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मंगलवार, अक्टूबर 29, 2019
रविवार, अक्टूबर 27, 2019
पारखी लोग ढूंढो ~ Shubhanshu
अगर आपको कोई इज़्ज़त नहीं दे रहा जबकि आप महान हैं तो आप अपनी संगत बदलो। उस जगह जाओ, जहां पारखी लोग रहते हों।
महान लोगों में यही टैलेंट होता है कि वे सदा जगह बदलते रहते हैं या अकेले रहते हैं। पारखी लोग गाहे-बगाहे पहले से कहीं इकट्ठा हैं। आपको उनको ढूढने के लिये खुद के टैलेंट को दर्शाना होगा mass स्तर पर। जो आपको आपके टैलेंट से पसंद करे उनके साथ जाओ। वो अपने जैसे लोगों से मिलवाएगा।
दिल्ली में एक शो में मुझे बुलाया गया था। मेरा पहला standup कॉमेडी शो था। मैं अच्छा नहीं कर सका। दिल्ली की जनता बहुत कठोर है। उनको बहुत ही ज्यादा मंझा हुआ खिलाड़ी पसंद है। मैं अंतर्मुखी होने के कारण भीड़ से डरता हूँ। नर्वस हो गया था। back stage पर जब मैं उदास खड़ा था तो एक लड़के ने मुझे ऑटोग्राफ के लिये पूछा।
मैंने कहा, मजाक कर रहे हो क्या? मेरा तो पूरा शो बेकार गया।
वो बोला, "दिल्ली की सबसे घटिया ऑडियंस आज मैंने देखी। आपके जैसा टैलेंट मैंने कभी नहीं देखा। मैं एक रंगमंच का owner हूँ और आपको आमंत्रित करता हूँ कि आप मेरे साथ काम करें।
इतना अच्छा इंसान कहीं नर्वस न हो जाये इसलिये मैं आपको cheer करने के लिए खुद को रोक नहीं पाया और आपको ढूंढता हुआ यहाँ चला आया। बेस्ट ऑफ लक bro।"
इसी तरह कोई न कोई पारखी आपको सैकङो में से एक मिलता रहेगा। उनसे जुड़िये और देखिये कि जौहरी हीरे की कीमत कितनी बताता है। ~ Vegan Shubhanshu 2019©
सोमवार, अक्टूबर 21, 2019
गर्व से बोलो, धर्ममुक्त जयते ~ Shubhanshu
जब हम कहते हैं, "जय मूलनिवासी" तो अर्थ हुआ, "मूलनिवासी जीते"। "जय भारत" का अर्थ हुआ "भारत जीते"। इसमें व्यक्तिपूजा नहीं परन्तु समूह पूजा है।
इस तरह की पूजा में समस्या पहले भी आ चुकी है। जब भारत माता की जय बोली जा रही थी तो सैद्धांतिक रूप से वो एक धार्मिक देवी की ही जय थी।
मान्यता है कि विवेकानंद वेदांत के अतिरिक्त पाखण्ड के विरोधी थे लेकिन उन्होंने भारत माता को सशरीर देखा था। जो कि उनको साफ पाखण्डी बताता है। इसी को आधार बना कर ये नारा बन गया था।
जब जवाहरलाल नेहरू आये तो वे इस नौंटकी को समझ न सके और इसमें उन्होंने समझाया कि भारत माता दरअसल भारत के लोग हैं। उनकी जय हो।
इस तरह एक जबरन डाला हुआ मतलब तो बना दिया लेकिन भारत माता को भारत के लोग कहना तर्कसंगत तो कहीं से नहीं हुआ।
फिर हद तो तब हुई जब हर जगह मंदिरों में काल्पनिक भारत माता जो कि विवेकानंद की रची कल्पना थी, मूर्ति के रूप में नज़र आने लगी और भारत माता, अन्य देवियों की तरह पूजी जाने लगी।
इससे क्या लाभ हुआ? अब मान लो कि जय मूलनिवासी बोलने पर कोई 1 व्यक्ति की पूजा नहीं हुई लेकिन क्या एक समुदाय के प्रति श्रेष्ठता की भावना पक्षपाती नहीं हुई? कल को मूलनिवासी देवता बना कर मंदिर बन जायेगा और फिर उस पर भी चढ़ावा चढ़ेगा।
जय भारत वाला नारा भी कल भारत देव नाम से मूर्ति बन कर मंदिर में सजेगा तब? सोच लो, इस तरह भारत माता का लँगड हो चुका है। सम्भव है दोबारा हो। लेकिन अगर हम जय धर्ममुक्त बोलें तो?
धर्ममुक्त न तो कोई व्यक्ति है और न ही कोई बेजान वस्तु और न ही कोई समूह। ये एक विचार धारा है, साम्यवाद की तरह लेकिन इसमें कोई जटिल परिभाषा नहीं। सभी प्रकार के सम्प्रदाय/रिलिजन/मजहब से मुक्त हो जाना, वापस सामान्य इंसान बन जाना, अपनी बुद्धि से चलना ही धर्ममुक्त होना है। एक दम शानदार और खुद को आजमाने का मौका। शरीर तो 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था लेकिन दिमाग केवल धर्ममुक्त होना ही आज़ाद करा सकता है।
फिर भी क्या पता? कल को कोई मूर्ख धर्ममुक्त देवता भी बना डाले और हमारे और कश्मीर जी के मास्टर प्लान की बैंड बजा डाले तो क्या होगा?
