Zahar Bujha Satya

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मंगलवार, नवंबर 19, 2019

धर्ममुक्त भारत की आवश्यकता क्यों? ~ Shubhanshu



महत्वपूर्ण प्रश्न: आपके धर्ममुक्त भारत अभियान और बाकी लोगों के संगठन/धर्मो में क्या फ़र्क है?

शुभ: हमारा अभियान लोगो को एकत्र कर रहा है न कि बाकी धर्मों और संगठनों की तरह उनको मूर्ख समझ कर उनको कोई किताब या धर्म ग्रँथ थमा रहा है, कि अंधों की तरह उसका पालन करो। इंसान बुद्धिमान है। उसे किसी के बताए रास्ते पर नहीं चलना। उसे सिर्फ इशारा किया जा सकता है जो पहले रास्ता खोज चुका, उसके द्वारा।

हमने रास्ता पहले खोज लिया तो उस पर हमारा हक नहीं हो गया। राह/सोच सबकी अपनी है। हम तो आज़ादी की मांग कर रहे, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। आज़ादी मानसिक गुलामी से। इंसान की मानसिक शक्ति ही उसकी जीवन की गति निर्धारित करती हैं। उसे कुछ धूर्त लोगों द्वारा प्राचीन काल में बलपूर्वक ईश्वर, पाखण्ड, ठगी, धोखे, मूर्खतापूर्ण बातों से उलझा कर व्यस्त कर दिया गया है और वो मानसिक शक्ति अपना वास्तविक कार्य नहीं कर पा रही।

● ये धर्म की अवधारणा इतनी क्यों फैली?

● क्यों ये इतनी सफ़ल रही?

● क्यों लोग इसके गुलाम बने?

इसका मूल कारण था दरिद्रता। दरिद्रता भी एक मानसिक अवस्था है जो जब असर दिखाती है तो व्यक्ति का पूरा सामाजिक जीवन ही भिन्न दिखने लगता है। दरिद्रता को दूर करने के लिये पहले तो घमंड त्यागना होगा। बड़े कार्य करने वाले लोग कभी भी छोटे कार्य को करने से परहेज नहीं करते थे। इसीलिये वे बड़े हुए। कोई भी बीज, अंडा बहुत छोटा होता है शुरू में लेकिन जब वह अपने जीवन के चरम पर होता है तो कभी बरगद तो कभी जिराफ़ जैसा ऊँचा हो जाता है।

पढ़-लिख कर इंसान ज्यादा बेरोजगार होते हैं जबकि अनपढ़ कभी बेरोजगारी नहीं झेलते। उनको घमण्ड नहीं होता, अपनी डिग्री या शिक्षा का। उनको भोजन कमाने की फिक्र होती है जोकि सबकी आधारभूत आवश्यकता है। इससे ऊपर जाने पर अन्य आवश्यकताएँ दिखने लगती हैं। इस पहली आवश्यकता के लिए हमको हर तरह के कार्य करने में संकोच छोड़ना होगा और उस कार्य को बेहतर और आधुनिक कार्य बना कर उसकी गुणवत्ता में सुधार करना होगा। तभी वह कार्य बड़ा बन जायेगा।

छोटे काम को आधुनिक और दूर तक पहुँचाने को ही बड़ा कार्य कहते हैं। जैसे जहाँ सुविधाएं कम हैं वहाँ रेस्टोरेंट ढाबा बन जाता है। जहाँ भोजन सस्ता होने के कारण वेतन कम मिलता है। जबकि सुविधाओं के बढ़ने पर वही ढाबा रेस्टोरेंट बन जाता है और भोजन महंगा करना आसान हो जाता है। वेतन अपने आप बढ़ेगा ही। पहले आप कारीगर कहलाते हो फिर बावर्ची या शेफ कहलाते हो। जिसके लिए लोग बड़े-बड़े कोर्स करके जॉब ढूंढने निकलते हैं।

सरकारों से उम्मीद रखने का क्या लाभ हुआ जनता को? कौन सा सफल व्यक्ति सरकारी मदद से सफल हुआ है आजतक? खुद ही रास्ता निकाला जा सकता है। सफल व्यक्तियों की जीवन गाथा पढ़िये और देखिये कि जो जितना ज्यादा गरीब, कमज़ोर, लाचार था वही महान अमीर हो सके। जिन पर पहले से कुछ था उनका नाम बहुत कम हुआ है। बदनामी ज्यादा हुई। हमारा अभियान छोटे समझे जाने वाले कार्यों को करने के लिए पढ़ीलिखी जनता को प्रोत्साहित करेगा ताकि कोई भुखमरी से न मरे।

दूसरे नम्बर पर संभोग आवश्यक है क्योंकि इसके बिना इंसान मानसिक रोगी हो जाता है और अपराध कर बैठता है।

