा नाली में मुहँ डाल दे।

किसे समाज बोलते हो आप? उसे, जहां पढ़ने, प्रेम करने और साथ रहने पर कत्ल कर दिया जाता है? जहाँ आपके कपड़े कितने होने चाहिए और कैसे होने चाहिए, ये लोग तय करते हैं? जहाँ अगर कोई कार्य/नौकरी नहीं कर पा रहा तो उसे अपराधी घोषित कर देते हैं?

कोई विवाह नहीं कर रहा तो वो गलत, कोई बच्चा नहीं पैदा कर रहा तो वो गलत, कोई बच्चा पैदा करके उसकी देखभाल नहीं कर पा रहा, तो वो गलत, कोई ईमानदार है, तो वो गलत, कोई (आपसे) ज्यादा बेईमान है तो वो गलत; कोई रिश्वत ले रहा, तो गलत, कोई रिश्वत नहीं ले रहा, तो वो भी गलत।

इस समाज में सही क्या है? सब उसी पटरी पर चलना चाहते हैं जिस पर उनका बाप चला था। चाहें वह पटरी टूट ही क्यों न चुकी हो। चाहें उस पर सिग्नल हो या न हो। अंधी पटरी है, उसी पर चलते जा रहे हैं। न जाने कहाँ जा रहे हैं? न जाने कहाँ ले जाना चाह रहे हैं? न जाने क्या चाहते हैं और कहते हैं कि सुख नहीं मिलता, कोई सुख दे दे।

लोग, उनके पास जाकर सुख मांगते हैं जो खुद सामाजिक नहीं हैं। जो बाबा बन गया, परिवार, समाज, विवाह, नौकरी, बच्चे, सम्पत्ति से दूर हो गया, उससे सुख की चाभी मांगने जाते हैं।

इतना बड़ा मूर्ख है 96% मानव और सीना तान कर श्रेष्ठ बना फिरता है। घरों में दुबक कर, कपड़े में खुद को जलने/ठंढाने से बचाने के लिए, खुद की प्रजाति से ही नग्न रहने में शर्माता हुआ, उसी को जान से मारने के इरादे लिए, उसी के कहने पर चलते हुए, उसी के रहमोकरम पर मिलने वाले चंद, कागज के उसी के बनाये नकली धन से अपना पेट पालने का नाटक करते हुए; दूसरों का पेट काट कर, पशुओं से खुद को श्रेष्ठ बताते हुए नहीं थकता है। भूल जाता है कि वह भी पशु है। उसका वर्गीकरण भी उन्हीं के साथ किया गया है विज्ञान में, लेकिन झूठ (ईश्वर) को मानने वाले सत्य क्यों मानेंगे भला?

कोई-कोई निकल आता है इस भीड़ से। 4 प्रतिशत में अपना नाम लिखाने, तो बाकी के 96% लोगों को आग लग जाती है। वे उसे अपने जैसा मूर्ख बनाने के लिए सबकुछ कर डालते हैं। न मानने पर उसे मार डालने में भी कोई हिचक नहीं। यह 96% संख्या बहुत बड़ी ताकत है। इसे कुछ कह दें, तो ये हमला करेगी।

इसमें बस कुचल देने की ताकत है। हंस कर गले लगाने की इसकी औकात ही नहीं। इसीलिये जला दिए इसने वो हीरे (हीरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है जबकि वह पृथ्वी का सबसे कठोर पदार्थ है) जो 4% में अपना स्थान रखते थे। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के सब अंडे निकालने की चाहत और उस अंडे के बनने का धैर्य न होना, खिसिया कर मुर्गी ही मार देना, इस भीड़ का ही गुण है।

बच जाते हैं कोई-कोई, जो समझ जाते हैं इस खेल को। बच जाते हैं भीड़ से। सीख लेते हैं अकेले जीना, सीख लेते हैं "जीना"। वही 4% हिस्सा बनाते हैं।

बाकी खो जाते हैं, इस 96% में, बन जाते हैं भीड़ का हिस्सा, नोच कर फेंक देते हैं इंसानियत, बन जाते हैं हैवान; मिटा देते हैं खुद की पहचान और बन जाते हैं खुद भी एक समाज। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शनिवार, जून 15, 2019

आचार्य जगदीश: अनसुलझा प्रयोग? ~ Shubhanshu

सामान्यतः जंतु तकलीफ महसूस करते हैं क्योंकि उनमें मस्तिष्क व तंत्रिका तंत्र होता है। सामान्यतः वनस्पतियों में मस्तिष्क और तंत्रिकाओं का पूर्णतः अभाव होता है इसलिये जगदीशचंद्र बसु का प्रयोग क्षद्मविज्ञान से अधिक प्रतीत नहीं होता।

मस्तिष्क हीन जंतु जैसे जेलीफिश और बहुत से जलीय स्थिर जंतु खुद पौधे जैसे दिखते हैं होते हैं वे दर्द महसूस नहीं करते बल्कि जलीय दबाव के प्रति क्रिया दर्शाते हैं। उसे एक निर्जीव क्रिया समझा जा सकता है।

पौधों की जन्तुओ से तुलना करने वाले मूर्ख लोगों को यह पता होना चाहिए कि पौधे और जंतुओं को जोड़ने वाली कड़ियाँ सिर्फ अपवाद होती हैं जो कि वर्गीकरण में भिन्न स्थान पर रखी जाती हैं।

