Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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सोमवार, जून 01, 2020

A real teacher maybe a master but doesn't want slaves



गुरुओं के जाल में भी बहुत लोग आ फंसे हैं। खुद फंस गए तो दूसरों को फंसाने का कार्य मत्थे मढ़ जाता है। जैसे विवाह संस्था वाले बस सबका विवाह-बच्चे करवा देना चाहते हैं, वैसे ही जैसे कोई अपने गुरु का सबको शिष्य बना देना चाहता है।

अगर आप किसी 1 गुरु से बंध गए तो दूसरा उससे लाख बेहतर ज्ञान देते-देते मर जायेगा लेकिन आप आँख-कान बन्द करके उसको गाली देने लगोगे। बस यहीं से अंधी अज्ञानता शुरू होती है। जिसने इंसान को इंसान से काट दिया। जानवरों और प्रकृति का दुश्मन बना दिया।

जो आपको आपकी ज़रूरतों को पूरा करने का तरीका नहीं बता रहा, वह आपकी ज़रूरतों को खत्म करने को कह रहा है। हारा हुआ है और हारना ही सिखा रहा है। जीतने में हिम्मत और मेहनत लगती है। हारना आसान है। आसान कार्य के लिये गुरु नहीं चाहिए। कठिन कार्य के लिये गुरु चाहिए।

बुद्ध ने कहा, "सब त्यागो।"
सन्यासियों ने कहा, "सब त्यागो।"

मैं भी कहता हूँ कि हाँ, त्यागो लेकिन सब नहीं। केवल वही, जिसकी तुमको ज़रूरत नहीं। तुम निद्रा, भोजन, जल, काम, मद, लोभ, क्रोध, मोह अगर सामान्य मानव हो, तो नहीं त्याग सकते। हाँ इन पर नियंत्रण रख सकते हो। जितेंद्र बन सकते हो।

नियंत्रण का मतलब रोक नहीं होता। घोड़ा घुड़सवार के नियंत्रण में है, ट्रेन उसके ड्राइवर और कंट्रोल रूम के, हवाई जहाज और पानी के जहाज के साथ भी ऐसा ही है। क्या इनको सदा के लिए रोकना उचित होगा?

दमन को नियंत्रण नहीं कहते।

दँगा होता है तो दमन किया जाता है। जब कोई सही बात नहीं सुनता और न मानता है, तो दमन करना पड़ता है। दमन एक उपाय है रोकने का।

लेकिन दँगा शांत करने का उपाय है, समस्याओं का समाधान। तभी भीड़ रुकेगी। तभी दोबारा दंगे नहीं होगें। 

भीड़ को सन्तुष्ट करो।
दँगा रुक जायेग़ा।
हमेशा के लिये।

भीड़ की मांगें गलत हैं तो उनको गलत और सही समझाओ। उनको सही तक लेकर आओ। ये काम कर सकता है, एक असली सत्य खोजी गुरु।

हमारी इंद्रियों के दंगे को खत्म करने के लिये हम क्या करते हैं?

दमन? या उनको संतुष्ट करते हैं?

आपने चीटियों को नियंत्रित किया है। आपने थोड़ा आटा अलग दिशा में डाला और चींटी ने अपना रास्ता बदल दिया। वह सन्तुष्ट हो गई। एक ऐसा प्राणी जो आपकी भाषा नहीं समझता, उसे भी अभी आपने संतुष्ट करके अपना कार्य करवा लिया।

ऐसे ही भूखी इंद्रियों को खाना दो। उनको नियंत्रित सिर्फ इतना ही करना है कि वे किसी बेगुनाह को नुकसान न पहुँचा दें।

जैसे गुस्से में लोग ट्रिगर पर रखी उंगली नहीं हटाते लेकिन समझाने पर उसकी नली की दिशा बदल देते हैं।

ट्रिगर दबता है। गुस्से को निकलने का मौका मिलता है।

अक्सर लोग गुस्से में जब किसी ज़िंदा दोषी को चोट नहीं पहुँचा पाते तो बेजान वस्तुओं को तोड़ कर, वह अपना गुस्सा निकाल देते हैं या खुद को चोट पहुँचा कर अपना गुस्सा कम कर लेते हैं।

हम इससे आगे बढ़ कर थोड़ा और स्मार्ट बन सकते हैं। हम बेजान चीजों को भी क्यों तोड़ें? उसमें भी तो खर्च हुआ है। उसमें भी तो किसी की मेहनत, यादें जुड़ी हैं। 

दरअसल दोबारा वापस न पाने की भावना ही इस निराशा को जन्म देती है।

इंसान मोह में पागल है। जिससे भी वह मोह रखता है, वह वस्तु नष्ट हो जाती है। तब खोने का दुःख उसे रुलाता है, गुस्सा दिलाता है। जबकि मोह उससे करो जो अनश्वर है। जो हमेशा साथ रहेगा। जिसकी मृत्यु निश्चित है, उससे कैसा मोह?

