जब हम कहते हैं, "जय मूलनिवासी" तो अर्थ हुआ, "मूलनिवासी जीते"। "जय भारत" का अर्थ हुआ "भारत जीते"। इसमें व्यक्तिपूजा नहीं परन्तु समूह पूजा है।
इस तरह की पूजा में समस्या पहले भी आ चुकी है। जब भारत माता की जय बोली जा रही थी तो सैद्धांतिक रूप से वो एक धार्मिक देवी की ही जय थी।
मान्यता है कि विवेकानंद वेदांत के अतिरिक्त पाखण्ड के विरोधी थे लेकिन उन्होंने भारत माता को सशरीर देखा था। जो कि उनको साफ पाखण्डी बताता है। इसी को आधार बना कर ये नारा बन गया था।
जब जवाहरलाल नेहरू आये तो वे इस नौंटकी को समझ न सके और इसमें उन्होंने समझाया कि भारत माता दरअसल भारत के लोग हैं। उनकी जय हो।
इस तरह एक जबरन डाला हुआ मतलब तो बना दिया लेकिन भारत माता को भारत के लोग कहना तर्कसंगत तो कहीं से नहीं हुआ।
फिर हद तो तब हुई जब हर जगह मंदिरों में काल्पनिक भारत माता जो कि विवेकानंद की रची कल्पना थी, मूर्ति के रूप में नज़र आने लगी और भारत माता, अन्य देवियों की तरह पूजी जाने लगी।
इससे क्या लाभ हुआ? अब मान लो कि जय मूलनिवासी बोलने पर कोई 1 व्यक्ति की पूजा नहीं हुई लेकिन क्या एक समुदाय के प्रति श्रेष्ठता की भावना पक्षपाती नहीं हुई? कल को मूलनिवासी देवता बना कर मंदिर बन जायेगा और फिर उस पर भी चढ़ावा चढ़ेगा।
जय भारत वाला नारा भी कल भारत देव नाम से मूर्ति बन कर मंदिर में सजेगा तब? सोच लो, इस तरह भारत माता का लँगड हो चुका है। सम्भव है दोबारा हो। लेकिन अगर हम जय धर्ममुक्त बोलें तो?
धर्ममुक्त न तो कोई व्यक्ति है और न ही कोई बेजान वस्तु और न ही कोई समूह। ये एक विचार धारा है, साम्यवाद की तरह लेकिन इसमें कोई जटिल परिभाषा नहीं। सभी प्रकार के सम्प्रदाय/रिलिजन/मजहब से मुक्त हो जाना, वापस सामान्य इंसान बन जाना, अपनी बुद्धि से चलना ही धर्ममुक्त होना है। एक दम शानदार और खुद को आजमाने का मौका। शरीर तो 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था लेकिन दिमाग केवल धर्ममुक्त होना ही आज़ाद करा सकता है।
फिर भी क्या पता? कल को कोई मूर्ख धर्ममुक्त देवता भी बना डाले और हमारे और कश्मीर जी के मास्टर प्लान की बैंड बजा डाले तो क्या होगा?
इसलिये अगर जोश बढाना ही है तो सोचा कि दूसरों से कुछ और बड़ा किया जाए। हमने और बढ़िया सोचा और हमे एक शब्द दिखा जिसकी सदियों से कोई मूर्ति नहीं बनी थी, और वो था "सत्यमेव जयते" (भारत सरकार का आधिकारिक शब्द)। अर्थात सत्य की सदा विजय होती है या कहें सत्य सदा जीतता है। देखिये, इस तरह के वाक्य में कोई संज्ञा ही नहीं है। केवल एक भाव है जो सत्य कहलाता है। ये सार्वभौमिक है और शाश्वत है। इसकी कोई मूर्ति बना भी ले तो उसका कोई अर्थ नहीं बनेगा।
फिर क्यों न हम इन्हीं शब्दों में धर्ममुक्त भी रखें? धर्ममुक्त जयते! अर्थात धर्ममुक्त इंसान जीतता है। धर्ममुक्त कोई भी बन सकता है अतः ये सत्य के समान एक भाव है। इसमें कोई भेदभाव नहीं। समानता है। कोई जातपात नहीं, कोई भेदभाव नहीं, सिर्फ अच्छाई! अतः बोलते रहिये, "धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते", "जीतेगा भई जीतेगा, हर धर्ममुक्त जीतेगा।" ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©