मूल वर्गीकरण पौधे और जंतु में किया गया है जो कि मस्तिष्क हीन जीवन और मस्तिष्क युक्त तंत्रिका तंत्र से व गतिमान अवस्थाओं, जंतु-वनस्पति कोशाओं के मूलभूत अंतर पर और मानव से उसकी समानता पर जंतु जगत में और सजीव परन्तु जड़ निकायों के रूप में पौधों (वनस्पतियों) में किया गया है।

स्वपोषी में भी क्लोरोफिल वाली वनस्पतियों के अतिरिक्त कवक व मशरूम शामिल हैं जो अपना भोजन मृतोपजीवी के रूप में स्वयं ही बनाते है। प्रकृति में भोजन स्वयं बनाने वाली प्रत्येक खाने योग्य वस्तु/जीव जो किसी का अन्य का शिकार न करती हो वह प्राथमिक भोजन होती है।

जो जैसे पाचन तंत्र के साथ पैदा हुआ है उसे वैसा ही भोजन करना चाहिए और मानव वनस्पति आधारित पाचनतंत्र के साथ पैदा हुआ है यही अंतिम सत्य है। सर्वाहारी जंतु के रूप में भालू और बंदर आपके सामने हैं उनसे खुद की तुलना करके खुद देख लें। धन्यवाद! ~ Shubhanshu Singh Chauhan Vegan 2018©

नीचे जगदीश चन्द्र बसु का प्रयोग दिया गया है जिसमें वे पौधों में बिजली का करंट है, ऐसा साबित कर रहे हैं। जबकि वनस्पति विज्ञान में कहीं भी विद्युत स्पंदन का ज़िक्र नहीं मिलता (इनके प्रयोग को छोड़ कर)। विद्युत स्पंदन का बिना मस्तिष्कीय प्रोसेस के दर्द महसूस करने, प्रेम महसूस करने से क्या मतलब हो सकता है ये समझ से बाहर है, भले ही वे विद्युतीय प्रतिक्रिया देते भी हों। उस विद्युत का उपयोग वह भावनाओं को व दर्द को महसूस (process) करने के लिए किस अंग का प्रयोग करते हैं? वे अगर यह भी समझा देते तो मैं भी मान जाता इनकी महान खोज को।

वनस्पति के साथ जगदीश चन्द्र बसु का प्रयोग

बायोफिजिक्स (Biophysics) के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने दिखाया कि पौधो में उत्तेजना का संचार वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) माध्यम से होता हैं ना कि केमिकल माध्यम से। (जबकि विद्युत रासायनिक रूप से ही उतपन्न होती है) बाद में इन दावों को वैज्ञानिक प्रयोगो के माध्यम से सच साबित किया गया था। आचार्य बोस ने सबसे पहले माइक्रोवेव के वनस्पति के टिश्यू पर होने वाले असर का अध्ययन किया था। उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले असर का अध्ययन किया था। इसके साथ साथ उन्होंने रासायनिक इन्हिबिटर्स (inhibitors) का पौधों पर असर और बदलते हुए तापमान से होने वाले पौधों पर असर का भी अध्ययन किया था। अलग अलग परिस्थितियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि पौधे संवेदनशील होते हैं। वे "दर्द महसूस कर सकते हैं, स्नेह अनुभव कर सकते हैं, इत्यादि"।

मेटल फटीग और कोशिकाओ की प्रतिक्रिया का अध्ययन

बोस ने अलग अलग धातु और पौधों के टिश्यू पर फटीग रिस्पांस का तुलनात्मक अध्ययन किया था। उन्होंने अलग अलग धातुओ को इलेक्ट्रिकल , मैकेनिकल, रासायनिक और थर्मल तरीकों के मिश्रण से उत्तेजित किया था और कोशिकाओ और धातु की प्रतिक्रिया के समानताओं को नोट किया था। बोस के प्रयोगो ने simulated (नकली) कोशिकाओ और धातु में चक्रीय(cyclical) फटीग प्रतिक्रिया दिखाई थी। इसके साथ ही जीवित कोशिकाओ और धातुओ में अलग अलग तरह के उत्तेजनाओं (stimuli) के लिए विशेष चक्रीय (cyclical) फटीग और रिकवरी रिस्पांस का भी अध्ययन किया था।

आचार्य बोस ने बदलते हुए इलेक्ट्रिकल स्टिमुली के साथ पौधों बदलते हुए इलेक्ट्रिकल प्रतिक्रिया का एक ग्राफ बनाया, और यह भी दिखाया कि जब पौधों को ज़हर या एनेस्थेटिक (चेतना शून्य करने वाली औषधि ) दी जाती हैं तब उनकी प्रतिक्रिया कम होने लगती हैं और आगे चलकर शून्य हो जाती हैं। लेकिन यह प्रतिक्रिया जिंक (zinc) धातु ने नहीं दिखाई, जब उसे ओक्सालिक एसिड के साथ ट्रीट किया गया।

क्या बिना मस्तिष्क के ऐसा हो सकता है? क्या इनको अभी और रिसर्च की ज़रूरत महसूस नहीं हुई? अवश्य ही यह प्रयोग अधूरा है।