अतः मानव की यौन प्रकृति को छेड़ना खतरे से खाली नहीं है। चरमसुख वाली घटना से परहेज क्यों? इसमें जो बाधा है, वह प्रजनन है जो कि आपका अधिकार है कि करें या रोक लें। अतिजनसंख्या और इस कष्टकारी दुनिया में बिना उस भावी शिशु से विचारविमर्श किये उसे इस दुनिया में लाना वैसे भी कानूनी नहीं है। हम सबका जन्म गैरकानूनी ढंग से होता है और इसके लिए हम अपने परिजनों पर मुकदमा भी कर सकते हैं। राफ़ायल नाम के व्यक्ति ने ऐसा कर भी दिया है।

बलात्कार, वैश्यालय, छेड़खानी, फोन सेक्स, सेक्स चैट, हस्तमैथुन, अवैध सम्बंध, पोर्नोग्राफी, अश्लील साहित्य, अश्लील गेम्स, विवाह के बिना संभोग आदि साबित करते हैं कि सम्भोग केवल आनंद के लिये बना है और ये एक ऐसी आवश्यकता है जिसके कारण व्यवस्था विवाह की व्यवस्था तक की गई।

दरअसल प्रकृति सर्वोत्तम का चुनाव करती है तभी विकास सम्भव होता है। हमारा मन सुंदर, गुणवान, कामोत्तेजक (सेक्सी), तन और मन के मालिक (नर या मादा) की ओर आकर्षित होता है ताकि अगली पीढ़ी वैसी ही निकले।

जब शक्तिशाली लोगों का राज़ हुआ तो सुजननिकी के सिद्धांत के चलते विवाह के 2 प्रकार हो गए।

1. ऊंचे कुल के लिए उत्कृष्ट रक्त का चुनाव व भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए पालनपोषण की उचित व्यवस्था।

2. आम जनता के लिये 'व्यवस्था विवाह' ताकि जो नकारा और घटिया गुणवत्ता के लोग स्वयं सम्भोग नहीं कर पाते थे, उनके लिए विवाह।

कालांतर में ऊँचे कुलों को तानाशाही और मानवाधिकार के उल्लंघन के चलते राजशाही तख्तों-ताज गंवाना पड़ा और अब केवल दूसरी श्रेणी का विवाह शेष रह गया है। इसमें भी पहली श्रेणी के विवाह का प्रयास किया ही जाता है जिसके चलते उच्च जाति, वर्ण, हैसियत, स्वभाव आदि का आंकलन करके सुजननिकी द्वारा पीढ़ी विकास का प्रयास किया जाता है। इसी कारण निम्न श्रेणी के लोगों को उच्च श्रेणी के लोगों के साथ विवाह करने से मना किया जाता रहा। आगे की सम्पूर्ण पीढ़ी ही खराब न निकले इसलिये माता-पिता अपने बच्चों को निम्न जाति में विवाह करने पर कत्ल तक कर देते हैं।

ये भी सही है लेकिन क्या अमानवीय नहीं? प्रकृति के साथ छेड़खानी नहीं? विवाह को केवल सुजननिकी के आधार पर ही उचित ठहराया का सकता है जोकि मानवीय नहीं है। मतलब दम्पति के सुख-प्रेम की कोई परवाह इसमें नहीं की जाती। परिवार को श्रेष्ठ रक्त की समझ है या नहीं? इसका भी कोई प्रमाण नहीं है।

बेहतर होगा कि सुजननिकी का कार्य केवल इसके लिए बनाई गई व्यवस्था (आयोग/विभाग) ही करे। जिसमें उचित बायोलॉजिकल भ्रूण तैयार करके उसका पालन पोषण किसी प्रशिक्षित से करवाया जाए। आम लोगों को इसमें जबरन न धकेला जाए जो कि एक दूसरे से प्रेम करने में असमर्थ हैं।

प्रेम और सेक्स दोनो भिन्न अवस्थाएं हैं। सेक्स आप किसी से भी कर सकते हैं जो आपको कामुक लगे। जबकि प्रेम करने के लिये दोस्ती अवश्य होनी चाहिए। कुछ लोग विवाह की अवधारणा को उचित मान कर प्रेमी-प्रेमिका से ही सम्भोग करने की प्रतिबद्धता (commitment) रखते हैं और एक दूसरे को खास महसूस करवाते हैं। लेकिन वे सब झूठे होते हैं क्योंकि या तो इनकी दूसरे से सेक्स करने को तड़पते हुए खुद को जबरन रोकने से हालत खराब रहती है या ये सब छुप कर एक दूसरे को धोखा देते हैं।

जब सामने सेक्सी विपरीत लिंग का प्राणी होगा तो आप का शरीर सम्भोग के लिए तैयारी करेगा ही। उसे रोकने के लिए आप को अगले को अनदेखा करना ही होगा। इसी के चलते बुरका, दुपट्टा व कपड़े का चलन हुआ। लेकिन ये स्थिति और खराब करेगा, इसका पता बहुत देर से चला।