इसलिये अगर जोश बढाना ही है तो सोचा कि दूसरों से कुछ और बड़ा किया जाए। हमने और बढ़िया सोचा और हमे एक शब्द दिखा जिसकी सदियों से कोई मूर्ति नहीं बनी थी, और वो था "सत्यमेव जयते" (भारत सरकार का आधिकारिक शब्द)। अर्थात सत्य की सदा विजय होती है या कहें सत्य सदा जीतता है। देखिये, इस तरह के वाक्य में कोई संज्ञा ही नहीं है। केवल एक भाव है जो सत्य कहलाता है। ये सार्वभौमिक है और शाश्वत है। इसकी कोई मूर्ति बना भी ले तो उसका कोई अर्थ नहीं बनेगा।
फिर क्यों न हम इन्हीं शब्दों में धर्ममुक्त भी रखें? धर्ममुक्त जयते! अर्थात धर्ममुक्त इंसान जीतता है। धर्ममुक्त कोई भी बन सकता है अतः ये सत्य के समान एक भाव है। इसमें कोई भेदभाव नहीं। समानता है। कोई जातपात नहीं, कोई भेदभाव नहीं, सिर्फ अच्छाई! अतः बोलते रहिये, "धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते", "जीतेगा भई जीतेगा, हर धर्ममुक्त जीतेगा।" ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©
रविवार, अक्टूबर 20, 2019
काल्पनिक रावण ब्राह्मण और विदेशी था ~ Shubhanshu
पूरे विश्व में बच्चा पिता का माना जाता है। उसका ही वंश उसके पुत्र से चलाया जाता है। माँ का कार्य केवल बच्चा पैदा करके पालना होता है। इसीलिए चाहें वो किसी भी जाति, धर्म, वंश, रंग, स्थान की हो, स्वीकार कर ली जाती है। इसीलिए love जिहाद जैसा गिरोह बना जो हिन्दू लड़कियों को प्रेम जाल में फंसा कर विवाह करता था। क्योंकि लड़की कोई भी हो, वंश लडके का चलता है। मेरी बहन ने भी भाग कर एक मुसलमान लड़के से विवाह कर लिया था। अब हमारा और उसका कोई सम्पर्क/सम्बन्ध नहीं है।
हर कहानी, हर फिल्म में आप देख सकते हैं कि जब लड़की विवाह पूर्व गर्भवती होती है तो वो सबसे एक ही सवाल सुनती है, "किसका बच्चा है?" इसका अर्थ ये हुआ कि समाज बच्चा महिला का नहीं मानता। इनके अनुसार महिला केवल एक पात्र है जिसमें बच्चा पुरुष रख गया। आज कानून भी बच्चे के पिता को ही बच्चे का मूल स्वामी मानता है और इसी वजह से बच्चे की मां का परिवार नाम बदल कर लड़के के परिवार नाम पर रख दिया जाता है। जो बताता है कि लड़की कोई भी हो चलेगी। उसके कोई गुण नर बालक में नहीं आते।
मेडिकल साइंस के अनुसार भी नर बालक में पिता के गुण ही प्रभावी होते हैं। इसी तरह मादा बच्चे में भी सिर्फ माँ के ही गुण प्रभावी होते हैं। अतः यदि कोई ब्राह्मण यदि किसी बहुजन या किसी भी अन्य वंश की स्त्री से विवाह कर ले तो उसका वंश ब्राह्मण ही कहलायेगा।
कपोल कल्पित वाल्मीकि रामायण के रचयिता रत्नाकर थे जो कि ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि प्रचेता और माँ चार्शिणी (वर्ण अज्ञात) के पुत्र थे। अतः ये भी ब्राह्मण थे। इनका नाम बाद में वाल्मीकि पड़ गया था।
अब आते हैं रावण के वर्ण और राष्ट्रीयता पर। पुस्तक के अनुसार रावण सीलोन नामक देश में रहता था जिसे आज श्री लंका कहा जाता है। यह एक दूसरा देश है जो भारत से बिल्कुल अलग थलग है। अतः रावण विदेशी था। रावण के पिता ब्राह्मण ऋषि विश्रवा और माता का नाम राक्षसी कैकसी था। अतः उपर्युक्त विवेचनानुसार रावण भी ब्राह्मण था। इतिसिद्धम! ~ Shubhanshu 2019©
ऑनलाइन तो मत डरो ~ Shubhanshu
हम सब असल जीवन में उपनाम छुपा सकते हैं क्योंकि आप किसी जातिवादी के कंट्रोल में हो सकते हैं लेकिन फेसबुक पर उपनाम छुपाने का मतलब है कि आपकी इतनी ज्यादा फटी पड़ी है, जातिवादियों से कि जैसे फेसबुक पर भी वो आपको थप्पड़ लगा देंगे या लाठी से कूट देंगे।
जो मूर्ख आपको ऐसी नाम बदलने की सलाह दे रहा है वो वाकई में फटीचर ही होगा दिमाग से। जिसकी किसी जातिवादी ने नाम पूछ के ले ली खबर। ऐसे फटीचरो से सलाह न लें। अपना नाम जो है वही रखें। अपनी पहचान बनाइये और नाम कमाइए। आखिर इंसान जीता किस लिए है? सम्मान के लिये। जो भी नाम पर उंगली उठाये उस की गेंद में पूरा बाँस डाल दीजिये। ब्लॉक कर दीजिये। ख़त्म हुआ। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©
रविवार, अक्टूबर 13, 2019
अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu
जय भीम न बोलने पर पुजारी के हाथ तोड़े, जान से मारने का प्रयास किया, ठाकुर कालोनी में जय भीम न बोलने वालों को जान से मारने की धमकी वाले पर्चे डाले गए, यदि ये सब धार्मिक कट्टरता नहीं है तो क्या है?
