Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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बुधवार, अप्रैल 17, 2019

कपड़ों की जेल से आज़ादी पाइए ~ Shubhanshu

नग्नसमाज में खुली और वैज्ञानिक सोच की महिलाओं की इतनी कमी है कि जब मैंने nudism आंदोलन की नेता अमेरिकी महिला activist से यह आंदोलन भारत में करने के प्लान के बारे में राय देने को कहा तो उन्होंने कहा, 

"भारत में आप यह नहीं कर सकते। यहाँ की जनता बहुत ही पिछड़ी सोच की है और यह देश अमेरिका से 100 साल पीछे है।"

मैंने ज़िद की तो उन्होंने कहा, 

"भारत में सिर्फ स्लोगन लिख कर ही आंदोलन कर सकते हैं। कपड़े उतार कर नहीं। इसमें भी हिन्दू और इस्लामी संगठन हिंसा करके आपको दमित कर सकते हैं क्योंकि प्रकृति और सत्य को ये पाखण्डी संगठन संस्कृति का अपमान मानते हैं और हम संस्कृति को अपना। best of luck शुभाँशु।"

इस तरह मेरा प्लान पानी में डूब गया। अगर आपको लगे कि आप भी अपनी स्वतंत्रता का हनन होता पा रहे हैं और वस्त्रों के व्यापार को इंसान की दूसरी त्वचा मान कर बढ़ावा दे रहे हैं तो यही समय है जागने का क्योंकि दुनिया में सबसे पहला नग्न समुदाय भारत में बसा था और मिटा दिया गया। हमें नहीं मिटना है बल्कि मिटा देना है उन्हें जो हमें संस्कृति की कैद में रख कर आज़ाद बोलते हैं। ~ Shubhanshu SC 2019©

शनिवार, अप्रैल 13, 2019

संतान रहित लम्बा आनंदमय जीवन कैसे जियें? ~ Shubhanshu

आम जीवन में मैंने देखा है कि लोग 50-60 वर्ष की आयु आते-आते बीमार, अपंग और दयनीय हालत में पहुँच जाते हैं। जो ज्यादा बीमार नहीं होते वे इस कदर कमज़ोर और लाचार हो जाते हैं कि उनको किसी जवान व्यक्ति के हाथ पांव उधार लेने पड़ते हैं। यानि न सिर्फ वे अपनी कष्टमय ज़िन्दगी बेमतलब में जीते हैं बल्कि एक जवान व्यक्ति का जीवन भी अपने साथ बर्बाद करवा देते हैं।

मैंने बहुत गहराई से बचपन, जवानी और बुढ़ापा देखा है। देखा है कि कैसे एक बच्चा जवान हो जाना चाहता है और कैसे एक जवान वापस बच्चा हो जाना चाहता है। कमाल है कि कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता। जीवन के 3 पड़ाव में से सिर्फ 2 तक जाना चाहता हैं लेकिन तीसरे के करीब आते ही वापस लौट आना चाहता है।

दरअसल यह भी मानव स्वभाव है। जीवन क्या है? जीवन एक रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप जन्मे चेतन मन, उनसे बनी इंद्रियों द्वारा होने वाले एहसासों, मस्तिष्क में डोपामिन जैसे हार्मोनों के ज़रिए होने वाले आनन्द को अनुभव करने का नाम है। इसी के प्रतिरक्षा तंत्र में हम कष्ट और दर्द महसूस करते हैं। ये भी आवश्यक हैं लेकिन केवल बचाव के लिए। दर्द हमें नुकसान दायक कारक से बचाता है। डर हमें नुकसानदेह परिस्थितियों से बचाता है। दुःख रुदन द्वारा हमें कठिन परिस्थितियों से होने वाले निराशा जनक नर्वस ब्रेकडाउन होने से बचाता है। यह सब किसलिये?