परंतु हमको जो अनश्वर लगता है, उससे मोह ही नहीं होता। हमको तो उस वस्तु से मोह होता है, जो जल्दी नष्ट होने वाली है।

उदाहरण के लिये, आपके सामने 2 लोग घायल पड़े हैं। 1 कम घायल है और थोड़ी देर और जी सकता है। जबकि दूसरा ज्यादा घायल है। देर करने पर उसकी जान जा सकती है। अब आप पहले किसे बचाओगे?

सीधी बात है कि आप जो जल्दी मरने वाला है, उसे बचाओगे। यानी जो खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकता और कमज़ोर है, उसी के प्रति दया उमड़ती है। उसी से मोह होता है। देखा? कैसा जाल है मोह का?

खो देने का डर ही मोह है। पाने का मोह लालच है। इसी से दुःख पनपता है क्योंकि हर किसी की एक सीमा है। उसी सीमा तक वह जाकर रुक जाता है या असफल हो जाता है।

हमें अगर जीतना है तो कुछ अलग करना होगा। वह अलग क्या है?

यह उपाय है कि देखो, जिससे मोह है, क्या वह तुम्हारे लिए वाकई ज़रूरी है? यदि नहीं, तो उससे पीछा छुड़ाओ। यही सही त्याग होगा। जो ज़रूरी है, उसी को रखो। बाकी सब को त्याग दो।

मैं, मेरा खुद का उदाहरण देता हूँ। कई बार मेरे कंप्यूटर की पूरी हार्ड डिस्क का डाटा मिट गया। मेरा न जाने कितना शोध और न जाने क्या-क्या प्रिय सामग्रियों का समंदर नष्ट हो गया। ऐसा लग़ा जैसे कोई अपना दोस्त या रिश्तेदार मर गया हो।

मैं बहुत भावुक रहा हूँ। बेजान वस्तुओं से जिंदा इंसानो के मुकाबले ज्यादा प्यार करता हूँ। बेजान किताबों, शब्दों ने मुझे जीना सिखाया। इंसानो ने बस उलझाया, ठगा और लूटा। ऐसा लग़ा जैसे अगले को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई मरे या जिये।

लोग ऐसे बुरा व्यवहार करते हैं, जैसे उनके साथ कोई वैसा व्यवहार कर ही नहीं सकता। यही झूठा घमण्ड है। 

ऐसे लोगों का घमंड टूटा है। बहुत बार टूटा है। मैंने तोड़ा है। लोगों का घमंड तोड़ने के लिए मुझे उनसे भी ज्यादा काबिल बनना पड़ा।

इसी कारण मैं हर क्षेत्र में ज्यादा जान पाया। जब भी किसी ने कहा, "तेरी औकात क्या है?" तो मैंने उसे चुनोती माना। अपनी औक़ात उससे ज्यादा बनाईं फिर उससे पूछा, "तेरी औकात क्या है?" और कमाल है कि उसकी औकात कभी उससे ज्यादा नहीं हुई।

क्यों? क्योंकि वह बस जहाँ पहुँच गया, उस पर ही घमंड कर रहा। यानी जो लहर पर पत्ते की तरह तैर रहा और किनारे लग गया, वह पत्ता खुश है कि उसने नदी पार करी है। वह जांबाज़ है।

जबकि, संघर्ष ही जांबाजी है। ज़रूरी नहीं कि संघर्षकर्ता, सड़कों पर, अपने लिए बेसिक ज़रूरतें ही जोड़ते हुए दिखे। हर वह जीव संघर्षकर्ता है, जो जी रहा है। इसी को जीवन संघर्ष कहते हैं। यदि आप सांस भी ले रहे तो यह संघर्ष है। नहीं लोगे तो मर जाओगे। एक ऐसा काम जो आपको सोते हुए भी करना है। फिर हम किस संघर्ष की बात कर रहे?