दरअसल इससे लाभ की जगह बड़ा नुकसान हुआ। सेक्स की इच्छा कम होने की जगह और भड़क गई क्योंकि अब लोग कपड़ो के भीतर धोखाधड़ी करके खुद को और भी कामुक दिखाने लगे। खुली मुट्ठी खाक की, बन्द मुट्ठी लाख की। अब हर विपरीत लिंग का प्राणी सेक्सी होने की संभावना लिये घूमने लगा। इससे भारी कुंठा पैदा हुई।

विवाह से पूर्व सेक्स करने पर जान से जाने की धमकी से महिला वर्ग सेक्स से अंजान बन के दूर रहना चाहता है तो उधर पढ़ाई और नौकरी की आवश्यकता के चलते हुई देरी से लड़कों का सम्भोग काल चरम पर होता है। जहां पहले (अब भी) बच्चों का विवाह कर दिया जाता था, वहाँ अब 35 साल तक के लड़के का विवाह उसके सेटल न हो पाने के कारण नहीं हो पा रहा है।

परिणाम भयानक होने तय हैं। जबरन सेक्स, शोषण, बलात्कार इसी व्यवस्था का नतीजा हैं। क्योंकि वैसे भी हर कोई वैश्यालय का उपयोग नहीं कर सकता। वैश्यालय अवैध होने के कारण ग्राहक को लूट लेते हैं और शर्म के कारण कोई पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं करता। दूसरे भयानक नतीजे पैदा हुए बलात्कारी को मौत की सज़ा, 7-10 साल के कारावास से।

अपराधी यही सोचता है कि वो तो अपनी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है, न कि कोई सोना-चांदी चुरा रहा है। फिर इसकी सज़ा क्यों? अतः वह सज़ा से बचने हेतु बलात्कार पीड़ित को ही जान से मार के खत्म कर देते हैं। बलात्कार रोकना सज़ा से सम्भव नहीं। ये कोई चोरी नहीं जो कोई सुधर जाएगा। ये शरीर की भूख जैसी आवश्यकता है। इसकी पूर्ति कहीं न कहीं से करनी पड़ेगी तभी काम बनेगा। सोचिये अगर भोजन करने पर सज़ा होती तो रोज़ अपराध होता। अतः भोजन की तरह सम्भोग की मुफ़्त व्यवस्था आवश्यक है।

अगर हम सम्भोग को मशीन द्वारा उपलब्ध नहीं करवा सकते तो स्वेच्छाचारी लीगल वैश्यालय को मान्यता तो देनी ही चाहिए जो कम से कम मूल्य पर सेवा दे सकें। अन्यथा महंगा होने की अवस्था में गरीब वर्ग बलात्कारी ही रहेगा।

विपरीत लिंगों में प्रेम इस मुफ़्त सेक्स की आवश्यकता को समाप्त कर सकता है। प्रेम जीवन में मानसिक सुख के लिये आवश्यक है। प्रेम जीवन जीने के लिये आवश्यकता नहीं है जबकि सम्भोग है। इसीलिये इतने विवाह सफल हैं। दरअसल भोजन इतनी बड़ी आवश्यकता नज़र नहीं आती जितनी कि संभोग है। देखिये, भोजन के लिये कोई कत्ल नहीं कर देता। सामान्य मूल्य से अधिक मूल्य नहीं देता लेकिन संभोग के लिये इंसान न सिर्फ करोड़ो रूपये लुटा सकता है बल्कि कत्ल तक कर सकता है। 

मनपसंद भोजन की थाली सामने हो तो इतनी प्रबल इच्छा नहीं होती कि खुद पर संयम न रखा जा सके लेकिन संभोग के लिये उचित साथी सामने हो तो अच्छे  से अच्छे योगी-मुनि-साधु-साध्वी का भी पानी निकल जाता है।

अतः संभोग कानूनन सभी नागरिकों का कानूनी अधिकार है। इसके लिए किसी तीसरे से आज्ञा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। संविधान आपको इसी वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर बिना विवाह के संभोग का अधिकार देता है। परंतु समस्या है समाज। जिस तरह संविधान धर्ममुक्त है लेकिन समाज अंधविश्वास से भरा हुआ, वैसे ही सेक्स को लेकर भी समाज में अंधविश्वास भरा है।

उनको विवाह के बिना सेक्स से बच्चा होने का डर रहता है जबकि वह तो सहउत्पाद (by product) है सम्भोग का। वह भी माह में केवल अण्डोत्सर्ग के दिन ही सम्भोग करने पर सक्रिय शुक्राणुओं से युक्त वीर्य के अंडे से निषेचन पर ही हो सकता है।

यानि प्रकृति भी चाहती है कि माह के 29 दिन केवल आनंद लिया जाए। केवल एक दिन ही शिशु होने की प्रभावी स्थिति बनती है।

नोट: चूंकि शुक्राणु योनि में 72 घण्टे तक जीवित रह सकते हैं तो अण्डोत्सर्ग के 3 दिन पहले और 3 दिन बाद तक के वीर्य से भी बच्चा होने के आसार होते हैं लेकिन संभावना अण्डोत्सर्ग वाले दिन से अपेक्षाकृत रूप से कम होती जाती है।