दरअसल यह सारी सुविधाएं शरीरों में खुद की रक्षा करने हेतु होती हैं। खुद ये शरीर जब तक है, स्वस्थ है, तब तक हम लोग, लोग हैं अन्यथा ज़िंदा लाश हैं।

ज़िंदा लाश क्या होता है? ज़िंदा लाश का अर्थ है कि एक ऐसा जर्जर शरीर जो सिर्फ सांस लेता, खाता, हगता और सोता है। वह कोई भी आनन्द नहीं ले सकता। आनन्द का न ले पाना ही आपकी मृत्यु है। लेकिन यह शरीर की मृत्यु नहीं है।

विज्ञान द्वारा हम आज मरे-अधमरे शरीर को भी वेंटिलेटर पर रख कर ज़िंदा दिखा सकते हैं। क्योंकि मशीन से दिल, फेफड़े का काम लेकर कर ज़िंदा होने के लक्षण पैदा कर दिये जाते हैं। जबकि व्यक्ति तो कब का मर चुका होता है। धन का लालच आपको चिकित्सक बनवाता है तो आप व्यापार ही तो करोगे? जब धन की भूख बढ़ जाएगी तो आप धन ही तो नोचोगे!

चिकित्सालय मरों को नहीं जिया सकते। वे घायलों के घाव भरते हैं।

हम क्या हैं? हम शरीर हैं। शरीर खत्म, हम (चेतना) खत्म। शरीर का अस्वस्थ/अक्षम होना यानी आनन्द खत्म। आनंद खत्म तो फिर जीवन का क्या करना? दुःख वही सार्थक हैं जो वापस आनन्द ला सकें। रोना वही सार्थक है जो मुस्कुराहट ला सके। दर्द वही सार्थक है जो आंनद ला सके। कष्ट वही सार्थक है जो सुख ला सके।

मैंने इंसानों के पृथ्वी पर आगमन से लेकर भविष्य में उसके खात्मे तक को देखा है। मैंने देखा है कि कैसे इंसान ने आनन्द के लिये सही और गलत रास्ते अपनाए। स्वार्थ से लेकर निःस्वार्थ तक। नफरत से लेकर प्रेम तक। लालच से लेकर त्याग तक। सब के सब आंनद की तलाश में निकलते रहे। कोई राजा बन कर सुख पा गया तो कोई सन्यासी होकर सुखी हो गया।

इसी कड़ी में मैंने देखा कि शरीर को स्वस्थ रख कर हम जीवन का आनन्द लंबे समय तक ले सकते हैं। शरीर का दुरुपयोग करके हम इसे ज़ल्दी ही कष्टमय मृत्यु की ओर धकेल सकते हैं। मैंने जानवरों का गहनता से अध्ययन किया है। मैंने उनको अपनी उम्र पूरी करके शांति से मरते देखा है।

इंसान की औसत आयु 100 वर्ष मानी गई है लेकिन ऐसा लगता है कि यह भी घट-बढ़ सकती है। इंसान कुछ भी कर सकते हैं। इनमें भेड़चाल होती है। कोई अगर कुछ कर रहा है और तुरन्त बर्बाद न हुआ तो सब वही करने लगते हैं। सबकी उम्र निर्धारित है फिर भी इंसान की औसत आयु कैसे घट-बढ़ रही है?

मैंने जंतुओं की गहनता से पड़ताल की है। शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिका और अतिसूक्ष्म DNA का भी अध्ययन किया है। देखा है कि कैसे आण्विक स्तर पर शरीर कार्य करता है। कैसे शरीर में छोटा सा परजीवी जाकर उसे नष्ट कर देता है। कैसे हमारी खान-पान की खत्म हो चुकी सेंस ने हमें अभक्ष्य को भक्ष्य बना कर खुद की कार्य प्रणाली को क्षतिग्रस्त कर डाला है। कैसे दीर्घायु केवल दुआओं और आशीर्वाद में ही सीमित रह गई है। सही भी तो है, दुआ और आशीर्वाद में हम वही तो कामना करते हैं जो हो नहीं सकता या जो होना दुर्लभ होता है।