जब हम इस तरह के मुद्दे उठाते हैं तो हमें हमारे नाम में सिंह चौहान देख कर जातिवाद किया जाता है जो कि ढोंगी दलितों की असलियत सामने लाता है। अनुसूचित जाति का होने पर भी मुझे ठाकुरों के साथ पढ़ाई के लिये रहना था। अतः पापा ने बचपन में ही मेरे नाम में सिंह चौहान जोड़ दिया ताकि मैं सवर्णों की कट्टरता का शिकार न बनूँ।
जब नास्तिकों के साथ जुड़ा तो इधर भी वैसा ही कट्टरपंथ दिखा। अब जो नाम मुझे सवर्ण कट्टरपंथियों से बचाता था, वही मुझे दलित कट्टरपंथियों से पिटवाने लगा। दोनो में कोई फर्क नहीं था। फेसबुक पर सुदेश, जितेंद्र और भी बहुत से इन जैसे लोग दलित कट्टरपंथी हैं, जो मेरे नाम को और मेरे निष्पक्ष होने को गलत ठहराते हैं।
मेरा पूरा नाम मुझे घटिया सोच वाले नकली नास्तिकों की असलियत दिखाता है जो सम्भवतः किसी नास्तिक समझें जाने वाले धर्म से भी जुड़े हैं। भीम चरित मानस भीम धर्म के लिये तैयार है, भीम कथा की पर्ची कटने लगी हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार चरम पर है। अब अगर मैं इनके साथ खड़ा हुआ तो मैं फिर वहीं जाता दिखता हूँ जहाँ से चल कर आया था।
इसीलिये कृपया कट्टरता कौन कर रहा है ये देखिये। किसी व्यक्ति की जय बोलना सबका निजी मत है, लेकिन उसे दूसरे से बुलवाने का कार्य कट्टरता है। तानाशाही है। वैसे ही जैसे जय श्री राम न बोलने पर धार्मिक भीड़ द्वारा मारपीट।
मैं उसी कट्टरता का सही आकलन करता हूँ जो वास्तविक होती है, और जो समस्या वास्तविक है उसी से खतरा है।
जय भीम बोलो, वरना मरो जैसे पर्चे बाँट कर दलित संगठन उसी तरह से मुकर गए जिस तरह हिन्दू संगठनों ने अपने कार्य (गांधी हत्या) करे और बाद में मुकर गये।
कीचड़ से कीचड़ धोकर क्या मिलेगा? कीचड़ ही न? बेहतर होता भीम चरित मानस और भीम कथा/भजन की जगह संविधान में अपने अधिकारों और कर्तव्यों को सिखाया जाता। बेहतर होता जो हर दलित अपनी आरक्षण और शिक्षा के अधिकार का फायदा उठा कर सरकारी वकील बनता।
आज बाबा साहेब जैसे कितने वकील हैं? शायद ही कोई हो। मैं वकील न बन सका, मेरी मजबूरी थी लेकिन क्या आप सब भी मजबूर हैं? सोचो इससे पहले कि बहुत देर हो जाये!
PS: जयभीम, नमो बुद्धाय नहीं रटो, वो तो थे, जो भी थे, अब नहीं हैं। उनसे सीखो, लेकिन अपनी राह सिर्फ खुद बनाओ, याद रखो बुद्ध की एक मात्र शिक्षा: अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©
संदर्भ:
विवाहमुक्ति, यौनशिक्षा और बलात्कार ~ Shubhanshu
लिंगानुपात विपरीत हो जाये तो स्थिति बदलेगी ही। लेकिन ऐसा सिर्फ लड़की पैदा करके नहीं होना। उसके माता-पिता द्वारा लड़कों जैसा पालनपोषण भी होना चाहिए। अभी तो लड़कियां एक तरह से मजबूरी समझ कर पैदा की जा रही हैं लड़के की प्रतीक्षा में।
संख्या कोई तब तक नहीं बढ़ाएगा जब तक विवाह लड़की का सौदा जैसा रहेगा। कोई लड़को जैसी आशा रखे लड़की से, तभी कुछ सुधार आ सकता है, उनकी हालत में। इसके लिए लड़कियों को उच्च शिक्षा देना कारगर होगा। जो कि माता-पिता चाहते नहीं।
और हाँ, रेप को लेकर में आश्वस्त नहीं हूँ कि कोई लाभ लिंगानुपात बढ़ने से वास्तव मे हो सकता है। रेप करने के पीछे सामान्य कारण है लड़कियों का सामान्य लड़कों से नफरत करना। बाकी कारण उसके बाद शुरू होते हैं। लड़कियाँ सेक्स को लेकर इतनी डरी हुई है कि साधारण प्रेम भी बलात्कार में बदल जाता है।
वे चाहते हुए भी सेक्स को हाँ नहीं कहती और करना भी चाहती हैं। इसीलिए प्रचलित है कि लड़कियों की न में उनकी हाँ होती है, जबकि मैं कहता हूँ कि लड़कियों की हाँ में ही उनकी न भी होती है। बस लड़के कभी समझ नहीं पाते।
कारण है उनके भीतर सेक्स के प्रति भरा डर और जिस घर में हम रहते हैं उससे निकाले जाने, पीटे-मारे जाने का डर। प्रेगनेंसी का डर तो दरअसल इन सबकी शुरुआत होती है। अन्य कारण है वीडियो/फ़ोटो द्वारा बदनाम होना, विवाह न हो पाना। जबकि विवाह जैसी व्यवस्था खत्म कर देने से बदनामी शब्द समाप्त हो जाता है और सेक्स शिक्षा देने से सेक्स से डर भी निकल जाता है। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©
बुधवार, अक्टूबर 09, 2019
मेरे अनसुलझे रहस्य : अनोखे सपने ~ Shubhanshu
स्वप्न में अगर वो हो रहा है जो आप हकीकत में कर नहीं पाते तो सपना कभी खत्म न हो ये मन करता है और अगर बुरा सपना आये तो लगता है कि आते ही टूट क्यों नहीं गया?