हम बात कर रहे हैं अपनी इच्छाओं और हुनर को सही जगह प्रयोग करने के प्रयास की। दरअसल दुनिया में बहुत हुनर है। बहुत प्रतिभा है। लेकिन लोगों को उसकी कद्र नहीं है। तमाम प्रतिभाओं का गला घोंट दिया जाता है।

मेरी खुद की प्रतिभाओं का गला घोंट दिया गया। तभी सोशल मीडिया पर लिखता हूँ। जानता हूँ कि मेरी योग्यता या कीमत क्या है। बहुतों से जाना है। बहुतों ने सलाह दी है। कोई कहता, उपन्यास लिखो, कोई कहता, इतना ज्ञान है तो नेता बन कर देश बदल डालो। कोई कहा, उपन्यास छापो, कविता की किताब निकालो, हम लेंगे। मैं बस इसे अपनी हौसला अफजाई समझ कर मुस्कुरा देता। इस से आत्मविश्वास उत्तपन्न होता है।

मेरे माता-पिता और उनके पिता-माता, सब के सब साधारण बल्कि अतिसाधारण बुद्धि के मानव थे। उनका जीवन आम लोगों की एकदम नकल था। दादा दादी अंगूठा छाप थे। ताऊ बेरोजगार, हस्ताक्षर कर लेते हैं।

मूक बधिर होने के कारण विवाह नहीं हुआ और पापा को बचपन में किसी अपमानजनक सामाजिक घटना के चलते, ज़िद करके, मार-मार के विद्यालय भेजा गया।

दादा खाना कम खाते लेकिन पैसा बचा कर सरकारी कॉलेज तक पढाई करवाई। मां प्राइमरी पढ़ी थीं तो उनको अपने पति को भी पढ़ा लिखा देखने की ज़िद रही और उन्होंने भरसक प्रयास किये कि पिताजी किसी तरह स्नातक कर लें। पिता गांव से शहर पहुँचे तो दोस्तों की बुरी संगत में पड़ गए। 1-2 साल फेल भी हुए। कॉलेज छोड़ के सिनेमा देखते थे।

मेरे दादा ने पापा को इसलिए पढ़ाया था क्योंकि दादा जी एक ओझा थे और लोहे के हंटर से लोगों का भूत उतारते थे। किसी ने उनका अपमान कर दिया। अपमान तो वैसे भी ब्राह्मण करते ही थे और दादा उनके यहाँ बेगारी काम भी करते थे। ये 1954 से पहले व उसके बाद की बात है। इसी वर्ष 1954 के अंतिम माह में मेरे पिताजी ने जन्म लिया था। और इसी के 1 वर्ष बाद 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। ये मैंने क्यों बताया आगे देखिएगा।

दादा-मम्मी-पापा-ताऊ, दादी आदि वो सब मिट्टी-छप्पर के बने एकदम निम्न श्रेणी के गाँव में रहे थे। जब आस-पास के गांवों में, बिजली और सड़क आ गई, तब हमारे गाँव में इस विकास का जमकर विरोध हुआ। लोगों ने कहा कि बिजली से हम चिपक के मर जाएंगे, सड़कों से गाड़ी हमको कुचल देगी और रसोई गैस से सिलेंडर फट जाएगा और सब जल कर मर जाएंगे। 😝

ये समय अब उस नर्क को छोड़ने का था। मेरे पापा ने पढाई पूरी कर ली। उनको अफसर पद के लिये इंटरव्यू का लेटर मिला था। तभी उनके पिता को भयानक खांसी हुई। डॉक्टर ने बताया कि फेफड़े का कैंसर है। बच नहीं पाएंगे। लेकिन पापा उनको लेकर यहाँ वहाँ भटकते रहे। उनकी वह जॉब हाथ से निकल गयी। दादा जी भी गुजर गए।

इसके बाद पापा LLB की तैयारी करने लगे। उस समय वकालत 3 साल की होती थी। पापा ने 2 साल पूरे कर लिए लेकिन तभी उनको रोजगार कार्यालय से स्टेट बैंक के इंटरव्यू का लेटर मिला। उसी इंटरव्यू में तमाम परीक्षाओं को पास करते देखने के बाद अंत में पापा से पूछा गया कि ये साधारण कपड़े और इतने लम्बे दाढ़ी, मूछ व बाल के साथ यहाँ क्यों आये? शेव क्यों नहीं काटी?