फिर संभोग से प्रजनन न हो उसके बहुत से सस्ते उपाय हैं जैसे मैथुन भंग (मुफ़्त), अण्डोत्सर्ग से दूर वाले दिन संभोग (मुफ़्त), कंडोम (99% safe) (मुफ़्त/1₹/5₹), गर्भनिरोधक गोली, 72 hr pill, डायफ्रॉम, इंजेक्शन, IUD आदि तमाम साधन उपलब्ध हैं। बच्चों को सुरक्षित सेक्स कब और कैसे करना है इसका ज्ञान सेक्स एडुकेशन से होगा। STD (सेक्स से फैलने वाली बीमारियां) से बचने के लिये अंजान लोगों से सुरक्षित सेक्स (कंडोम सहित) करें व खून की जांच कराते रहें। जांच में स्वस्थ आने पर असुरक्षित लेकिन गर्भनिरोधक के साथ सम्भोग कर सकते हैं।

स्थायी समाधान नसबंदी है। पुरुष की आसान है। महिला की मुश्किल।

फिर हम कौन होते हैं पुरानी सोच थोपने वाले? विदेश में लोग सेक्स की क्रांति के कारण ज्यादा तनाव रहित होते हैं और बेहतरीन सोचते हैं। (बिल्कुल जैसे आदिमानव ने संभोग की पर्याप्त आपूर्ति के चलते पहिया, आग और पके भोजन की खोज कर डाली थी) वहां सेक्स को लेकर बहुत कम अंधविश्वास है। पोर्नोग्राफी सबसे ज्यादा वहीं बनती है। सेक्स के खिलौने हर चौराहे पर शोरूम में बिकते देखे जा सकते हैं।

लड़कियां इतनी आज़ाद हैं कि वे जो लड़का पसन्द आता है उसे अपनी जगह पर पहल करके, इजाजत लेकर, ले जा कर उससे संभोग कर लेती हैं और पैसा भी देती हैं (यदि आपको चाहिए तो)। वैसा ही आदमी भी करते हैं। सब 50-50%। जबकि इस देश में जैसे इस्लामिक-सनातनी कानून लागू है, ऐसा माहौल बना रखा है। हमने इस तरह के पाखण्ड को नष्ट करके आपके स्वविवेक पर संभोग को रखा है ताकि हम भी विश्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल सकें। 

अंततः हमारा अभियान विवाहमुक्त प्रेम, सुरक्षित संभोग, शिशुमुक्त व क्रूरतामुक्त जीवन शैली को भी सहयोग और बढ़ावा देगा। तो बताइये हमारा धर्ममुक्त अभियान किसी भी अभियान से ज्यादा मजबूत और आकर्षक नहीं है क्या?  2019/11/19 18:48 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

गुरुवार, नवंबर 14, 2019

जनता के मध्य फूहड़ता और बिंदासियत में संतुलन व मर्यादा आवश्यक ~ Shubhanshu



साथियों द्वारा स्त्री सम्बन्धी अपशब्द प्रयोग ज्यादा ही हो रहे। गालियाँ गुस्से वाली और महिला वाली हो रही हैं। भले ही तोड़मरोड़ के हैं लेकिन आपकी छवि खराब हो रही है उनसे।

अपनी शक्ति सकारात्मक रूप से प्रयोग कीजिये। नकारात्मक और शिकायती नहीं। हमें दूसरों से कुछ बेहतर बनने का सोचना है। इसलिये किसी से भी प्रचलित से अलग और बेहतर बनना चाहिए। आप सब मेरे पोस्ट से तुलना करके देख सकते हैं कि बिंदासियत और फूहड़ता (vulgarity) की limit क्या होनी चाहिए।

खासकर लोगों में कितना बोलना है इसका ध्यान रखना है। लोगों को संस्कार संस्कृति की शिक्षा मिली है। उनको थोड़ी-थोड़ी dose देकर बदलावों को लाया जा सकता है लेकिन अगर हम सीधे फूहड़ स्त्री की छवि का वस्तुकरण करने वाले बिंदास बने तो उसका गलत मतलब निकलेगा और सब सीखने की जगह भाग जाएंगे।

हमारे frustration (हतोत्साहित होना) को किसी का अपमान करना शांति देता है। लेकिन कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना न हो इसी में बेहतरी है। जैसे हम जब किसी को बहनचो* बोलते हैं तो दरअसल हमने मन ही मन उसकी बहन का बलात्कार, उसके द्वारा करवा दिया और नहीं करवाया तो इसे कहने का फायदा क्या?

अगर उसकी बहन जिसकी कोई गलती नहीं है, उसका आपसे परिचय तक नहीं और वो वहीं खड़ी हो या उसे कभी पता चले तो वो पूछ सकती है, "आप कह रहे हो कि मेरे भाई ने मेरा बलात्कार किया और मैं चुप हूँ? क्योकि मुझे ये बलात्कार अच्छा लगा? क्या ये मेरी इच्छा-अनिच्छा का अपमान नहीं है?

