जब भावना ही नहीं होगी, तो सब वही करेंगे जो विज्ञान और प्रकृति से, स्वभाव से उचित होगा। न कोई नफरत करेगा, न प्रेम के दिखावे की ज़रूरत पड़ेगी। हर इंसान ईमानदार होगा क्योंकि लालच की भावना नहीं होगी। कोई झगड़ा ही नहीं होगा क्योंकि बात सही या गलत बिंदु पर खत्म होगी।
न सम्मान की भावना न गुस्से और अपमान की भावना जागेगी। तब न तो कोई धर्म होगा और न ही कोई वफादारी के न मिलने पर कत्ल करेगा। क्योंकि लोग सिर्फ सत्य का साथ देंगे। वफ़ा तो पक्षपाती होती है। विवाद शांतिपूर्ण तरीके से निबट जाएंगे क्योंकि तब कोई अपनी मनवाने के लिये ज़िद नहीं करेगा। जो सही होगा वही मान लिया जाएगा।
अच्छी भावनाओं से ही बुरी भावना जुड़ी होती है। आप किसी से प्रेम करते हैं तो बाकियो से नफरत हो जाएगी। आप किसी पर दया करते हैं तो उसे दयनीय बनाने वाले पर आप नफरत और गुस्से से टूट पड़ोगे।
जब आप अच्छे और ईमानदार बनोगे तो जो आप जैसे नहीं हैं, उनको आप मार डालने की सोचोगे। गर्व की भावना आपको बाकियो से श्रेष्ठ दर्शा कर दूसरों को तुच्छ बना देगी और आप उनको नफरत से देखोगे।
जानवरों में भी भावनाओं का ज्वार होता है लेकिन वह इंसान जितना घमंडी नहीं होता। उसे खुद पर घमण्ड नहीं होता। इसलिये वह इतना भावुक नहीं दिखते जितने कि घमण्डी मानव। इंसान घमंडी था नहीं। इसे धर्म और कुछ धर्म द्वारा संचालित वैज्ञानिकों ने ऐसा बनाया। उन्होंने कहा कि इंसान श्रेष्ठ है, क्योंकि उस पे ज्यादा आयतन का मस्तिष्क है या इंसान कल्पित ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। परन्तु इस अतिरिक्त मस्तिष्क की आवश्यकता क्या है? ये वे कभी नहीं बता पाए। चलिये मैं बता देता हूँ।
इंसान इतना तुच्छ जंतु है कि ये प्रकृति में ज्यादा देर टिक नहीं पाता। उसका सारा मस्तिष्क प्रकृति को कैसे बर्बाद और नष्ट करके आलस्य बढाने वाले कार्य करें, इस पर केन्द्रित रहता है। इसमें इतनी भी क्षमता नहीं कि मौसम और एक दूसरे की हवस भरी नज़रों की मार से बच सके। उसने इसके लिये अपने ऊपर जानवरो की खाल ही कपड़े बना कर ओढ़ ली।
इससे गिरी हुई हालत और क्या होगी कि इंसान को अपनी त्वचा तक बेकार लगती है। उसको ढकने के लिये उसने बलात्कार संस्कृति और फैशन बाजार की व्यवस्था की। अब वह ज़मीन पर पैर नहीं रखता, क्योंकि उसे चप्पल या जूते चाहिए।
उसे हाथ खुले रखने में भी समस्या है। दस्ताने पहनता है। वह अपने चेहरे व शरीर से भी संतुष्ट नहीं है। उसे उस पर भी लाखों रुपये लगाकर मेकअप और सर्जरी करवानी हैं या छेद करवा कर उसमें कील कांटा पहनना है। कुछ नहीं तो स्थाई टैटू बनवा कर ही दूसरे से अलग दिखना है। चाहें भद्दे ही क्यो न दिखें!
वह इतनी जल्दी बीमार पड़ता है कि मर ही जाता, अगर उसने चिकित्सा जगत की खोज न की होती। इंसान की ज़िंदगी छुई मुई सी है, जो इसने अपने मस्तिष्क की मदद से बचा रखी है। इसका मस्तिष्क केवल अपनी कायर और विकलांग ज़िन्दगी को बचाने के लिये काम आया।
इस कायर और विकलांग ज़िन्दगी को जीकर इसे खुद पर गुमान हो आया कि अरे वाह, देखो मैं भी जानवरों के जैसे अनुकूल जीवन जी सकता हूँ। प्रकृति ने तो मुझे अनुकूल बनाया ही नहीं।
लेकिन उसने जानवरो से भी ईर्ष्या रखी क्योंकि जानवरों पर पहले से सबकुछ था, जिससे वे मस्त होकर जीवन जीते थे। इससे चिढ़ कर उसने उनको ही खत्म कर देने की ठानी। इसलिए उसने Zoo बनाये, उनका व्यापार किया, उनका इस्तेमाल किया, उनका दोहन किया, उनका दूध चूसा, उनका कत्ल किया, उन पर प्रयोग करके उनको काटा, नोचा, खाया। उसने मेडिकल साइंस में बिना किसी प्रमाण के खुद को सर्वाहारी दर्शाया। जबकि सर्वाहारियो का एक भी लक्षण वह नहीं रखता था।
इतना कमज़ोर है इंसान और खुद को ही श्रेष्ठ कहता है? फिर जब कोई इसको खुद को श्रेष्ठ कहता दिखता है, तो ये उसे भी टोकने पहुँच जाता है और कहता है, "वाह! जी वाह! अपने मुहं और मिया मिट्ठू? घमंडी कहीं का।" क्योंकि, कोई और उस जैसा सोचे, तो उस घमण्डी को बर्दाश्त कहाँ होगा? एक म्यान में 2 तलवारें कैसे रहेंगी? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©