मैं उन दुर्लभतम इंसानो में से एक हूँ जिसको कुछ अलग सा बनाने में उनके अनसुलझे रहस्य वाले स्वप्नों का बड़ा हाथ है। मेरा पहला लेखन कार्य एक ऐसे सपने को लिखना था जो कि कहीं स्थित पौराणिक मंदिर में छिपे खजाने तक जाने का रास्ता सुझाता है। (कहानी: रहस्यमय खजाने की खोज)
मैं कभी नहीं समझ सका कि इन सपनो को कोई मस्तिष्क कैसे बना सकता है? मेरे स्वप्न पूर्व आधारित जानकारी पर आधारित नहीं होते, वे मुझे नई जानकारी देते हैं। ये अभी तक के विज्ञान के अनुसार असम्भव है।
मैंने एक फ़िल्म देखी थी इन्सेप्शन। उसमें किसी रसायन द्वारा स्वप्न को प्रोग्राम करने, उसमें कई स्टेज पर जाने का सफलतापूर्वक परीक्षण करके दिखाया गया था। मैं जानता था कि ये कल्पना है लेकिन अवश्य ही ये किसी वास्तविक तर्क, अध्धय्यन, प्रयोगों पर आधारित होगा। उसी को बढ़ा-चढ़ा कर ये फ़िल्म बनी होगी।
मैंने ज्यादा खोजबीन नहीं की। लेकिन मुझे कुछ ऐसे स्वप्न आये थे जो कि 2 से 3 स्तर तक मुझे ले गए। मैने उनको लिख लिया है। मेरे स्वप्न आम नहीं, इनको बचपन से न जाने कितने ही लोगों को सुना-सुना कर देख चुका। स्वप्न इतनी जानकारी भरे होते थे कि उन पर आसानी से कहानी लिखी जा सकती हैं। मेरे 90% कहानियों को मेरे सपनो ने लिखा है और उनकी विचित्रता आप लोग उन कथाओं को पढ़ने के बाद ही समझ सकेंगे।
मेरे सपनों ने मेरी होने वाली सभी सम्भव हत्याओं और दुर्घटनाओं द्वारा मृत्यु को दिखाया है। भविष्य और भी दिखायेगा या नहीं या वाकई इनमें से कोई मेरी मौत की वजह बनेगा या मैं भविष्य देख कर सावधान हो गया हूँ और अपनी तमाम मौत की आहटों को टाल गया हूँ? अब इस पर तो हम कोई राय नहीं दे सकते।
तर्कवादी होने के कारण जहाँ तक हो सकता है, तर्क लगा रहा हूँ लेकिन मैं इस मामले में फेल हो गया। ये सपने मेरे लिये मेरे हमसफ़र, साथी और मेरे रक्षक हैं। नहीं जानता कि इनका राज़ क्या है और खुशी इस बात की है कि यही मेरे सच्चे माँ-बाप हैं। बहुत कुछ लिखूंगा अपनी किताब में अगर कभी लिखी तो। बहुत दिनों से बहुत से सपनो को miss कर दिया। काफी अफ़सोस होता है कि मैं न उनको याद रख सका और न आपको उनका परिचय करवा सका। मुझे माफ़ कर देना। ये सपने आप सबकी धरोहर हैं।
क्या पता? कल इनका दुनिया में कोई सदुपयोग हो सके? या कोई नया राज़ खुले मानव मस्तिष्क की सीमाओं का। ~ मैं हूँ आपका वही दोस्त, Shubhanshu Dharmamukt 2091©
मंगलवार, अक्टूबर 08, 2019
Over qualifieds and unqualifieds are equals ~ Shubhanshu
शुभ: इससे पहले आप मुझे कुछ कहें मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ, कम पढ़े लिखे को भगाने का तो लॉजिक बनता है लेकिन ये ज्यादा पढ़े लिखे को रिजेक्ट करने का क्या लँगड है sir?
बॉस: देखो बेटे, बॉस का काम है नौकर से गुलामी करवाना। नौकर गुलामी तब करेगा जब मालिक से कम सम्मान प्राप्त होगा। मैं आपको नौकरी पर रख भी लूँ तो आपसे कुत्ते की तरह काम नहीं ले सकता। आप मेरे को ही सबके सामने ताना मार दोगे कि साला 2 कौड़ी का आदमी मुझे सिखा रहा है? इससे मेरी साख गिर जाएगी और आपको भी पेमेंट नहीं मिलेगा। हो सकता है, धक्के और दिए जाएं। इसलिये कोई भी मालिक जो आपसे कम योग्य होगा आपको रखने का रिस्क नहीं लेगा।
शुभ: ये बात है। लेकिन अगर मैं हर जायज बात मानने का लिखित आश्वासन दे दूँ तो?
बॉस: मैं रख भी लूँ ऐसा करके और आप पर इच्छाशक्ति हो खुद पर काबू रखने की तो भी आप जल्दी ही आपकी उच्च योग्यता से मेरी जगह ले लोगे और हो सकता है मेरे से ऊपर की भी। मेरे बीवी-बच्चों ने वैसे ही जीना हराम कर रखा है और अगर मेरी जॉब चली गई, जो कि जाएगी ही मुझे लग रहा है तो मैं आपको अपनी मरवाने के लिए क्यों रखूंगा? खुद सोचिये! आप काहे नौकरी के चक्कर में पड़े हैं? आप का नॉलेज मैंने इंटरव्यू में देखा, आप तो किसी प्रोपर्टी अगर हो तो उसपे लोन लेकर अपनी खुद की कम्पनी खड़ी करें। आप employer material हो; employee material बिल्कुल भी नहीं। यहाँ से जाकर मेरी सलाह पर गौर करना। नहीं तो बेकार में परेशान होंगे।
शुभ: Thanks for guidance! समझ नहीं आ रहा कि जो गणित मैंने लगाई थी आपने एकदम अक्षरशः उसको वैसा ही बताया। ये सच है कि मैं आपकी सीट पक्का लपेट लेता। मुझे भी आपकी एक एक खामी दिख रही है। अगर मैं join करता तो सबसे पहले आप ही को कमियां बता-बता कर hopeless कर देता। आपने सही कहा कि मैं नौकरी करने के लिये नहीं बना। देने के लिए बना हूँ। लेकिन उसमें चैलेंज नहीं है। फिर वहीं अटक के रह जाऊंगा। इससे तो अच्छा जैसा हूँ वैसे ही ठीक है। अपनी FD से अच्छी खासी इनकम आ रही है और खेत भी बटाई पर लगे हुए हैं। तो अपना काम तो चलते ही रहना है।
शनिवार, अक्टूबर 05, 2019
राज़ कुमार/कुमारी का ~ Shubhanshu
समाज के गुप्त रहने वाले घृणित ज़हरबुझे सत्य को सबके सामने लाने और देश को एक आधुनिक और स्वस्थ खुली सोच का बनाने की कड़ी में एक बार पुनः आपका स्वागत है।