सोमवार, जून 10, 2019

अतिमूल्यांकित आत्मविश्वास से बचें ~ Shubhanshu

असली बुद्धिमत्ता यह जानना है कि आपको कुछ भी नहीं पता है ~ सुकरात

एक मूर्ख खुद को बुद्धिमान और बुद्धिमान खुद को हमेशा अज्ञानी समझता है ~ शेक्सपियर

इन दोनों कथनों पर रिसर्च हुई और यह निष्कर्ष निकाला गया कि दरअसल इन दार्शनिकों का कहना था कि खुद को अतिमूल्यांकित (Overestimate) करने वाले लोग मूर्ख सदृश कार्य करते हैं।

इससे अतिआत्मविश्वास उतपन्न हो जाता है और हमारी कार्यक्षमता घट जाती है। इसलिए बेहतर है कि हम पहले से ही खुद की भावी कार्यशैली व कार्यक्षमता का मूल्यांकन न करें बल्कि उसे आजमाते रहें, यह सोच कर कि अभी आप नए हैं और अभी भी सबकुछ नहीं जानते हैं।

इस विषय में एक और वाक्य याद आ रहा है:

"आप कुछ जान सकते हैं, दूसरों से कुछ ज्यादा जान सकते हैं लेकिन सबकुछ जानने का दावा हमें बिना प्रमाण के नहीं करना चाहिए।" ~ Vegan Shubhanshu Dharmamukt 2019©

रविवार, जून 09, 2019

धर्ममुक्त यानि Atheism Upgraded ~ Shubhanshu

मैं नास्तिक शब्द का प्रयोग आपकी प्रचलित समझ के लिए करता हूँ लेकिन ये शब्द best नहीं है। धर्ममुक्त बेहतर है। कैसे? देखिये, जब से पृथ्वी बनी तब से सब धर्ममुक्त थे लेकिन नास्तिक तब बना, जब आस्तिक आया। आस्तिकता आई, सबने अपनाई फिर उसमें तर्क करने वालों ने उसका खंडन किया और नास्तिकता अपनाई। अब उनका सारा जीवन आस्तिकता का खंडन करके ही कटने लग गया।

उन पर जुल्म हुए तो वो नफरत से भरते गए। जुल्म इसलिये हुए क्योंकि वे जबरन नास्तिकता को लोगों को दे रहे थे जबकि लोगो को आस्तिकता मे मज़ा आ रहा था। इसीलिए उन्होंने नास्तिको को ढूंढ-ढूंढ कर मारा/जलाया। इस तरह बेमतलब में नास्तिकता, आस्तिकता की दुश्मन बन गई। दोनो लड़ने लगे। समझना-समझाना समाप्त हो गया और रह गया कष्टमय और नफरत में सुलगता बदतर जीवन।

जबकि सब पहले धर्ममुक्त थे और अपना मस्त जीवन जीते थे। न कोई विचारधारा थी और न ही कोई सोच। सब अपना जीवन संतुलन में जीते थे। जिसका जो कर्तव्य और अधिकार था वह निर्विवाद स्वीकार किया जाता था। फिर कुछ धूर्तो ने धर्म (रिलिजन) बनाया और धर्ममुक्त समाज संकट में आने लगा। धर्मों ने ईश्वर की कल्पना करके उससे सबको डराया और गुलाम बनाने लगे। सीधे लोगों पर उन्होंने पहले अच्छे व्यवहार से विश्वास स्थापित किया फिर उन्होंने सूद समेत सब वसूलना शुरू किया। झुको और झुकाओ। फूट डालो और राज करो की नीति से लोगों को लड़वा कर वे उनके सगे बन गए।

जो इनको समझ गए वो इनका विरोध करने लगे। तब उन्होंने शैतान की कल्पना की और कहा कि ये लोग शैतान के इशारे पर कार्य करते हैं। इनसे नफरत करो। धर्ममुक्त होते तो अपना जीवन जीते। ये लड़-भिड़ रहे, इसका मतलब है कि इनको कोई लालच है तुमसे। इस बात में दम था, आस्तिक मान गए। फिर अब एक नास्तिक की value क्या रह गई? सब उनको paid एजेंट समझने लगे। उनकी बताई हर बात को धोखा मान कर अनदेखा करने लगे। नास्तिकता बुराई में तब्दील कर दी गयी। फिर बदलाव कैसे होता?

जबकि बदलाव लाने के लिए दबाव, बल की आवश्यकता नहीं होती। एक नास्तिक लड़ने पहुँच जा रहा, घमण्ड और गुस्से के कारण जबकि एक धर्ममुक्त मस्ती में नाच गा रहा। उसे मस्त देख कर सबको लगा कि ये कौन है जो इतना खुश है? हमें तो दुनिया भर के कष्ट हैं। उन्होंने उसका पीछा किया, उसको आज़ाद और बिना धर्म/ईश्वर/उपासना के प्रसन्न देखा तो उनकी समझ में आया कि हां, ये धर्म गुरु हमको मूर्ख बना रहे हैं। ये व्यक्ति निःस्वार्थ अपना जीवन मस्ती में जी रहा। इससे सीखो। नास्तिक का तो कोई स्वार्थ होगा तभी हमारी ज़िंदगी में हस्तक्षेप कर रहे हैं। ऐसा सोच कर आस्तिक धर्ममुक्त होने लगे और बदलाव स्वयं आने लगा।