क्या मेरे चरित्र को अपमानित करना नहीं है जबकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं? सोचो मेरा bf हो, मैं उससे मोनोगेम्स कमिटमेंट में हूँ और वो इस गाली को सत्य समझे, तो वो मुझे छोड़ देगा, पीटेगा या हो सकता है मार ही डाले।"

इतनी गहराई से सोचना पड़ता है तब हम महान बन सकते हैं। मैं जितना बिंदास हूँ और यदाकदा मैं भी इस तरह की गालियाँ मजाक में देता हूँ और कभी-कभी गुस्से में भी लेकिन कभी लिख कर सबके सामने दुर्भावना से नहीं करता क्योकि वो इतिहास में जुड़ जाता है।

बोले हुए को माफी मांग कर बदल सकते हैं और कह सकते हैं कि गलती से बोल गए लेकिन लिखने में जानबूझकर ही लिखा जाता है। और ये निजी हो तो ही बेहतर है जैसे निजी मेसेज और खास मित्रों का चैट समूह आदि।

क्योकि हम एक दूसरे को समझते हैं; समझा सकते हैं लेकिन तमाम लोग सीधे ब्लॉक करते और हमेशा के लिए बुरी राय बना लेते हैं। बड़ी बात नहीं कि लोग क्या कहेंगे लेकिन हम उनकी मदद से उनको ही वंचित कर रहे हैं, उनसे दूर जाकर।

हम सब डॉक्टर हैं और हमको ये हक मिला है कि लोगों का दिमाग ठीक करें लेकिन अगर हम ही अपने मरीज को डरा कर भगा देंगे तो हम डॉक्टर ही नहीं रहेंगे। मरीज के बिना डॉक्टर कुछ भी नहीं। अतः दूरदृष्टि आवश्यक है। ~ Vn. Shubhanshu SC 2019©

शनिवार, नवंबर 09, 2019

UP वाले हैं, गालियाँ तो खून में हैं ~ Shubhanshu


ऐसा नहीं है कि मैं इसलिये गाली नहीं देता कि मुझे आती नहीं। बल्कि इसलिये क्योंकि मुझे बहुत ज्यादा गालियां आती हैं लेकिन उनकी अपनी जगह है। दोस्तों में गालियाँ तनाव कम करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं और जिसका टाइम आ गया होता है उस पर गुस्से में गाली बकने से कम से कम गुस्सा तो कम होता ही है।

जनता के सामने गालियां देने से मानहानि होती है। इसलिये ये एक अपराध है। अकेले में गाली दी जा सकती है। फिर अगला तय करेगा कि क्या फैसला करना है। रहना है या जाना है या फोड़ना है।

बात बात पर नफरत भरी गाली देने वाला कुछ ज्यादा ही सुरक्षित समझता है खुद को। जबकि उसकी जान किसी भी स्वाभिमानी के हाथों में फँसी होती है। गालियाँ वास्तव में घृणित और गुप्त रखे जाने लायक आरोप होते हैं जो कि झूठे होते हैं और उनसे लोगों के मन में शक पैदा किया जाता है।

जैसे गाली सुन के चुप रहने वाले पर 2 शक किये जाते हैं।

1. वाकई में यह वैसा ही है जैसी इसे गाली दी गई है।
2. ये शांत है क्योंकि ये निर्दोष है और आरोप से इसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

अब ये दोनों ही अनुमान जनता के ऊपर छोड़े जाते हैं कि वो किस बुद्धि की है। मैं गालियों का प्रयोग सिर्फ अपने साथियों पर करता हूँ जो इनको फ्रेंडली लेते हैं। गुस्से में भी किसी-किसी पर करता हूँ जो दोबारा दिखाई नहीं देता फिर।

जबकि इसके विपरीत गालियों के बदले गाली देने वाला मूर्ख होता है। वह दरअसल उकसावे में आ जाता है और प्रतिक्रिया देकर खुद के बारे में शक पैदा करता है कि यदि निर्दोष है तो आरोप से बुरा क्यों लगा? बुरी तो सामने वाले की सोच है जो आपको गुस्सा दिला कर अपने निचले स्तर पर लाना चाहता है और फिर आपको हराना आसान होगा। दरअसल वो हार चुका है, पहले ही।

ये सत्य है कि मैं सीधा हूँ क्योंकि मैं सबका भला चाहता हूँ। लेकिन मैं चालाक भी हूँ क्योकि जानता हूँ कि सबका भला करना सम्भव ही नहीं। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शुक्रवार, नवंबर 08, 2019

लड़का, लड़की और पैसा का क्या सम्बन्ध है? ~ Shubhanshu

आइये जानते हैं कि आखिर लड़की और पैसे में क्या सम्बन्ध होता है कि लड़कियां पैसे वाले बुढ्ढों से भी इश्क करती दिख जाती हैं।

जवाब है:

विवाह की अवधारणा धन से जुड़ी है और बेरोजगार लड़कियों के लिये कमाऊ लड़का चाहिए न! फिर जब डेट करते पकड़े गए तो शादी ही हो जाये यही तमन्ना होती है।