आज हम चर्चा करेंगे, नाम के आगे/पीछे लगाए जाने वाले लिंगभेदी शब्द कुमार/कुमारी पर।
कभी-कभी दूरदर्शी सोच की कमी के कारण बड़े-बड़े विद्वान भी इस तरह की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते लेकिन ये सब पाखण्ड कभी बिना मकसद के नहीं होते। इनका मकसद क्या है? क्यों ये शब्द लोगों के नाम में डाला जाता है इसका राज़ आज मैं आपको बताने जा रहा हूँ।
दोस्तों, जैसे कि आप जानते ही होंगे कि कुमार शब्द हिंदी के कुंवारा से बना है जो राजस्थान में कुंवर बन गया और फिर उधर से शेष भारत में ये कुमार में बदल गया।
राजाओं के खानदान में वंश परंपरा का बहुत महत्व होता है। राजा का खून ही राजा बनेगा, यही नियम है। ऐसा आनुवंशिक कारणों से समझा जाता है जबकि ये कारण प्रभावी और अप्रभावी वर्ग में बंटे होने के कारण राजाओं के बेटे हमेशा राजा जैसे या उससे बढ़ कर नहीं भी निकलते बल्कि मंदबुद्धि भी निकल जाते हैं। भाई-बहन से जन्मा बच्चा ही राजा का वंशज हो सकता है। दूसरे वंश से आई स्त्री अपना 50% खून (लक्षण) बच्चे में मिलाती है। जो कि अर्ध वंशज ही होता है दोनो का। अतः वंश परंपरा ज्यादा महत्व नहीं रखती। क्योंकि वास्तविक बुद्धिमान शिशु के लिए दोनो सेक्स पार्टनर को जन्म से ही बुद्धिमान होना होगा। तब भी कुछ प्रतिशत मामलों में परिणाम विपरीत निकल सकते हैं। अतः वंशवाद के जाल से निकलें। ये बंधन है।
(लुहार का बेटा/बेटी लुहार, डॉक्टर का बेटा/बेटी डॉक्टर, वकील का बेटा/बेटी सदा वकील ही नहीं बन सकते। उनकी अपनी मर्जी होती है कि वे जो मर्जी हो वो बनें।)
इसी के चलते, वे अपने बेटों और बेटियों के नाम में कुमार (राजकुँवर/राजकुमार और राजकुमारी लिखते/बुलाते थे। इसका अर्थ है कि राजा के वारिस और बेटी की अभी शादी नहीं हुई। अतः प्रजा अगले राजा (नर शिशु) के लिए व्याकुल न हो।
विवाह के दौरान नया वंशज लाने की प्रक्रिया शुरू हो गई, ये दिखाने हेतु प्रजा को भोज पर बुलाया जाता है और वधु को उसका पिता दहेज देता है। इससे वह अपने समृद्ध होने को दर्शाता है। जबकि यही परंपरा आज गले की फांस बन चुकी है। इसे रोकने के लिए कानून तक बने लेकिन लोग ही नहीं चाहते कि ये गन्दगी समाज से जाए, इसलिये वे रिपोर्ट न करके इसके परिणामस्वरूप कष्ट भोगते हैं।
विवाह के उपरांत राजकुमार का नाम बदल कर राजा और वधु का नाम राजकुमारी से रानी कर दिया जाता है। इसका मतलब है कि अब दोनो कुंवारे नहीं रहे। उनके सेक्स अंग अब अगले राजा को पैदा करने के लिए प्रयोग (used) हो गए।
अब जब समय बदला तो जनता भी खुद को राजा समझने लगी। देखा देखी में उनको लगता कि ये तो वो भी कर सकते हैं, करने लग गए। न सिर्फ विवाह की परंपरा अपनाई बल्कि नाम के आगे भी कुमार/कुमारी लिखने लग गए। लेकिन ये सिर्फ देखा-देखी नहीं था। पूर्वज जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं।
समाज में होने वाले प्रत्येक पाखण्ड का एक घृणित मतलब होता है। और वह है इंसान को गुलाम बनाने के लिये मानसिक बेड़ियां पहनाना। ऐसे ही नहीं सब लोग एक सा सोचने लगे। इसके पीछे पीढ़ियों का षडयंत्र है।
सोचो, अगर लड़की नाम के आगे/पीछे कुमारी लगाती है तो क्या उसे कुमारी का मतलब नहीं पता? बचपन में ही बता दिया जाता है कि जिसका विवाह नहीं हुआ वह कुंवारा/कुंवारी। यह इस विश्वास के साथ बताया जाता है कि वे कभी विवाह से पूर्व किसी को भी अपना कुंवारापन खोने नहीं देंगे। इसीलिए 25 वर्षीय ब्रह्मचर्य आश्रम बना जो कि भारतीय संस्कृति में मौजूद बाकी 3 आश्रमो; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में से पहला है।
ब्रह्मचर्य मतलब, ब्रह्म का आचरण। ब्रह्म मतलब ब्राह्मी लिपि पढ़ने का आचरण। सभी वेद और ग्रँथ इसी लिपि में लिखे गए थे। विद्या ग्रहण करने का कार्य करने का समय 25 वर्ष। इस दौरान सेक्स करना अपराध है, कारण था उससे उतपन्न शिशु को संभालने के कारण विद्या हासिल न कर पाना।
इसके तुरन्त बाद व्यवस्था विवाह करवाया जाता है जो कि ऐसा है जैसे होटल में लेट कर खाना आर्डर करना। इसीलिए मातापिता लड़की से लेकर दहेज, प्रीतिभोज आदि, सबकी व्यवस्था करते हैं। लड़के को बस रात में दूध पीकर सेक्स (मेरिटल रेप) के मजे लेने हैं। लड़की को जल्द से जल्द बच्चों को पैदा करना है। इस सब में जो खर्च हो रहा, लड़के को सिर्फ उसका इंतज़ाम करना है। यही कुल कार्य है जो मातापिता अपनी सम्पत्ति के हस्तांतरण के लिए, इच्छा रहित बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ करके करते हैं।
लेकिन आजकल ऐसा नहीं हो सकता। अशिक्षा, गरीबी में आपकी सोच/इच्छाशक्ति दब जाती है। कंडोम, pull out, IUV, नसबंदी, ipill, माला डी, मेरी सहेली, डिम्पा इंजेक्शन आदि विधियों से बच्चा होने पर अंकुश लगाया जाने लगा है। अतः अब खुल कर सेक्स किया जा सकता है बिना किसी बच्चे की चिंता किये।