पशुओं में खुद की सेंस होती है कि क्या खाना है और क्या नहीं। भोजन ही हमारे शरीर का निर्माण करता है। हमारा भोजन जैसा होगा, वैसा ही होगा हमारा भविष्य। मैंने देखा कि एंटीऑक्सीडेंट कैसे मुक्त मूलकों को नष्ट करके कोशिकाओं को स्वस्थ बनाए रखते हैं। मैंने देखा कि शारिरिक संरचना के अनुसार भोजन करने वाले जन्तुओं का शरीर उनकी संरचना के अनुसार शरीर को चलाता है। जैसे मांसाहारी और सर्वाहारी जन्तुओं में मुक्त मूलक प्रभावी नहीं होते या वे ही उनकी आयु निर्धारित करते हैं। जबकि वनस्पति आधारित भोजन वाले जन्तुओं में मुक्त मूलक तेजी से बूढ़ा करना शुरू कर देते हैं।

इस वृद्धावस्था को रोकने के लिए वनस्पति बहुत बड़ा योगदान देती हैं। केवल वनस्पतियों में ही एंटीऑक्सीडेंट पाए जाते हैं जो कि मुक्तमूलक को नष्ट करके कोशिकाओं को स्वस्थ रखते हैं। वनस्पति आधारित भोजन वाले जंतु यदि किसी कारण वश पशुउत्पाद या मांस खाने लगते हैं तो वे न सिर्फ मुक्तमूलकों को पनाह देते हैं बल्कि bad cholesterol और कैंसरकारी तत्व भी शरीर में एकत्र करने लगते हैं। 

ये तत्व स्तन कैंसर (स्त्री/पुरुष), मुहँ, गले, खून, गर्भाशय, आंत आदि के कैंसर, अधिक कैल्शियम होने के कारण हुई विपरीत क्रिया से अस्थिभंगुरता, शरीर के विभिन्न अंगों व नसों में पथरी, मधुमेह, मोटापा, गठिया, जोड़ो का दर्द, दांतों का असमय गिरना आदि तमाम विकार, 35 वर्ष की आयु के बाद कठोर हो चुकी रक्त नलिकाओं के बन्द होने से हुए ह्रदयाघात और पक्षाघात (लकवा) के खतरे पैदा कर देते हैं। ह्रदय की अन्य समस्याओं में; छेद होना, उसकी संरचना में आनुवंशिक दोष होना आदि आते हैं जिनमें बिना कोलेस्ट्रॉल के भी मृत्यु हो सकती है।

इस तरह लंबे जीवन का राज़ जान कर मैं कुछ ऐसे आनंद के त्याग में लग गया जो आगे जाकर कष्ट को दावत देने वाले हैं। मैं अपने परिवेश में डाली गई खराब आदतों में आनंद महसूस करके जो लत लगा बैठा था उनसे जूझने लगा। बार-बार खुद को समझाया है कि खाने के लिये मत जियो। जीने के लिए खाओ। इसी कड़ी में क्या लाभदायक है और क्या नुकसानदायक? यह भी दिमाग में डाला।

भोजन में पशुउत्पाद, नशा, कैफ़ीन ऐसे कारक हैं जो लत डाल देते हैं। डेयरी का केसीन प्रोटीन एक addictive तत्व है। इसे एक बार खाने के बाद अमाशय में एक क्रिया होती है और दिमाग को तुरन्त डोपामिन छोड़ने का आदेश मिलता है। ठीक वैसे ही जैसे नशे, तंबाकू, अफीम, गांजा, भाँग आदि पदार्थो से और सेक्स से मिलता है।

इनकी लत लग जाती है। छोड़ना जैसे एक युद्ध हो जाता है, खुद से ही। कोई कितना भी समझा दे लेकिन सब जानते हुए भी मन नहीं मानता। मैं भी इन परिस्थितियों से गुजरा हूँ। अपने आप को रिहैबिलिटेशन सेंटर बना कर आज़ाद हो गया एक दिन। भोजन की कैद से।

फिर शुरू की खोज कि क्यों चिकित्सक इस खतरे को जानते हुए भी किसी को नहीं बताते। क्यों ज़हर को दवा बताने पर तुले हैं? जवाब जानने की कड़ी में मुझे एक डॉक्यूमेंट्री मिली जो 2017 में ही बनी थी। उसमें बताया गया कि डेयरी, मीट, पोल्ट्री इंडस्ट्री चिकित्सा जगत को अरबों डॉलर का भुगतान कर रही हैं इस सब के प्रचार के लिए। अब सब साफ था।