खुद देखिये कि कैसे और क्या फर्क है धर्ममुक्त और एक जबरन भिड़ने वाले नास्तिक में। नास्तिकता को एक और ऊंचाई पर ले आइये। फिर से वापस आज़ाद धर्ममुक्त बन जाइए और देखिये कैसे विज्ञान अपना कार्य करने लगता है जो इस धर्म-अधर्म के कारण रुका हुआ है।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर।

न काहुँ से दोस्ती, न काहू से बैर।

धर्ममुक्त जयते, ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt

शनिवार, जून 01, 2019

धर्ममुक्त होना ही समय की मांग है ~ Shubhanshu

सनातन के लिए राम-कृष्ण-शिव-हनुमान आदि,

इस्लाम के लिये मोहम्मद,

सिख के लिए नानक व गुरु पुस्तक,

इसाई के लिये जीजस,

बौद्ध के लिये तथागत,

अम्बेडकरवादी के लिये बाबा साहेब,

जैन के लिए महावीर,

मार्क्सवादी के लिए कार्ल मार्क्स,

आदि पूजनीय हैं और इनकी बाकायदा मूर्तिपूजा (इस्लाम और सिख को छोड़ कर, सिख में तस्वीर व पुस्तक पूजन और इस्लाम में नाम की तस्वीर पूजन) चालू है। हमारे लिए ये सभी इतिहास के महापुरुष हैं (राम आदि को छोड़ कर क्योंकि उनका कोई पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं है)।

इनका आज के आधुनिक/वैज्ञानिक ज़माने में महिमामंडन, पुष्प पूजा व दिखावे वाला सम्मान करना मध्यकालीन युग मे वापस लौटने जैसा होगा। जो कि पुनः पाखण्ड का जनक बनेगा (काफी हद तक बन चुका है)।

ये सभी लोग खुद को नास्तिक साबित कर लेते हैं क्योंकि ये प्रसिद्ध लोग ईश्वर के रूप में वर्णित नहीं हैं। मानव के रूप में वर्णित हैं। नास्तिक केवल ईश्वर में भरोसा नहीं रखता। इस नियम से ये सभी धर्म (अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद अभी पंजीकृत धर्म नहीं लेकिन लक्षण समान हैं) नास्तिकों को भी धार्मिक बना रहे हैं।

क्या आप इस तरह की नास्तिकता चाहते हैं? यदि हाँ तो बताइये समाज में क्या फर्क पड़ेगा? सारा पाखण्ड यहीं का यहीं रह गया। वह हवाई ईश्वर तो पहले भी पूजा नहीं जाता था। फिर ऐसे नास्तिक पैदा करके क्या उखाड़ लिया हम सब ने? इसलिये व्यक्तिवाद छोड़ना ही होगा। महापुरुषों की जगह पुस्तको और उनकी शिक्षाओं की जगह हमारे मन में है। उनका मूर्ति/तस्वीर/नाम पूजन से कोई लाभ नहीं होने वाला बुद्धिमान मानव को।

इसलिये यह परम आवश्यक था कि एक नई विचारधारा लाई जाए जो मानव की शुद्धि करके उसे कठपुतली से वापस इंसान बना दे। मानव जब अस्तित्व में आया तो वह सभी प्रकार के पाखंडों से मुक्त था। वह किसी भी religion (धर्म) से मुक्त था। वह वास्तविक धर्ममुक्त था। फिर उसने आविष्कार किये और आधुनिक बनता गया। जिन्होंने आविष्कार किये वे धर्म/ईश्वर से मुक्त थे बाकी लोग (96%) को परिवार के चलते कुछ सोचने/करने/खोजने का मौका ही नहीं मिला।

चिंता और थकान में वे सोच न सके और अंधविश्वास में घिरते गए। कुछ धूर्त बुद्धि के विद्वानों ने धर्म की अवधारणा बना कर उनको विज्ञान से दूर रखा और इस तरह मेहनतकश लोग धार्मिक बनते चले गए। उनको लगा कि सोचने के लिए ये धर्मगुरु है न! इस तरह दुनिया धार्मिक हो गयी और 4% लोग आज़ाद सोच के चलते सफल होते गए। धर्मगुरु भी इन्हीं 4% में हैं क्योंकि दरअसल ये एकदम नास्तिक हैं। लेकिन धर्म भी इनके ही पुरखो ने बनाया तो धंधा है, अपनाना ही पड़ेगा।

इतनी सी गणित है दुनिया की। फिर क्या करें? कैसे इन 96% लोगों को भावी परिवार की ज़िम्मेदारी से आज़ाद करें, ताकि वे आज़ाद सोच सकें? इसलिये विवाहमुक्त, शिशुमुक्त, धर्ममुक्त जीवन का विचार आया और बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करके ही हम लोगों को समझा सकते हैं। अन्यथा आज 7 अरब को जगाओ तो अगले दिन फिर 7 अरब लोग पैदा हो जाएंगे। जल, जंगल, ज़मीन सीमित है और मानव असीमित।