धनी होगा लड़का तो माता पिता हाँ कर देंगे। और इसीलिए लड़कियों को जाति, धर्म, व व्यवसाय से भी उतना ही मतलब होता है जितना माता-पिता को।

हमें ऐसी लड़कियों को पैदा करना है जो लड़को की तरह आज़ाद और दबंग हों। खुद लीगली धन कमाने का जुनून होना चाहिए और मार्शल आर्ट में ब्लैक बेल्ट का भी। तभी ये दुनिया समानता के शिखर पर पहुँचेगी। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©

रविवार, अक्टूबर 27, 2019

पारखी लोग ढूंढो ~ Shubhanshu


अगर आपको कोई इज़्ज़त नहीं दे रहा जबकि आप महान हैं तो आप अपनी संगत बदलो। उस जगह जाओ, जहां पारखी लोग रहते हों।

महान लोगों में यही टैलेंट होता है कि वे सदा जगह बदलते रहते हैं या अकेले रहते हैं। पारखी लोग गाहे-बगाहे पहले से कहीं इकट्ठा हैं। आपको उनको ढूढने के लिये खुद के टैलेंट को दर्शाना होगा mass स्तर पर। जो आपको आपके टैलेंट से पसंद करे उनके साथ जाओ। वो अपने जैसे लोगों से मिलवाएगा।

दिल्ली में एक शो में मुझे बुलाया गया था। मेरा पहला standup कॉमेडी शो था। मैं अच्छा नहीं कर सका। दिल्ली की जनता बहुत कठोर है। उनको बहुत ही ज्यादा मंझा हुआ खिलाड़ी पसंद है। मैं अंतर्मुखी होने के कारण भीड़ से डरता हूँ। नर्वस हो गया था। back stage पर जब मैं उदास खड़ा था तो एक लड़के ने मुझे ऑटोग्राफ के लिये पूछा।

मैंने कहा, मजाक कर रहे हो क्या? मेरा तो पूरा शो बेकार गया।

वो बोला, "दिल्ली की सबसे घटिया ऑडियंस आज मैंने देखी। आपके जैसा टैलेंट मैंने कभी नहीं देखा। मैं एक रंगमंच का owner हूँ और आपको आमंत्रित करता हूँ कि आप मेरे साथ काम करें।

इतना अच्छा इंसान कहीं नर्वस न हो जाये इसलिये मैं आपको cheer करने के लिए खुद को रोक नहीं पाया और आपको ढूंढता हुआ यहाँ चला आया। बेस्ट ऑफ लक bro।"

इसी तरह कोई न कोई पारखी आपको सैकङो में से एक मिलता रहेगा। उनसे जुड़िये और देखिये कि जौहरी हीरे की कीमत कितनी बताता है। ~ Vegan Shubhanshu 2019©

सोमवार, अक्टूबर 21, 2019

गर्व से बोलो, धर्ममुक्त जयते ~ Shubhanshu



जब हम कहते हैं, "जय मूलनिवासी" तो अर्थ हुआ, "मूलनिवासी जीते"। "जय भारत" का अर्थ हुआ "भारत जीते"। इसमें व्यक्तिपूजा नहीं परन्तु समूह पूजा है।

इस तरह की पूजा में समस्या पहले भी आ चुकी है। जब भारत माता की जय बोली जा रही थी तो सैद्धांतिक रूप से वो  एक धार्मिक देवी की ही जय थी।

मान्यता है कि विवेकानंद वेदांत के अतिरिक्त पाखण्ड के विरोधी थे लेकिन उन्होंने भारत माता को सशरीर देखा था। जो कि उनको साफ पाखण्डी बताता है। इसी को आधार बना कर ये नारा बन गया था।

जब जवाहरलाल नेहरू आये तो वे इस नौंटकी को समझ न सके और इसमें उन्होंने समझाया कि भारत माता दरअसल भारत के लोग हैं। उनकी जय हो।

इस तरह एक जबरन डाला हुआ मतलब तो बना दिया लेकिन भारत माता को भारत के लोग कहना तर्कसंगत तो कहीं से नहीं हुआ।

फिर हद तो तब हुई जब हर जगह मंदिरों में काल्पनिक भारत माता जो कि विवेकानंद की रची कल्पना थी, मूर्ति के रूप में नज़र आने लगी और भारत माता, अन्य देवियों की तरह पूजी जाने लगी।

इससे क्या लाभ हुआ? अब मान लो कि जय मूलनिवासी बोलने पर कोई 1 व्यक्ति की पूजा नहीं हुई लेकिन क्या एक समुदाय के प्रति श्रेष्ठता की भावना पक्षपाती नहीं हुई? कल को मूलनिवासी देवता बना कर मंदिर बन जायेगा और फिर उस पर भी चढ़ावा चढ़ेगा।

जय भारत वाला नारा भी कल भारत देव नाम से मूर्ति बन कर मंदिर में सजेगा तब? सोच लो, इस तरह भारत माता का लँगड हो चुका है। सम्भव है दोबारा हो। लेकिन अगर हम जय धर्ममुक्त बोलें तो?