सामान्यतः 10 वर्ष की आयु में इंसान का दिमाग 100% विकसित हो जाता है। बस इसमें ज्ञान की कमी रह जाती है। 10 वर्ष की आयु से ही इंसान में सेक्स के प्रति आकर्षण बढ़ने लगता है लेकिन कपड़ों के कारण वह तुरन्त जाग्रत नहीं हो पाता। इसी आयु के करीब लड़कियों में भी माहवारी शुरू हो जाती है। अतः प्रकृति के अनुसार वह अपनी आयु के बालक के साथ सेक्स कर सकती हैं, अधिक आयु के साथी के साथ नहीं क्योंकि अधिक आयु में यौनांगों का आकार बढ़ता है।
लेकिन ऐसा इसलिये करना उचित नहीं है क्योकि प्रथम तो बच्चा होगा नहीं क्योंकि लड़के में कम उम्र में शुक्राणुओं की भारी कमी होती है और अगर बच्चा हो भी गया तो वे दोनों उसे न तो पाल सकेंगे और न ही लड़की नार्मल डिलीवरी कर सकेगी क्योंकि पेल्विक बोन छोटी होने के कारण सम्भवतः बच्चा मर सकता है और उसके गर्भाशय में पड़े रहने से इन्फेक्शन भी हो सकता है।
(वैसे भी डेयरी को अच्छा बता कर कुछ डॉक्टरों ने लड़कियों को कुपोषित कर दिया है। डेयरी वाला विटामिन अधिक मात्रा में जाकर पहले वाला भी निकाल देता है। शरीर जब भी कुछ अधिक मात्रा में पाता है तो उसे निकाल देता है और साथ ही बनाना भी बन्द कर देता है। अतः डेयरी प्रोडक्ट से उल्टी क्रिया होती है और अस्थिभंगुरता उतपन्न हो जाती है। भारतीय 100% लड़कियों में आयरन और कैल्शियम की कमी पाई जाती है जो कि हर समय कपड़ों में लिपटे रहने के कारण सूर्य के प्रकाश से मिलने वाले विटामिन D की कमी से होता है।
कैल्शियम तो पानी में भरपूर होता है, उसी से तो व्हेल का कंकाल, मछली का अस्थि पंजर और शंख/सीप का खोल बनता है बस शरीर इसे विटामिन D के होने पर ही सोखेगा जो कि सूर्य प्रकाश से आसानी से सम्भव है। एक बार 10 मिनट के लिए नँगे होकर धूप सेंकना कई महीनों तक के लिए विटामिन D बना देता है। विदेश में इसीलिये भी लोग धूप सेंकते हैं। साथ ही स्किन कैंसर से बचने के लिए भी धूप ज़रूरी है।)
कंडोम भी बच्चों के लिंग के आकार के नहीं आते और बाकी गर्भनिरोधक दवा का कम उम्र में इस्तेमाल का क्या लाभ/नुकसान हैं, मुझे ज्ञात नहीं। भारत में बहुत समय तक 11 साल की लड़कीं से वयस्क पुरूष सेक्स करता आया है जो कि बड़े आकार के लिंग को छोटी योनी में डालने के कारण उसे गम्भीर रूप से फाड़ कर घायल कर सकता है। कई मौतें होने के बाद तय हुआ कि 12-14 वर्ष (मतभेद) से कम आयु की लड़की का विवाह अपराध है। बाद में इसमें भी समस्या आने पर इसे बढ़ा कर 15 वर्ष कर दिया गया।
मतलब ये है कि 15 वर्ष की आयु में लड़की बच्चा पैदा करने योग्य मानी जाती है कानूनन। अब हुआ ये कि पढ़ाई करने की आयु से पहले ही बच्चा हो जाये तो लड़की पढ़ाई कैसे करेगी? इसलिये इसे बढ़ा कर 16 किया गया। फिर इस पर आरोप लगे कि सिर्फ 10th तक की पढ़ाई करवा कर लड़की की पढ़ाई छुड़ाई जाने लगी। तब इसे बढ़ा कर 18 कर दिया गया। यानी 12th पास होते ही विवाह। लड़के की आयु 21 वर्ष रखी ताकि वह स्नातक भी कर ले। साथ ही समाज की सोच कि लड़की की उम्र कम होनी चाहिए लड़के से, इसका भी तुष्टिकरण (वोटों की व्यवस्था) हो जाये।
अब जब जनता की आदत पड़ी है 10 से 14 साल की उम्र में सम्भोग करने की तो कानून क्या कर लेगा? लेकिन संस्कार नाम के कानून अपना काम करते हैं। विवाह से पहले सेक्स नहीं करना है ये सोच इतना डरा कर भर दी जाती है कि लड़की बलात्कारी से भी विवाह को राजी हो जाती है। उसे सिर्फ यही डर शेष रह जाता है कि अब उसकी शादी कहीं नहीं होगी।
अब जैसे हर बात के कई side effects होते हैं, इसका भी हुआ। अब कोई भी विवाह का वादा (झांसा) देकर महिला को उसके संस्कारो से मुक्ति दिला सकता है। जबकि विवाह जैसा कुछ न होता तो लड़की अपनी मर्जी से ही किसी से सेक्स करती। जीवन भर आवास, भोजन और सेक्स का विवाह रूपी ऑफर कुबूल करके वो सेक्स करे तो ये सिर्फ लालच है। इसी को फुसलाना कहा जाता है। संविधान में यह अपराध घोषित है।
अपना मतलब निकल जाने पर छोड़ दीजिए और वो किसी से नहीं कहेगी क्योंकि फिर उसकी दूसरी जगह शादी नहीं होगी। विवाह के कॉन्सेप्ट से लड़कियों का शोषण, date rape, धोखा करना बेहद आसान हो गया है। जबकि ये न हो तब देखो, कैसे लड़कियों को फुसलाना असम्भव हो जाता है। वह तब केवल अपनी मर्जी से ही सेक्स करेगी। शोषण समाप्त। कोई जबरदस्ती करे तो सीधा पुलिस में रिपोर्ट करेगी क्योकि उसे लाज-शर्म का कोई डर नहीं होगा और न ही 'शादी नहीं होगी तो क्या होगा?', इस बात का रोना-पीटना।
लेकिन इच्छाशक्ति विहीन समाज का निर्माण किया जा चुका है। नाम के आगे कुमारी लगाए घूमने वाली लड़की इस sexual status को माथे पर चिपका कर घूमती है कि उसने आज तक सम्भोग नहीं किया। इसे वो गर्व का विषय मानती है। सीधे विवाह के बाद ही ये स्टेटस हटेगा और इसकी जगह श्रीमति लग जायेगा। जबकि पुरुषों का क्या? जो नाम में श्रीमान और कुमार लगाये घूम रहे?