भविष्य में एक दूसरे को ही खाना है तो आज पैदा न करने में क्या बुराई है दोस्तों? सोचो, समझो, 10 बार पढ़ो इसे, जो मैंने आपको बताया, उसको बार-बार परखो। मेरे कहने से मत मानो। खुद आज़माओ, खुद देखो करके। फिर अगर समझ में आये तो अमल में लाना। तुम्हारा ही कल्याण होगा। धर्ममुक्त जयते! ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 3:22 am, शनिवार 1 जूनधर्ममुक्त

मंगलवार, मई 28, 2019

समीक्षा: भारत की राजनीति ~ Shubhanshu

बहुत दिनों बाद एक राजनीतिक पोस्ट डाल रहा हूँ। ये समीक्षा है पिछले 20 वर्षों की। लोग कहते रहे कि राजनीति पर लिखो। मैं सोचता रहा कि इस गन्दगी पर क्या लिखूं? कलम गन्दी हो जाएगी। पर्यावरण अराजकतावादी होकर लोकतंत्र में रहता हूँ। जिस से मतलब नहीं उस पर लिखना भी एक परीक्षा है।

आप सबको देख कर आपके हित में सोचता रहता हूँ। आपको चोट लगती है तो मुझे भी लगती है। आप मेरे विरोधी हो या साथी। मेरा दिल नहीं जानता ये सब। बस रो पड़ता हैं आपको मूर्खता करते देख कर।

जब भी टोकता, गाली खाता। फिर भी डटा रहता। बिना गाली दिए, कुढ़ता रहता, अंदर ही अंदर लेकिन कोई मुझे देख कर सीखता होगा, ये सोच कर नहीं बना बुरा कभी।

फिर भी बदनाम हो गया। अपने ही साथियों ने काट खाया। आपकी सूखी आँखो का तो पता नहीं पर मैं ज़रूर रो रहा हूँ। कनपटियों में भारी दर्द है। आंसू धुंधला कर रहे। टाइपिंग मुश्किल हो रही लेकिन फिर भी मैं मूर्ख, अपने बड़े दिल के कारण ढीठ हूँ। अच्छा इंसान होना भी अभिशाप है। एक दिन नहीं बीतता जब लोग आपको रुलाते नहीं।

फिर भी मैं अपनी चाल में चलता रहा और सब मुझे समाज का दुश्मन समझते रहे, लेकिन मैं जानता था इस वास्तविक समाज को। इसे वो चाहिए ही नहीं जो आप सब दे रहे हो। अब जब vvpat मिलान ने evm को सही साबित कर दिया तो बहुत से चुनावी मेंढकों के सुर बदल गए।

अपनी कमजोरी और लाचारी को छुपाने के लिए चुनाव प्रक्रिया पर ही चढ़ते रहे। जब 10 साल कांग्रेस सत्ता पर चढ़ी रही तब bjp evm पर चिल्लाती रही। कॉंग्रेस के भर्रष्टाचार से तंग आकर अन्ना हजारे ने लोकपाल आंदोलन करके bjp को जितवाया। जिससे केजरीवाल विद्रोह करके नेता बन गए।

bjp ने आते ही कांग्रेस के रुके हुए कार्यों को करवा कर लोगों को खुश कर दिया। बड़े रिस्क लिए जिससे बदनामी हुई। लेकिन स्मार्टसिटी, फ्री wifi, मेक इन इंडिया जैसे कार्यो से पढ़े लिखे लोगों को लगा कि ये सरकार वैसी नही जैसी पिछले 10 सालों से हम सब सोच रहे थे।

बातें आधुनिकता, विज्ञान की हुई, मेट्रो, बुलेट का ज़माना आया। ऑनलाइन बिलिंग शुरू हुई और कई कार्य ऑनलाइन हो गए। हाँ, अमित शाह और इनके साथियों ने मूर्खता पूर्ण हरकतें कीं, पंडे-पुजारियों ने अपने उल्टे-पलटे बयान देकर फजीहत करवाई। टाइम पत्रिका में लोकनायक मोदी जी डिवाइडर बन गए।

अपराधियों को धर्म के नाम पर वोट दिलवा कर विश्वास कम कर लिया और गाय, यज्ञ आदि नोटँकी पर धन बर्बाद किया जिससे उनकी खुले आम हंसी उड़ी। फिर घोटाले में फंसने पर फ़ाइल जल जाना आदि हरकतों से चौकीदार चोर जैसे नामों से पुकारा गया।

अजीब बयानों के कारण विपक्ष में मजाक उड़ाया गया और व्यक्तिगत क्षवि खराब हुई। लेकिन विकास कार्य भी हुए ये माना जायेगा। इन्हीं वर्षों में आधार, जनधन मुफ़्त खाता, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, cng और बैटरी वाली गाड़ियां सस्ती होना, gst, इनकम टैक्स का 250000 से 500000 तक छूट, मुकेश अम्बानी का मोदी के माध्यम से jio को प्रोमोट करवाना आदि, सब कुछ जनता को लुभाने वाले कार्य थे। जिनसे विपक्ष भी धरातल पर इनके पक्ष में हो गया।

Demonetization से भले ही लोगों को समस्या हुई लेकिन इससे सरकार को लगभग 10720 करोड़ रुपये का लाभ हुआ और नकली नोटों का चलन कम हुआ। इससे भी ऊंचे तबके के पढ़े-लिखे वर्ग में मोदी की तारीफ सुनने को मिली।