मैंने तय कर लिया था कि मुझे ज़ल्दी नहीं मरना है। मुझे कष्ट में नहीं जीना है। मुझे बुढ़ापा पीछे धकेलना ही होगा। मुझे बुढ़ापा दयनीय नहीं बनाना। इसलिये मैंने शरीर की आवश्यकता के अनुसार भोजन प्रारंभ किया और मैं आश्चर्य जनक रूप से स्वस्थ और शक्तिशाली होता चला गया। मेरी बुद्धि में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ और मैं लोगों के बीच सम्मान पाने लगा। कभी मूर्ख कहा जाने वाला शुभाँशु आज विद्वान कहा जाने लगा है। लंबे ज्ञानवर्धक लेख लिखने लगा है। अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण पा लिया। असम्भव अब सम्भव हो चला है।

इतना कुछ लिख कर, चित्र बना कर, आविष्कार करके शांत बैठा हूँ। इस आशा में कि अभी समय नहीं आया है। लोग अभी इतने परिपक्व नहीं हुए कि वे मेरी कठोर सत्य से भरी बातें सुन-समझ सकें। अभी उनको सबके बीच लाया तो वे भड़क जाएंगे। अपने पूर्वजों को गलत साबित होते देख कर कुपित हो जाएंगे। इतना भीषण बदलाव उनको सदमा दे देगा और वे दे देंगे मुझे असमय मौत। कर देंगे मेरी हत्या।

फिर क्या करना उनको वो सब देकर जो उनके लिए अच्छा है लेकिन उनको चाहिए ही नहीं? ममतामयी माता तक बच्चे के रोये बिना उसे भोजन नहीं देती फिर मैं तो समाज से अलग एक निष्ठुर इंसान हूँ। जो अपने माता-पिता को स्वस्थ रखने के लिये जी जान एक कर दे रहा है ताकि वे बिस्तर न पकड़ लें। जबकि बाकी लोग अपने बुजुर्गों को बिस्तर पकड़ा कर उनकी सेवा में लगे हैं। सेवा ऐसी कि उनका शरीर जल्द ही मृत्यु को प्राप्त हो जाये।

कोई ज़रूरत नहीं है। अव्वल तो स्वस्थ रहिये। दूसरे अगर शरीर जवाब दे गया है तो क्या कर रहे हो जीकर? सांस लेकर छोड़ना जीवन नहीं है। अपनी सेवा करवाने में अपने बच्चों का जीवन बर्बाद करवाना प्रेम नहीं है। क्यों कष्ट सह रहे? अगर स्वस्थ हो सकते हैं, इलाज हो सकता है तो करवाइए। आत्मनिर्भर बन सकते हैं तो प्रयास कीजिये और अगर सब बेकार है तो खत्म कीजिये इस इहलीला को। तड़पते हुए मरने से बेहतर है झटके से मृत्यु। मर्सी किलिंग ले लो।

दूसरों पर निर्भर होना आप बुरा मानते हैं लेकिन बुढापा आते ही यह निर्भरता पुण्य में कैसे बदल जाती है? किसी पर ऐसे निर्भर होना जो उसे कष्ट दे, निर्भरता नहीं है। परजीविता है। जो जिस पर पलती है उसी को खा जाती है।

मैं बुढापे से दूर रहने के हर सम्भव वैज्ञानिक प्रयास कर रहा हूँ। पक्का है कि औरों से ज्यादा अजर और लम्बा जीवन जियूँगा। लेकिन नहीं पता कि मृत्यु का कारण क्या होगा इसलिये पहले से तय है कि अगर बेकार हो गया तो मर जाना पसन्द करूँगा लेकिन किसी पर परजीवी बन कर जीना नहीं। आनंद लेने की पहली शर्त है कि किसी और के आंनद में खलल न पड़े। आशा है कि आपको आज पता चल गया होगा कि अगर अकेले भी रहना पड़े तो आप को क्या करना है। ~ Vegan Shubhanshu Singh Chauhan 2019©  2019/04/13 16:47 

शुक्रवार, अप्रैल 12, 2019

मूर्खता के बदले मूर्खता यानि बुद्धिमानी? ~ Shubhanshu

जातिवाद के बदले जातिवाद? 