पापा की आंखों में आंसू आ गए। बोले, "ब्लेड खरीदने के लिये पैसे नहीं हैं।" इसी के साथ बोर्ड ने एकसाथ कहा, "you are selected!"

अब समझ आया कि ऊपर स्टेट बैंक का नाम क्यों लिया था? 😁

बस उस दिन से हमारे दिन बदलने शुरू हुए और पिताजी ने शहर में किराए के मकानों में रहते हुए एक-एक करके बर्तन खरीदे। आज भी मां बताती हैं कि 1-1 करके चम्मच कटोरी खरीदी हैं तभी कोई सेट नहीं है हमारे घर में। हर बर्तन अलग ही डिजाइन का था। हर चम्मच अलग ही डिजाइन का था।

मेरे पैदा होने के पीछे भी माता-पिता का बहुत संघर्ष रहा। एक लड़की पैदा होने के बाद माता की फैलोपियन ट्यूब बन्द हो गयी। बहुत वर्षो तक कोई बच्चा नहीं हुआ। ये लोग देश के सारे तीर्थ कर आये। हर डॉक्टर को दिखा डाला। कोई लाभ न हुआ। फिर एक दाई ने मां से कहा कि मैं तुम्हारी मालिश से ट्यूब खोल दूँगी। मुझे बनारसी साड़ी दिलाना, जब बालक हो।

कमाल हुआ, और मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म ने माता-पिता को तानों से बचाया और वंश वृद्धि के सपने भी जगाए। परन्तु, बचपने से ही मैं विवाह का विरोधी हो गया। बचपने से ही धर्ममुक्त हो गया, बचपन से ही मैं vegan हो गया। तब घरवालों को लगा कि बच्चे तो ऐसा बोलते-करते रहते हैं और बड़े होकर सब बदल जायेगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने जो कहा, न सिर्फ जीवन में उतारा बल्कि उसे कायम रखा। आज भी मैं हैरान हो उठता हूँ कि बचपने के फैसले, बड़ों के फैसलों से भी ज्यादा शक्तिशाली कैसे निकले? आज जब मैं उन फैसलों के लिये तमाम ज्ञान प्राप्त करके एक मजबूत आधार खड़ा कर चुका हूँ, तब सोचता हूँ कि शुरू से ही सही होना, कितना गौरवशाली होता है।

इस गौरव ने मुझसे मेरी बहुत सी प्रिय लगने वाली वस्तुएं, भोजन और दोस्त छीन लिए। समाज से अलग होना, समाज को बर्दाश्त नहीं होता।

 - मैं लोगों के साथ बैठ कर खा नहीं सकता क्योंकि मेरे सिद्धान्त उनके पशुउत्पाद युक्त भोजन को क्रूरतापूर्ण और अन्यायपूर्ण मानते हैं।
 - मैं महिलाओं से घुलमिल नहीं पाता, क्योंकि कहीं न कहीं आकर वे विवाह के बारे में मेरे विचार जानना चाहती हैं और जानते ही दूर हो जाना भी चाहती हैं। जो लिव इन में रुचि रखती हैं, वे मेरे बच्चे न पैदा करने के प्रण को लेकर नाराज़ हो जाती हैं। 
 - मेरा नशामुक्त स्वभाव, महिलाओं के प्रति समानता का नजरिया, मुझे घटिया सोच और नशे-जुए वाले लड़कों में बैठने नहीं देता।
 - मेरा धर्ममुक्त विचार, धार्मिकों को आतंकी बना देता है। वह मारने-पीटने की हद तक गुस्सा हो जाते हैं।
 - मेरा राजनीति मुक्त निष्पक्ष सोच व्यवहार राजनीतिक लोगों को गुस्सा दिला देता है। कई बार तो "मैं वोट नहीं देता" जान कर कई लोगों ने मुझे देशद्रोही तक कह डाला।
 - मैं सत्य के अतिरिक्त किसी की जय नहीं बोलता तो हर तरह के लोग मेरे खिलाफ हो गये।
 - मैंने रिश्तों को धर्मों द्वारा बनाया बताया, तो लोग मुझे मां-बहन की गाली देने लगे।
 - मैंने सेक्स को जीवन का हिस्सा और ज़रूरत बताया न कि बच्चों को तो लोगों ने मुझे ठरकी कहा।
 - जब नौकरी की जगह आत्मनिर्भर होने के लिये प्रतिभा प्रयोग करने को प्रोत्साहन दिया ताकि मालिक बन सकें तो लोग मुझे मूर्ख कहने लगे।
 