धर्ममुक्त न तो कोई व्यक्ति है और न ही कोई बेजान वस्तु और न ही कोई समूह। ये एक विचार धारा है, साम्यवाद की तरह लेकिन इसमें कोई जटिल परिभाषा नहीं। सभी प्रकार के सम्प्रदाय/रिलिजन/मजहब से मुक्त हो जाना, वापस सामान्य इंसान बन जाना, अपनी बुद्धि से चलना ही धर्ममुक्त होना है। एक दम शानदार और खुद को आजमाने का मौका। शरीर तो 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था लेकिन दिमाग केवल धर्ममुक्त होना ही आज़ाद करा सकता है।

फिर भी क्या पता? कल को कोई मूर्ख धर्ममुक्त देवता भी बना डाले और हमारे और कश्मीर जी के मास्टर प्लान की बैंड बजा डाले तो क्या होगा?

इसलिये अगर जोश बढाना ही है तो सोचा कि दूसरों से कुछ और बड़ा किया जाए। हमने और बढ़िया सोचा और हमे एक शब्द दिखा जिसकी सदियों से कोई मूर्ति नहीं बनी थी, और वो था "सत्यमेव जयते" (भारत सरकार का आधिकारिक शब्द)। अर्थात सत्य की सदा विजय होती है या कहें सत्य सदा जीतता है। देखिये, इस तरह के वाक्य में कोई संज्ञा ही नहीं है। केवल एक भाव है जो सत्य कहलाता है। ये सार्वभौमिक है और शाश्वत है। इसकी कोई मूर्ति बना भी ले तो उसका कोई अर्थ नहीं बनेगा।

फिर क्यों न हम इन्हीं शब्दों में धर्ममुक्त भी रखें? धर्ममुक्त जयते! अर्थात धर्ममुक्त  इंसान जीतता है। धर्ममुक्त कोई भी बन सकता है अतः ये सत्य के समान एक भाव है। इसमें कोई भेदभाव नहीं। समानता है। कोई जातपात नहीं, कोई भेदभाव नहीं, सिर्फ अच्छाई! अतः बोलते रहिये, "धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते", "जीतेगा भई जीतेगा, हर धर्ममुक्त जीतेगा।" ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

रविवार, अक्टूबर 20, 2019

काल्पनिक रावण ब्राह्मण और विदेशी था ~ Shubhanshu



पूरे विश्व में बच्चा पिता का माना जाता है। उसका ही वंश उसके पुत्र से चलाया जाता है। माँ का कार्य केवल बच्चा पैदा करके पालना होता है। इसीलिए चाहें वो किसी भी जाति, धर्म, वंश, रंग, स्थान की हो, स्वीकार कर ली जाती है। इसीलिए love जिहाद जैसा गिरोह बना जो हिन्दू लड़कियों को प्रेम जाल में फंसा कर विवाह करता था। क्योंकि लड़की कोई भी हो, वंश लडके का चलता है। मेरी बहन ने भी भाग कर एक मुसलमान लड़के से विवाह कर लिया था। अब हमारा और उसका कोई सम्पर्क/सम्बन्ध नहीं है।

हर कहानी, हर फिल्म में आप देख सकते हैं कि जब लड़की विवाह पूर्व गर्भवती होती है तो वो सबसे एक ही सवाल सुनती है, "किसका बच्चा है?" इसका अर्थ ये हुआ कि समाज बच्चा महिला का नहीं मानता। इनके अनुसार महिला केवल एक पात्र है जिसमें बच्चा पुरुष रख गया। आज कानून भी बच्चे के पिता को ही बच्चे का मूल स्वामी मानता है और इसी वजह से बच्चे की मां का परिवार नाम बदल कर लड़के के परिवार नाम पर रख दिया जाता है। जो बताता है कि लड़की कोई भी हो चलेगी। उसके कोई गुण नर बालक में नहीं आते।

मेडिकल साइंस के अनुसार भी नर बालक में पिता के गुण ही प्रभावी होते हैं। इसी तरह मादा बच्चे में भी सिर्फ माँ के ही गुण प्रभावी होते हैं। अतः यदि कोई ब्राह्मण यदि किसी बहुजन या किसी भी अन्य वंश की स्त्री से विवाह कर ले तो उसका वंश ब्राह्मण ही कहलायेगा।

कपोल कल्पित वाल्मीकि रामायण के रचयिता रत्नाकर थे जो कि ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि प्रचेता और माँ चार्शिणी (वर्ण अज्ञात) के पुत्र थे। अतः ये भी ब्राह्मण थे। इनका नाम बाद में वाल्मीकि पड़ गया था।

अब आते हैं रावण के वर्ण और राष्ट्रीयता पर। पुस्तक के अनुसार रावण सीलोन नामक देश में रहता था जिसे आज श्री लंका कहा जाता है। यह एक दूसरा देश है जो भारत से बिल्कुल अलग थलग है। अतः रावण विदेशी था। रावण के पिता ब्राह्मण ऋषि विश्रवा और माता का नाम राक्षसी कैकसी था। अतः उपर्युक्त विवेचनानुसार रावण भी ब्राह्मण था। इतिसिद्धम! ~ Shubhanshu 2019©