करोड़ो रूपये अपने प्रचार में लगाना, नमो tv से धोखाधड़ी करके प्रचार करना, 15 लाख का जुमला, बहुत गलत बातें होंगी लेकिन जो जनता को अच्छा लगा, जनता ने उसे देखा। विरोध इतना ज्यादा हुआ कि सब जगह मोदी ही मोदी छा गया। विरोधी ही दरअसल मोदी के असली प्रचारक थे। जो इनको नहीं जानता था वो भी इनका ही नाम गुनगुनाने लगा।

मैं रुका रहा। मैं इस विरोध के खेल से दूर रहा। कुछ भी करना उनको ही सहयोग होता लेकिन मुझे भी विरोध न करने पर मोदी एजेंट कहा गया। संघी बोला गया। मैं चुप रहा। जानता था कि न्यूटन का तीसरा नियम अपना कार्य करेगा। वही हुआ। पक्ष-विपक्ष सबने bjp-मोदी कर-कर के मोदीमय भारत बना दिया और उनको इतनी सीटें दिलवा दीं जितनी पहले वे न पा सके।

आपको क्या लगता है ये अब कम होंगी? नहीं अब पता नहीं bjp कितने वर्षों तक काबिज रहने वाली है। 22 दल अब बर्बाद हो गए। कोई अब राजनीति में शायद ही वो बात पैदा कर सकेगा जो bjp इनकी कामचोरी के कारण फायदा उठा गयी। जोश सब ठंडा हो जाएगा।

अब कोई बड़ी गलती ही bjp को सरकार से गिरा सकती है, जिसकी उम्मीद अब कम ही है। विरोधियों ने उनको सभी छेद दिखा दिए। उन्होंने भर लिए और अब ये जहाज कैसे डूबेगा? खुद सोचो।

विरोध करने की जगह खुद क्या करोगे, इसका प्रचार करते। जनता का दिल जीतते। जय भीम, नमो बुद्धाय की जगह जय विकास बोलते और करते। लेकिन नहीं, आपको तो बस 1000-1200₹ की मूर्ति लगा कर ही विकास मिल गया था। विपक्ष के भाषणों में दम नहीं था, उनमें भी मोदी ही घुसा हुआ था।

उधर वो चौकीदार मन की बात मोबाइल पर सुना रहा था, रेडियो पर सुना रहा था। उसने सब के दिमाग पर कब्जा कर लिया और इधर बस आस्तिक-नास्तिक चलता रहा। सिक्का अपना खोटा हो तो बोलने का हक चला जाता है और फिर बिना सुबूत evm पर रोना और कुछ कर न पाना, "नाच न आये आंगन टेढ़ा" जैसा ही लगा मुझे तो।

मुझे जो उड़ती-उड़ती पता है, लिख रहा हूँ। कोई नेट से डाटा कॉपी करके डालने का नाटक नहीं करता। दिल से लिखता हूँ ताकि दिल में उतर जाए। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 4:25 PM 28 may

सोमवार, मई 27, 2019

क्या चिकित्सक आपको धीमी मौत दे रहे हैं?


जानवर का खून ही दूध होता है। उससे लाल रक्त कण निकाल कर केसीन प्रोटीन बदल दी जाती है बच्चे के लिए। बच्चा 3 वर्ष तक मांसाहारी होता है रिननेट एंजाइम बनने के कारण जो केसीन प्रोटीन को पचाता है फिर यह ग्रन्थि खत्म हो जाती है और दूध पचाना मुश्किल हो जाता है। यहीं से मानव vegan बन जाता है। अतः केवल डेढ़ से 3 वर्ष तक का शिशु मानव ही सर्वाहारी (omnivores) होता है। उसके बाद vegan बन जाता है।

कच्चा भोजन तक खाना मुश्किल हो जाता है उसे क्योंकि वह प्रसंस्करित (processed) खाद्य पदार्थ खाने के लिये नहीं बना। उसे जो सीधे और स्वादिष्ट खाने को मिलता है वही खाता है। जैसे मीठे-खट्टे फल, कंद, मूल आदि।
मांस, सींग, दांत, कस्तूरी, दूध, अंडे, चमड़े के अतिरिक्त शहद, लाख, रेशम, मूंगा, मोती, कीड़े से बना लाल रंग, कैंथरइडीन oil, सांडाह oil, पशुओं पर परीक्षण किए जाने वाले वनस्पति उत्पाद आदि भी पशुक्रूरता के अंतर्गत रजिस्टर उत्पाद हैं। जिनका विश्वव्यापी विरोध् बीते 100 सालों से चल रहा है। अब इस आंदोलन ने और भी गति पकड़ ली है क्योंकि लोग omnivores जीवन को अब खतरनाक मानने लगे हैं।

कम शारीरिक श्रम के कारण अब पशुउत्पाद के घातक स्वास्थ्य परिणाम आने लगे हैं। केवल पशुउत्पाद ही cholesterol और अन्य घटक जैसे केसीन प्रोटीन लिए होते हैं। मानव की धमनियां 30 वर्ष की आयु के बाद से कठोर होने लगती हैं। उनका लचीला पन समाप्त होने लगता है और इस उम्र के बाद से अब तक जो भी खाया-पिया था वह संयुक्त रूप से अपना रंग दिखाने लगता है। हम अपनी आदतें आसानी से नहीं बदल सकते अतः जो 30 वर्ष तक कुछ न बिगाड़ पाया वह आगे भी नहीं बिगाड़ पायेगा जैसी सोच से ग्रस्त हो जाते हैं और मृत्यु आसानी से हमारे करीब पहुँच जाती है।