कुल मिला कर अधिकतर दुनिया के लिये मैं एक घटिया इंसान हूँ। जबकि मेरी नज़र में इनसे घटिया कोई नहीं है।

मैं समझाऊँ तो मैं सब सही और बेहतर कर रहा पाओगे और न समझाऊँ तो मैं इतना घटिया लगूँगा कि आप दूर ही होना पसंद करोगे। दोनो ही हालातों में मैं सुखी रहूँगा क्योंकि "कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगें खैर, न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर!" जाओ, नहीं बनता मैं किसी का गुरु! अभी वैसे भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। 😊 ~ Shubhanshu 2020©  2020/06/01 21:51

शुक्रवार, मई 29, 2020

Modern Indian Suger is now Vegan too!




Modern Indian Sugar is Vegan. No any factory using bone char as a refining agent.

Well, bone char is a charcoal made by burning of animal's bones in the form of tablets which is never dissolves in water. So your old sugar was still plant based. We just don't want to use any animal product in anyway because their demand will cause death of more animals.

USDA already banned it in USA. Also Indian companies claimed that they stopped using bone char in filtration of sugar, years ago. Now a days no any sugar company using this shit anymore. Links are in comment. Don't be fooled by rumours and the old unhygienic sugar making by bone char Videos on the internet and youtube.

Be happy, but please use it low as possible because you have already enough sugar in your other foods. Have a nice day! ~ Shubhanshu 2020©

For Information/Evidence Click here

बुधवार, मई 27, 2020

Right and Wrong are not depends on our point of view.




आपत्ति: जो आपकी सोच के विपरीत या खिलाफ़ है आप उसे खुद से दूर कर देते हैं। इस तरह आप भी वर्णवाद कर रहे हैं।

शुभ: कोई मेरी सोच के खिलाफ नहीं है। दरअसल वे विज्ञान और नैतिकता के खिलाफ हैं। मेरी सोच कोई धार्मिक या अवैज्ञानिक मान्यता नहीं है जो साबित न की जा सके। इसलिये यह स्पष्ट है कि गलत और सही को अलग करना सम्भव है।

घटिया इंसानो की संगत करने से घटिया ही बनते हैं। जब कोई अपराध करता है तो उसी समय निर्दोष और अपराधी के गुट बन जाते हैं।

इसलिये गलत और सही, चोर और पुलिस में यदि वे वाकई में अपने प्रति ईमानदार हैं तो दोस्ती नहीं हो सकती। गलत और सही विज्ञान और नैतिकता तय करती है। नैतिकता हम जो खुद के लिए व्यवहार चाहते हैं वही दूसरो से करें यह तय करता है। अपराध कानून तय करता है।

ऐसा लगता है कि गलत और सही आपका नज़रिया होता है। परंतु फिर कानून किसी को गलत कैसे ठहराता है? दरअसल गलत और सही, दूसरे निर्दोष का नुकसान करने वाला या उसके अधिकारों का हनन करने वाला ही होता है और इसे कोई नज़रिया नहीं बदल सकता। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

मंगलवार, मई 26, 2020

No any vegan food is harmful, if you eat them as a food!




प्रायः कोई भी प्राकृतिक vegan उत्पाद स्वास्थ्य को नुकसान नहीं करता। नशे जैसे तम्बाकू, गांजा, अफीम, दारू और ड्रग आदि के दुरूपयोग के अलावा।

वनस्पति घी: भी अप्राकृतिक तरीके से बनता है (रिफाइंड तेल पर धातु के उत्प्रेरण से) और अगर इसमें saturated fat और ट्रांस फैट स्वीकृत मात्रा से अधिक है तो दिल के लिये नुकसानदेह होगा। 0% कोलेस्ट्रॉल

रिफाइंड तेल (unsaturated fat, दिल के लिये best): ये मांस, अंडे, दूध, मक्खन, देशी घी (पशुवसा) से जमा कोलेस्ट्रॉल को साफ करता है और आपकी उम्र लम्बी करता है। 0% कोलेस्ट्रॉल