बलात्कारी सँस्कृति वाला समाज इस तरफ ध्यान नहीं देता। पुरुष इस स्टेटस को विवाह के बाद भी लगाए रखते हैं ताकि किसी कुमारी लगाये हुई लड़की को विवाह का झांसा दे सकें। उनके नाम के आगे लगा श्रीमान बचपन से लेकर मृत्यु तक नहीं हटता जबकि महिला पहले कुमारी और फिर श्रीमती बना दी जाती है।
अब सवाल उठता है कि क्या कुंवारा पन जांचा जा सकता है? कुछ लोगों को लगता है कि हाँ, परन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि जांचने की विधि 100% कार्य करनी चाहिए तभी उसे जांचने की विधि कह सकते हैं। जैसे, कैंसर जांचने की विधि सोनोग्राफी/मेमोग्राफी साफ बताएंगी कि कैंसर है या नहीं है। जबकि कौमार्य परीक्षण सिर्फ महिला के लिये होता है। मैने कई कम उम्र (10 से 17 वर्ष) की लड़कियों से बात की कि वे अपने कौमार्य की जांच करें। 10 में से 9 ने नकारात्मक जवाब दिए। इसका मतलब, क्या वे उस उम्र में सेक्स कर चुकी थीं? संभव नहीं। अगर सम्भव भी मान लें तो फिर आप ये मान लो कि 10-17 वर्ष की आयु के आते 90% लडकिया सेक्स कर चुकी होती हैं। जो कि आपने मान लिया, जबकि सत्य कुछ और है।
अब गौर करते हैं कि कौमार्य है क्या? कौमार्य दरअसल त्वचा का बना एक रिंग होता है। कभी-कभी ये जालीदार भी हो सकता है। ये एक अवरोध है बड़े लिंग के लिये। छेद छोटा करने का उद्देश्य जैसे, हमउम्र बच्चे के पतले लिंग के प्रवेश के लिये अधिक घर्षण पैदा करना हो सकता है। दुर्लभ जालीदार कौमार्य एक आनुवंशिक गलती हो सकती है, अतः उसे अनदेखा करना ही उचित रहेगा।
आयु के साथ ये छल्ला घटता जाता है और 15-18 वर्ष की आयु तक समाप्त होने लगता है। कुछ में हार्मोनल असंतुलन/आनुवंशिकता के कारण 18 से अधिक आयु तक भी रह सकता है। अतः हम सभी लड़कियों के कुंआरी होने का दावा कौमार्य फटे होने/अनुपस्थित होने पर नहीं कर सकते। फटने के लिए व्यायाम, साइकिल चलाना, दौड़ना, penetrative masturbations आदि ज़िम्मेदार हो सकते हैं। तब? हम सब जानते हैं कि हस्तमैथुन को विवाह/सेक्स करना नहीं कह सकते।
100% जाँच सफल न होने के कारण कौमार्य को कुंवारे होने का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता।
अब आते हैं पुरुष के कौमार्य के ऊपर, शिश्न (penis) के पिछले हिस्से में एक लकीर शिश्नमुंड के छिद्र से जुड़ी होती है। जब लिंगमुंड पर चढ़ी उप त्वचा को पीछे खींचा जाता है तो ये भी खिंच जाती है और इसमें फटास आ जाती है। यह भी शिश्न के मैल को साफ करने के दौरान कई बार टूट जाती है। हस्तमैथुन भी ज्यादा जोर से करने पर ये टूट जाती है और कई बार ये उपत्वचा के शिश्नमुंड के किनारों से चिपके होने पर भी बल पूर्वक उतारने में भी टूट जाती है। कम चिकनाई के सम्भोग से भी ये टूट सकती है और अधिक चिकनाई के सम्भोग से ये बिना छतिग्रस्त हुए भी रह सकती है।
अतः ये भी लड़के के कुंवारे होने का प्रमाणपत्र नहीं हो सकती। अब जब हम जान चुके हैं कि कुंवारे होने का कोई प्रमाण सम्भव नहीं है तो फिर इसे अनदेखा करना चाहिए। आप सेक्स करे हुए हों तो भी आप कह सकते हैं कि ये किसी और कारण से हुआ होगा।
अगर आप सोचते हैं कि पहले सेक्स के बाद किसी अन्य से सेक्स करने पर उसे पता चल जाएगा तो वह आपके डर से ही से ही सम्भव है, कौमार्य/लकीर टूटने से नहीं।
अब आते हैं उनके ऊपर जो कौमार्य/लकीर की मांग करते हैं। ये वे लोग हैं जो अपने साथी को दर्द से तड़पता हुआ और खून से लथपथ देखना चाहते हैं। खुद के कुंवारे होने का प्रमाण नहीं और दूसरे से सर्टिफिकेट चाहिए। अगर कोई पहले से सेक्स करा हुआ है तो क्या हो गया? अब तो वह आपके साथ है। मैं तो कहता हूं कि गर्भवती भी हो कोई तो क्या हो गया? अपने ही खून का बच्चा पैदा करना ही क्यों है? ऊपर ये बात समझाई गयी है कि आप सिर्फ 50% खून अपने बच्चे में डाल सकते हैं यदि आप सगे भाई-बहन नहीं हैं। जबकि उधर अनाथालय में बच्चे अपने लिए माँ-बाप की राह देख रहे। आप कितने खुदगर्ज हैं इस बात से पता चलता है, न कि सिर्फ अपना ख्याल रखने से। अपना ख्याल रखना तो हम सबसे कहते हैं लेकिन "अपने ही खून का बच्चा पैदा करना" ये किसी से नहीं कहते।