लचीलापन खत्म होने से लोहे के पाइप की तरह कठोर हो चुकी रक्त की धमनियों में यह cholesterol रक्तकणों के साथ मिल कर एक थक्का बनाता है और धमनियों में फंसने लगता है। इससे ह्रदय को ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है। जब यही रास्ता इतना अधिक अवरुद्ध हो जाता है कि मस्तिष्क तक रक्त नहीं पहुँचता तो मृत्यु हो जाती है।

साथ ही यह भी पाया गया है कि दूध, अंडे, माँस में तरह तरह के कैंसर पैदा करने वाले कारक मौजूद होते हैं जो कि आपको मधुमेह, कैंसर, पथरी जैसे घातक रोगों से मार सकते हैं। बीते वर्षों में अपने बेहतर स्वास्थ्य के वादे के कारण वीगनिस्म विश्व भर में फैल गया है और 1 नवंबर को विश्व वीगन दिवस घोषित कर दिया गया है। साथ ही vegan समर्थन दर्शाने हेतु पशुक्रूरता के विरोध में और प्रेम के पक्ष में वीगनिस्म का झंडा भी अब बन चुका है।
केसीन यानी दूध की प्रोटीन दरअसल एक sedative पदार्थ है जिसकी आदत पड़ जाती है। यह अमाशय में पहुँचते ही डोपामाइन को उत्प्रेरित करके हमे अच्छा महसूस करवाता है और हमे इसकी आदत पड़ जाती है। चीज़, पनीर, छेना आदि शुद्ध केसीन के बने उत्पाद हैं। जिनको जो भी एक बार खा लेता है वह बार-बार खाने को मजबूर हो जाता है। खुद को शाकाहारी बोलने वाले सनातनी लोगों की पसंदीदा सब्जी पनीर ही मिलेगी। अतः उनको माँस ही पसन्द आता है।

उनकी हर पसंदीदा वस्तु में वे इस प्रोटीन को डालना अच्छा समझते हैं। जैसे दम आलू की सब्जी और छोले तक में ये मलाई या दही डाल देते हैं। दही और मक्खन सबसे ज्यादा पशुवसा (देशी घी के नाम से प्रचलित पशु वसा) लिए होता है जो कि दिल का दौरा पड़ने का प्रमुख कारण बनता है। इसे लोग मलाई, दही से निकाल कर मक्खन और बना बनाया खरीद कर भी खाते हैं जो कि स्वादिष्ट लगता है। ये इसी कारण लगभग हर भोजन में डाला जाता है। यह तेजी से पच जाता है और ऊर्जा का अनुभव होता है। लैक्टोज शर्करा भी ऊर्जा देती है। ऊर्जा देने वाले खाद्य पदार्थ भी लती बना देते हैं।

दही में यह शर्करा लैक्टोबैसिलस जीवाणु द्वारा खा कर मल द्वारा अम्ल में बदल कर छोड़ दिया जाता है। दही का खट्टा पन इसी मल के कारण होता है। इसमें भी केसीन ही होती है अतः इसकी भी लत लग जाती है। लस्सी आदि अन्य दही के उत्पाद भी आपको मृत्यु के करीब ले जा रहे हैं।

2017 में ओम साईं प्रोडक्शन के सहयोग से एक खोजी पत्रकार ने अपने दादा और पिता की इन बीमारियों से हुई मृत्यु के बाद इस कड़वे सत्य की खोजबीन की। उसने डॉक्टरों के कहे अनुसार सब कुछ किया लेकिन अपने प्रियजनों को बचा नहीं पाया। इसी घटना से उसके मन में डॉक्टरों के प्रति शक बैठ गया और उसने एक खोजी पत्रकारिता के ज़रिए इन सभी हेल्थ ऑर्गनाइजेशनो के US में बने हेडक्वार्टर में खुद जाकर सवाल जवाब किए।
प्रतिक्रिया भयानक थी। इससे पहले भी जिन लोगों ने इस तरह के सवाल जवाब किये थे उनकी लाश तक गायब करवा दी गई थी। मतलब ये संस्थान धोखाधड़ी कर रहे थे। लेखक/पत्रकार ने अपनी खोज जारी रखी और WHO द्वारा घोषित processed मांस पर दी गई गाइडलाइन पर कार्य किया। इस गाइडलाइन में WHO ने बताया है कि मांस में कैंसर, डायबिटीज, ह्रदयघात और पथरी पैदा करने के गुण होते हैं। यह केवल शाकाहारी जंतुओं पर ही प्रभावी होते हैं। इसी कारण प्रकृति में प्रायः शाकाहारी जंतु मांस try भी नहीं करते।

पत्रकार ने ऐसे लोगों पर रिसर्च की जो कि इन बीमारियों से मरने वाले थे। पत्रकार ने उनको 2 हफ्ते vegan भोजन पर रखा और वे ठीक होने लगे। उनकी दवाइयां बन्द करनी पड़ीं और जब उन्होंने खुद इतना बड़ा असर देखा तो उन्होंने पत्रकार को खुशी के आंसुओं के साथ गले लगा लिया। बहुत ही मार्मिक दृश्य था।