The great brahman vs the great chamar?

मतलब चुहियापन्ति के बदले चुहियापन्ति?

क्या चुहियापा है! वाह! कलेजा मुहँ को आ गया।

अरे कोई हग मारे तो आप उसके पास से हटने की जगह खुद भी हग मारोगे क्या?

एक अपनी जाति पर गर्व कर रहा है तो दूसरा उसे अनदेखा करने की जगह खुद भी वही करने लगे? फिर गलत कौन है कैसे पता चलेगा?

हम सब भारतवासी एक परिवार हैं। सभी भारतीय हैं। ये जातियां तो मन में हैं या संविधान में आपको दी गई बैसाखी है। लेकिन क्या आप खुद को लंगड़ा अपाहिज मानते हो? मानते हो कि आप हमेशा गरीब, लाचार, मंदबुद्धि और कमज़ोर ही रहोगे? राष्ट्रपति कोविंद जी को क्या अब आप दींन हीन मानोगे या कलाम साहब जिनको मुस्लिम आरक्षण प्राप्त था? ~ Vn. Shubhanshu SC 2019©

मंगलवार, अप्रैल 09, 2019

गरुणपुराण को जानने वालों से सवाल ~ Shubhanshu

आत्मा को मानने वाला व्यक्ति: भूत/पिशाच वे बुरी आत्मा हैं जिनकी अधूरी इच्छाएं पूरी नहीं हुई तो यहीं रह गए।

शुभांशु धर्ममुक्त: 1. दुनिया में कौन है जिसकी समस्त इच्छाएं मरने तक पूर्ण हो गई हों?

2. ये किस नियम के आधार पर तय हुआ कि अधूरी इच्छा वाली आत्मा को स्वर्ग या नर्क नहीं भेजा जाएगा?

3. अधूरी इच्छा वाले भूत/पिशाच बुरे ही क्यों होते हैं? अच्छे क्यों नहीं?

4. अगर वे बुरे हैं तो ईश्वर/चित्रगुप्त/यमराज उनको ऐसे ही खुला क्यों छोड़े दे रहे हैं? इनको सज़ा क्यों नहीं देते?

5. क्या भूत बनने के लिये किसी को अपनी नई इच्छा पैदा कर लेना काफी नहीं होगा, मरते समय?

6. एक बार तय कर लो कि सिस्टम क्या है आप लोगों का? मरने के बाद आपकी आत्मा का क्या होता है? एक बार ढंग से कल्पना कर लो। ये बार बार बदलने वाली नोटंकी विज्ञान की होती है लेकिन आपका धर्म तो परफेक्ट है न? या ये भी जुमलागिरी है?

और चलते-चलते, आत्मा अच्छी बुरी हो ही नहीं सकती क्योकि अच्छा बुरा तो जीन होता है दिमाग का या वो आदतें जो इंसान सीखता है। वो सब यादें दिमाग नाम के उपकरण में जमा होता है जो कि आपकी कथित आत्मा में जा ही नहीं सकते। समझे या समझाऊँ? ~ Shubhanshu 2019© 1:35pm

गुरुवार, अप्रैल 04, 2019

राजनीति हटाओ लोकतंत्र लाओ ~ Shubhanshu

समय है बदलाव का
खुद को बर्बाद करना बंद करें

केवल प्रति नागरिक न्यूनतम आय नियम ही संभव है जो कि प्रति माह ₹10000.00 हो सकती है। इसका मतलब है ₹120000.00 प्रति वर्ष। यह नियम पहले से ही कई देशों में लागू है और भारतीय विद्वान इसे भारत में भी लागू करने की कोशिश कर रहे हैं!