तो खुदगर्जी से निकलिये। कुँवारे पन का ढोंग बन्द कीजिये। पश्चिमी देश कुँवारे होने को असफलता की निशानी मानते हैं। इसका मतलब है कि आप को अब तक कोई सेक्स साथी नहीं मिला। आप में आकर्षण नहीं है या आप रूढ़िवादी हैं। मजे लेने की कोई उम्र नहीं होती। जितनी जल्दी आप इसे ले सकते हैं, सुरक्षित रहकर, उतना अच्छा है आपके स्वास्थ्य के लिए, क्योंकि इच्छा तो होती ही है। उसे दबाना मतलब दिमाग को खराब करना।
जिनकी ये इच्छा पूरी नहीं होती और जिनको खुद पर कंट्रोल कम होता है वे अक्सर मानसिक रूप से बीमार हो जाते हैं। अधिकतर मानसिक रोगी सेक्स के न मिल पाने के कारण मानसिक रोगी बने हैं। सबसे पहला आधुनिक masturbatory system चिकित्सकों ने ही बनाया था। हिस्टीरिया के मरीजों का इलाज करने के लिए। इस हिस्टीरिया की पहचान वही है जो हमारे देश में "माता आने" पर लड़कियों में दिखती है। उनको सेक्स की बहुत आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति न होने पर जिस प्रकार हाथी "मस्त/पागल" हो जाते हैं, वैसे ही इंसान भी हो जाते हैं।
विदेशों में इसके लिए ब्रोथल (एक तरह के वेश्यालय) बने हैं। जहाँ मातापिता खुद अपने लड़कों को सेक्स करवाने के लिए वहाँ ले जाते हैं। लड़कों को सेक्स समय पर न मिलने के कारण उनमें गुस्सा, नफरत, वहशीपन और पढ़ाई में मन न लगने जैसी समस्या हो जाती हैं। पुरूषों द्वारा भीभत्स बलात्कार करना भी इसी कारण से सम्भव हुआ है।
मैंने कक्षा 8 से मानसिक तनाव होने पर हस्तमैथुन करना शुरू किया और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ जबकि उससे पहले हर वर्ष फेल होकर supplementary exam और सिफारिश से पास होता रहा। मेरे सहपाठी काफी समय से करते थे और पढ़ाई में भी अच्छे थे। आज तरह-तरह के male और female masturbators उपलब्ध हैं। male/female सिलिकॉन सेक्स डॉल भी उपलब्ध है। जो आपको सेक्स साथी के जैसा एहसास दे सकते हैं।
अतः सेक्स, मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसीलिए पुराने समय में और आज भी बाल विवाह करवाये जाते हैं। जो कि बच्चा पैदा करने के कारण आज के समय में जीवन बर्बादी की ओर धकेल देते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि उनको हस्तमैथुन/सुरक्षित सम्भोग की जानकारी (sex education) देकर पढ़ाई में उनका मन लगवाना चाहिए। सर्वे बताते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा पोर्न महिलाओं द्वारा देखा जाता है। सोचिये कि वे कितना हस्तमैथुन करती होंगी? पुरुष तो करता ही है।
आपने देखा कि
1. कुंवारापन किसी विधि से 100% नहीं जांचा जा सकता है।
2. कुंवारे होने की मांग करने वाले घटिया रूढ़िवादी लोग हैं।
3. वंशवादी/रूढ़िवादी लोग मूर्ख और घटिया हैं क्योकि बिना एकदम करीबी रक्तसम्बन्धी से बच्चा पैदा किये बिना ये सम्भव ही नहीं। साथ ही incest (रक्त सम्बन्धों में सम्भोग) को भी ये लोग पाप मानते हैं। तो ये सम्भव ही नहीं।
4. सेक्स/हस्तमैथुन शरीर और मस्तिष्क के लिये बेहद ज़रूरी है।
5. नाम में कुमार और कुमारी लगाना उन्हीं घटिया लोगों को तुष्ट करना है क्योंकि हमारा sexual status कभी भी बदल सकता है लेकिन नाम नहीं। (हालांकि हम शपथपत्र देकर अपना नाम कभी भी बदल सकते हैं, लेकिन ये सुविधाजनक नहीं है।)
एक और बात, जो अपना बच्चा पैदा करना चाहते हैं, उनको अपनी बुद्धि से अधिक बुद्धि वाले से बच्चा पैदा करना चाहिए तभी उनकी अगली पीढ़ी पहले के मुकाबले अधिक सुधर सकती है। अतः वह साथी किसी भी जाति/धर्म/गोत्र का हो, इससे फर्क नहीं पड़ता, बस बुद्धिमान होना चाहिए। ~ Shubhanshu (VSSC) 2019© 2019/10/05 12:57
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