दूसरी ओर कुछ लोग कहते पाए गए कि vegan भोजन पर जीवित तो रहा जा सकता है लेकिन ताकतवर नहीं हुआ जा सकता। मसल बनाने के लिये मांस ज़रूरी है। पत्रकार ने खोज जारी रखी और उसे vegan एथलीट मिल गए जो कि बड़े खिलाड़ी थे। उन्होंने बताया कि vegan बनने से पूर्व वे औसत दर्जे के खिलाड़ी थे लेकिन vegan बनते ही उनकी परफॉर्मेंस कई गुना बढ़ गयी। कई पहलवान और बॉडीबिल्डर भी vegan होकर ज्यादा ज़ल्दी मसल गेन कर सके थे।

कई डॉक्टर भी vegan मिले जिन्होंने इस सब को विस्तार से समझाया कि असल सत्य कुछ और है और हमको पढ़ाया कुछ और जाता रहा है। विटामिन बी12 का मांस से ही प्राप्त होना, शक्कर का ह्रदय घात से सम्बन्ध होना आदि बातें बकवास हैं। B12 केवल बैक्टीरिया बनाता है। यह हमारे मुहँ में और आंतों में होता है। यह लगातार बनता रहता है। शरीर को इसकी बहुत अल्प मात्रा में आवश्यकता होती है।

vegan लोगों के लिये जिनमें इसकी कमी महसूस हो वे इसे बाहर से खरीद कर खा सकते हैं या अधिक कमी हो तो इंजेक्शन से ले सकते हैं। शक्कर वाली बात बिल्कुल ही बकवास है कि उससे ह्रदय का कोई लेनदेन है। शक्कर शरीर में जाकर ग्लूकोस में बदल जाती है और ग्लूकोस क्या है यह सबको पता है। जिन पशुओं में विटामिन B12 होता है उनके फार्म मालिक उनको वह खिलाते हैं। कुदरत में यह मल में बड़ी आंत से निकल कर भूमि तक पहुँचता है। चरने वाले जानवर इस मल को अल्पमात्रा में खा जाते हैं। उसी से B12 उन के भीतर पहुँचता है।

मानव के सर्वाहारी होने की बात को करीबी सर्वाहारी जंतु भालू से तुलना करके जांचा गया और मानव तुलना करने योग्य भी न लगा। उसने सब कुछ साधनों के प्रयोग से करना सीखा था जबकि भालू इसके लिए ही बना निकला। केनाइन दांत कहीं से भी सर्वाहारी जैसे नहीं थे। आंखों की रात में देखने की क्षमता भी शून्य। नाक भी मांस की गंध के प्रति अरुचिकर निकली। कान और दौड़ने की क्षमता भी बिल्कुल बेकार निकली। साथ ही मारकाट करके खाने वाले जानवर के भोजन को देख कर 98 फीसदी मानवों को उल्टी और बेहोशी तक आ जाती है।

प्रायः रोगाणु युक्त कच्चा मांस खाने से मानव मर जाता है। दूध भी लोग उबाल कर पीते हैं मतलब उसमें भी रोगाणु। यानी वह बिना रोगाणु मुक्त किये मांसाहारी भोजन नहीं कर सकता लेकिन शाकाहारी वाला कर सकता है।

मतलब वह मांस से डरता है, खायेगा कैसे? मजबूरी ही इसका कारण हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे शेर और कुत्ते पेट खराब होने पर घास खाते है। प्राचीन काल में मानव ने मजबूरी में शिकार करने का निर्णय लिया। इससे पहले वह फलों पर जीवन काटता रहा। पेड़ों पर बंदर की तरह चढ़ना सीखा और मांसाहारी जानवरों से रक्षा करने के लिये हथियार और आग का इस्तेमाल किया। आग और पहिये का आविष्कार न किया गया होता किसी विद्रोही द्वारा तो आज मानव की भिंडी बिक गयी होती।

शिकार भी झुंड में और जब किसी कारण से भोजन लायक वनस्पतियों का अभाव हो गया तभी। इसीलिये वह प्रोसेस करके ही मांस खा सकता है जो कि कैंसर, डायबिटीज, पथरी और ह्रदयघात लिये होता है। यानी अभी नहीं तो कुछ समय बाद होने वाली निश्चित मृत्यु।

पत्रकार ने पता किया तो पाया कि ये सभी संस्थान अरबों रुपये egg, meat and dairy industry से दान में ले रहे थे। बदले में उनको इन उत्पादों का प्रचार करना होता है। सोचिये अगर ये सामान्य भोजन है तो इनको इतने महंगे प्रचार की क्या ज़रूरत? सीधी बात है कि ज़हर को अमृत बनाने के लिये इन बड़ी विश्वसनीय संस्थाओं को खरीदा जा चुका है और यही कारण है कि लोग बीमार पड़ते रहते हैं और दवा बनाने वाली कम्पनियां और इस तरह के भोजन रूपी ज़हर को बेचने वाले अमीर बनते रहते हैं। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2018© 5 pm to 6:08pm, Dec 12
संदर्भ:
 



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