₹72000.00 या ₹1500000.00 का प्रलोभन सिर्फ आपकी भावनाओं के साथ मजाक है।

लेकिन डर्टी पॉलिटिशियन वोट हासिल करने के लिए अपने अनुसार अपने सही समय के लिए, अपने लाभों के लिए, इसका उपयोग करके इस परियोजना को देर से लागू करने की योजना बना रहे हैं।

क्यों राजनेता स्वेच्छा से नौकर बनने के लिये और खुद के प्रचार के लिए भारी धन खर्च करने को तैयार हैं? क्या वास्तव में हमें एक राजनेता की जरूरत है जो देश को बेहतर बनाने के लिए करों का प्रबंधन करे? वह करे जो लोग चाहते हैं या उन्हें हम पर शासन करने की आवश्यकता है? क्या यह उनकी चरम श्रद्धा और समर्पण है या खुद के लिए जीवन भर का आराम, सम्मान, कानून को अपनी जेब में रखने और व्यवस्था को अपने हिसाब से नियंत्रित करने और एक शासक के रूप में अपने स्वयं के विचारों को लागू करने के द्वारा लोकतंत्र को नष्ट कर देने का लालच है?

हर राजनेता द्वारा पहले वालों के समान वादे, जबकि वही समस्याएं उनकी सेवा अवधि खत्म होने के बाद भी बनी रहती हैं। क्या आप मूर्ख हो? या खुद को मूर्ख दिखाने की कोशिश कर रहे हैं?

इसके बारे में सोचो। वोट देना बंद करो, अपनी मेहनत की कमाई इन फालतू लोगों को देना बंद करो। अपने स्वयं के विभाग बनाइये, अपनी स्वयं की प्रणाली बनाइये, लोगों को उनकी पात्रता के आधार पर नियुक्त कीजिये और अपने देश का प्रबंधन स्वयं टीम बना कर कीजिये। देश बनाइये वैसा, जैसा आप चाहते हैं। यही सच्चा लोकतंत्र होगा। "राज़ करना या शासन करना" जैसे शब्द लोकतंत्र में अनुपस्थित हैं। यह केवल राजशाही से संबंधित शब्द और कार्य हैं। जहाँ केवल राज़ा की ही चलती है।

धन, धर्म, हवस, नशे आदि के लालच से मूर्ख मत बनो। मानवता के बारे में सोचो। राष्ट्र के बारे में सोचो और अपनी आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचो। आपका दिन मंगलमय हो! ~ शुभांशु सिंह चौहान 2019 ©

किसी के धर्म से नफरत न करें ~ Shubhanshu

सभी ऐसे व्यक्ति जो खुद को नास्तिक कहते हैं वे किसी भी धर्म मे खोट निकालना तुरन्त बन्द करें। हर दूसरा धर्म पहले की पोल खोल कर ही खुद को बड़ा बताता है। आपको किसी धर्म की आलोचना करने पर नास्तिक नही बल्कि दूसरे धर्म का एजेंट समझ लिया जाएगा जो कि स्वाभाविक और सही है।

आपका प्रमुख target god है न कि धर्म। कुछ धर्म मे तो god का कॉन्सेप्ट ही नही है। फिर?

यदि आप अब तक गलती से दूसरे धर्म का या अपने धर्म का मजाक उड़ा रहे थे तो सम्हल जाएं और अगर आप किसी धर्म को मानते हुए किसी अन्य की आलोचना कर रहे हैं तो कहने की आवश्यकता नही है कि आप उस धर्म के एजेंट हैं और अगले का अपने धर्म मे विश्वास जगाना चाहते हैं। ऐसे लोग खुद को नस्त्तिक के चोले से निकाल फेकें। असली नास्तिकों को बदनाम न करें।

सच्चा नस्त्तिक सिर्फ ईश्वर/गॉड/अल्लाह/रब आदि नामो से जाने जाने वाले 1 ही पात्र की आलोचना करता है और पोल पट्टी खोलता है। धर्म तो मान्यताएं हैं। गलत होंगी ही। धर्म की आलोचना करने से ईश्वर/god को कोई फर्क नही पड़ता। लोग आपके घण्टों समझाने के बाद बदले भी तो कोई दूसरा धर्म अपना लेंगे। ईश्वर का अन्धविश्वस वहीं का वहीं। परिणाम कुछ भी नही।