ऑनलाइन तो मत डरो ~ Shubhanshu



हम सब असल जीवन में उपनाम छुपा सकते हैं क्योंकि आप किसी जातिवादी के कंट्रोल में हो सकते हैं लेकिन फेसबुक पर उपनाम छुपाने का मतलब है कि आपकी इतनी ज्यादा फटी पड़ी है, जातिवादियों से कि जैसे फेसबुक पर भी वो आपको थप्पड़ लगा देंगे या लाठी से कूट देंगे।

जो मूर्ख आपको ऐसी नाम बदलने की सलाह दे रहा है वो वाकई में फटीचर ही होगा दिमाग से। जिसकी किसी जातिवादी ने नाम पूछ के ले ली खबर। ऐसे फटीचरो से सलाह न लें। अपना नाम जो है वही रखें। अपनी पहचान बनाइये और नाम कमाइए। आखिर इंसान जीता किस लिए है? सम्मान के लिये। जो भी नाम पर उंगली उठाये उस की गेंद में पूरा बाँस डाल दीजिये। ब्लॉक कर दीजिये। ख़त्म हुआ। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©

रविवार, अक्टूबर 13, 2019

अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu


जय भीम न बोलने पर पुजारी के हाथ तोड़े, जान से मारने का प्रयास किया, ठाकुर कालोनी में जय भीम न बोलने वालों को जान से मारने की धमकी वाले पर्चे डाले गए, यदि ये सब धार्मिक कट्टरता नहीं है तो क्या है?

जब हम इस तरह के मुद्दे उठाते हैं तो हमें हमारे नाम में सिंह चौहान देख कर जातिवाद किया जाता है जो कि ढोंगी दलितों की असलियत सामने लाता है। अनुसूचित जाति का होने पर भी मुझे ठाकुरों के साथ पढ़ाई के लिये रहना था। अतः पापा ने बचपन में ही मेरे नाम में सिंह चौहान जोड़ दिया ताकि मैं सवर्णों की कट्टरता का शिकार न बनूँ।

जब नास्तिकों के साथ जुड़ा तो इधर भी वैसा ही कट्टरपंथ दिखा। अब जो नाम मुझे सवर्ण कट्टरपंथियों से बचाता था, वही मुझे दलित कट्टरपंथियों से पिटवाने लगा। दोनो में कोई फर्क नहीं था। फेसबुक पर सुदेश, जितेंद्र और भी बहुत से इन जैसे लोग दलित कट्टरपंथी हैं, जो मेरे नाम को और मेरे निष्पक्ष होने को गलत ठहराते हैं।

मेरा पूरा नाम मुझे घटिया सोच वाले नकली नास्तिकों की असलियत दिखाता है जो सम्भवतः किसी नास्तिक समझें जाने वाले धर्म से भी जुड़े हैं। भीम चरित मानस भीम धर्म के लिये तैयार है, भीम कथा की पर्ची कटने लगी हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार चरम पर है। अब अगर मैं इनके साथ खड़ा हुआ तो मैं फिर वहीं जाता दिखता हूँ जहाँ से चल कर आया था।

इसीलिये कृपया कट्टरता कौन कर रहा है ये देखिये। किसी व्यक्ति की जय बोलना सबका निजी मत है, लेकिन उसे दूसरे से बुलवाने का कार्य कट्टरता है। तानाशाही है। वैसे ही जैसे जय श्री राम न बोलने पर धार्मिक भीड़ द्वारा मारपीट।

मैं उसी कट्टरता का सही आकलन करता हूँ जो वास्तविक होती है, और जो समस्या वास्तविक है उसी से खतरा है।

जय भीम बोलो, वरना मरो जैसे पर्चे बाँट कर दलित संगठन उसी तरह से मुकर गए जिस तरह हिन्दू संगठनों ने अपने कार्य (गांधी हत्या) करे और बाद में मुकर गये।

कीचड़ से कीचड़ धोकर क्या मिलेगा? कीचड़ ही न? बेहतर होता भीम चरित मानस और भीम कथा/भजन की जगह संविधान में अपने अधिकारों और कर्तव्यों को सिखाया जाता। बेहतर होता जो हर दलित अपनी आरक्षण और शिक्षा के अधिकार का फायदा उठा कर सरकारी वकील बनता।

आज बाबा साहेब जैसे कितने वकील हैं? शायद ही कोई हो। मैं वकील न बन सका, मेरी मजबूरी थी लेकिन क्या आप सब भी मजबूर हैं? सोचो इससे पहले कि बहुत देर हो जाये!

PS: जयभीम, नमो बुद्धाय नहीं रटो, वो तो थे, जो भी थे, अब नहीं हैं। उनसे सीखो, लेकिन अपनी राह सिर्फ खुद बनाओ, याद रखो बुद्ध की एक मात्र शिक्षा: अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 

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