PS: कमाल तो ये है कि ईश्वर/गॉड/अल्लाह खत्म सब धर्म खत्म। पाखण्ड खत्म। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 4 अप्रैल 2017 9:18pm

बुधवार, अप्रैल 03, 2019

So do you still like politics? ~ Shubhanshu

Only Minimum income per citizen rule is possible which is 10000₹ per month. It means 120000₹ per year. This rule is already implemented on many countries and indian scholars are trying to insist it in india too! 

But Dirty Politicians are planning to make late this project by using it as for their benefits for their desirable right time to gain votes.

Why politicians are volunteering to be a servant with spending huge money to promote them? Are we need a politician to manage the taxes to improve the country by doing what people want or they need to rule upon us? Is it their extreme faith and dedication to help us or greed of lifetime leisure, respect, to control law and order for their sake and destroy the democracy by implementation of their own ideas as a ruler not a servant?

Same promises by every politician, same problems persists after their service period. Are you an idiot? Or trying to show yourself an idiot?

Think about it. Stop voting, stop giving your hard earned money to these fuckers. Make your own departments, your own system, hire people by their eligibility and manage your country as you want. That will be true democracy. The word "to rule" is absured in democracy. It is related only with Monarchy.

Don't be fooled by your own greed. Think about humanity. Think about nation and think about your future generations. Have a nice thoughtful day! ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©

रविवार, मार्च 31, 2019

प्यार बांटते चलो ~ Shubhanshu

शुभ: एक बार में सिर्फ एक के साथ ही सम्बन्ध क्यों रखूँ?

धार्मिक स्त्री: एक बार में एक को ही तो प्यार कर सकते हैं। 1 से ज्यादा में प्यार बंट जाएगा।

शुभ: क्या हम प्यार को बांटे बिना रह सकते हैं? यह बताओ, तुम्हें प्यार करूँ या अपने माता-पिता-भाई-बहन को भी?

धार्मिक स्त्री: अब वो तो...

शुभ: बच्चा तो नहीं पैदा करना है? क्योंकि फिर हमारा प्यार उसमें भी बंट जाएगा। 1 से ज्यादा बच्चे पैदा हुए तो प्यार के और भी टुकड़े होंगे। क्या प्यार बिना बंटे रह सकता है?

धार्मिक स्त्री: अब वो मैं...

शुभ: तुमको कुत्ता भी पालना है। उसकी भी बहुत परवाह है तुम्हें। उसने भी तुम्हारा और मेरा प्यार बाँट लिया। फिर तुम तो धार्मिक हो, ईश्वर को सबसे ज्यादा प्यार करती हो जैसे मीरा का श्याम। फिर मैं भी शिव और राम की भक्ति करूँ, फिर देश से भी प्रेम करूँ तो प्यार के कितने टुकड़े करूँ? और जब इतने टुकड़े करने ही हैं तो फिर ये सौत कह कर अपनी ही साथी और मेरी प्रेमिका का अपमान क्यों? क्या यह सिर्फ तुम्हारी सम्पत्ति पर एकछत्र कब्जे की गन्दी नियत नहीं है?

धार्मिक स्त्री: ओह! ऐसा तो मैंने कभी सोचा ही न था। सॉरी शुभ। मुझे लोगों ने बुरा बना दिया था। अब मैं भी किसी को पसन्द करुँगी तो तुमको बता कर उसके साथ समय बिताउंगी। कोई समस्या तो नहीं?

शुभ: बिल्कुल! बात बराबरी की है तो रहेगी। बस कोई यौन गुप्त रोग मत ले आना। जैसे मैं प्रोटेक्शन रखना चाहता हूँ तुम भी रखना।

धार्मिक स्त्री: कौन हो आप गुरुदेव? मुझे जीत लिया आपने।

बातें बड़ी करते हैं लोग कि प्यार बांटते चलो लेकिन जब बांटने की बारी आती है तो नफरत से भर उठते हैं। ये कमिटमेंट करने की प्रथा खत्म करो। आप खुद को धोखा नहीं दे सकते। आपकी बायोलॉजी और कैमिस्ट्री ही ऐसी है कि एक ही व्यक्ति से जुड़ा नहीं रख सकती आपको। प्यार बांटने की चीज़ है। इसे बांटो। किसी को मना मत करो। सभी को अपना लो। सबको आत्मनिर्भर रखो। किसी का भार मत उठाओ। life एक है और इसे जीने का हक है सिर्फ आपका। 2019/03/31 15:17 ~ Shubhanshu 2019©

काहे का चुनाव? ~ Shubhanshu

मतदाता सिर्फ लालची है। उसे देश और देश के खजाने को संभालने वाले से कोई मतलब नहीं। अपने ही खजाने को दूसरे को देकर उससे कुछ सिक्के लेने की आशा ही चुनाव है। जो कि कभी पूरी होती ही नहीं। देश को अपने हाथों में लीजिये। किसी नेता को देश चलाने का हक मत दीजिये। सिस्टम बनाइये, विभाग बनाइये लेकिन नेता मत बनाइये। इनका कोई काम नहीं है, ये सिर्फ माल उड़ाने के लिए ही बीच में पड़े हुए हैं। सारी समस्या यही पैदा करते हैं। ये न हों तो देश विश्व पर राज करे। ~ Shubhanshu 2019©

रविवार, मार्च 24, 2019

धर्ममुक्त समाज यानि वर्जना मुक्त समाज ~ Shubhanshu

(धार्मिक दुनिया में)

स्थिति 1

पुरूष: क्या आप मेरे साथ सेक्स करोगी?

स्त्री: बचाओ! बचाओ! ये मेरा रेप कर रहा है।

पुरुष: अरे एक तो तमीज़ से पूछ रहा हूँ उस पर ऐसा आरोप?

लोग: मारो साले को। मार डालो साले को।


स्थिति 2

स्त्री: क्या आप मेरे साथ सेक्स करोगे?

पुरुष: कितने लोगी?

स्त्री: अरे पागल हो क्या? पैसे के लिये थोड़े ही पूछ रही हूँ।

पुरुष: फिर रहने दे। साला ज़रूर कोई लंगड़ है। एड्स है क्या? फ्री में कोई न आती ऐसे। अरे देखो कैसी हरामी लड़की है। साली चुड़ैल है ये तो। मुझे मारने आयी है। किसने भेजा तुझे?

लोग: साली रंडी, चुड़ैल। अरे जला दो इसे सब मिल कर।

सोचिये इस तरह के समाज में सेक्स सुलभ नहीं है तो बलात्कार करने के अवसर बढ़ेंगे ही क्योंकि सिर्फ व्यवस्था विवाह ही अगर सेक्स की सुलभता है तो क्या वह पूछने जैसा आसान है? क्या आप जिससे चाहें उससे खाली हाथ विवाह कर सकते हैं? क्या वह विवाह आपके चाहने भर से हो जाएगा? सोचिये ज़रा।

सज़ा देने से क्या लाभ उनको जो खुद ही सज़ा भोग रहे हैं अकेलेपन की और जिसे चाहते है उसे खोकर। जो बलात्कार करता है वह मर ही जाना चाहता है। उसे मार कर भी क्या बदलेगा? सोचिये ज़रा इस तरह भी। शायद कुछ बदलाव आये।

धर्ममुक्त समाज में कोई किसी के लिए नहीं तड़पेगा और न ही कभी बलात्कारी पैदा होंगे। सेक्स सबके लिए सुलभ होगा और उसे इतना ही जरूरी और सामान्य समझा जाएगा जैसे प्यासे के लिए जल का उपलब्ध होना। लिंगानुपात समान और टैबू खत्म होगा तो कुंठा जैसी भारी समस्या समाप्त हो जायेगी। ~Vegan Shubhanshu Singh Chauhan 2019©