मैदा: बारीक पिसा गेंहू। 0% कोलेस्ट्रॉल। मैदा को शोधन करने में कोई भी हानिकारक पदार्थ, उसमें नहीं छोड़ा जाता है। शोधन की प्रक्रिया केवल उसे साफ करने के लिये होती है, न कि गन्दा करने के लिये।

लेकिन कुछ अपवाद हैं। जैसे RO Water। RO water शोधन प्रक्रिया में उसकी अकुशलता के चलते पानी में कुछ हानिकारक पदार्थ जल में मिल जाते हैं जो उसे कड़वा बनाते हैं। इस पर आपको पूरी प्रमाणित रिपोर्ट गूगल पर मिल जाएगी। WHO ने क्लोरीन और कार्बन फिल्टर वाले पानी को 100% सुरक्षित बताया है।

कोई भी सब्जी, फल या अनाज हो, सब के सब सुरक्षित और पौष्टिक है। कोई वनस्पतियों में अपवाद होगा तो वह जनमानस के लिये उपलब्ध ही नहीं होगा।

और कोई हानिकारक पदार्थ आपको वनस्पति जगत से बताया गया हो तो मुझे बताइये। मैं उसका भी वैज्ञानिक विश्लेषण करके बताऊंगा उसका सत्य। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

रविवार, मई 24, 2020

Nature drived instincts are our real religion




प्रचलित धार्मिक (रिलिजियस) दिखने के लिये डरपोक होना ज़रूरी है और प्रचलित धार्मिक होने के लिये मूर्ख होना ज़रूरी है।

प्रचलित धर्म: मानव निर्मित एक ऐसी नौटंकी जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है।

प्राकृतिक धर्म: प्रकृति ही सबका पहले से स्थापित धर्म है। हम सब जीव-जन्तु एक समान हैं। सबको यहाँ अपने प्राकृतिक स्वभाव के अनुसार जीवन जीने का हक है। अतः हम सबका धर्म हमारा अपना स्वभाव है जैसे हर जानवर का अपना स्वभाव होता है।

संविधान: जो स्वभाव से परे जाते हैं उनके लिये संविधान है। अर्थात व्यवस्थित समाज में अव्यवस्था फैलाने वाले लोगों और जन्तुओ को रोकने, कैद करने व सज़ा देने का विधान! ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

शनिवार, मई 23, 2020

Feelings are your source of all miseries




जब भावना ही नहीं होगी, तो सब वही करेंगे जो विज्ञान और प्रकृति से, स्वभाव से उचित होगा। न कोई नफरत करेगा, न प्रेम के दिखावे की ज़रूरत पड़ेगी। हर इंसान ईमानदार होगा क्योंकि लालच की भावना नहीं होगी। कोई झगड़ा ही नहीं होगा क्योंकि बात सही या गलत बिंदु पर खत्म होगी।

न सम्मान की भावना न गुस्से और अपमान की भावना जागेगी। तब न तो कोई धर्म होगा और न ही कोई वफादारी के न मिलने पर कत्ल करेगा। क्योंकि लोग सिर्फ सत्य का साथ देंगे। वफ़ा तो पक्षपाती होती है। विवाद शांतिपूर्ण तरीके से निबट जाएंगे क्योंकि तब कोई अपनी मनवाने के लिये ज़िद नहीं करेगा। जो सही होगा वही मान लिया जाएगा।

अच्छी भावनाओं से ही बुरी भावना जुड़ी होती है। आप किसी से प्रेम करते हैं तो बाकियो से नफरत हो जाएगी। आप किसी पर दया करते हैं तो उसे दयनीय बनाने वाले पर आप नफरत और गुस्से से टूट पड़ोगे।

जब आप अच्छे और ईमानदार बनोगे तो जो आप जैसे नहीं हैं, उनको आप मार डालने की सोचोगे। गर्व की भावना आपको बाकियो से श्रेष्ठ दर्शा कर दूसरों को तुच्छ बना देगी और आप उनको नफरत से देखोगे।

जानवरों में भी भावनाओं का ज्वार होता है लेकिन वह इंसान जितना घमंडी नहीं होता। उसे खुद पर घमण्ड नहीं होता। इसलिये वह इतना भावुक नहीं दिखते जितने कि घमण्डी मानव। इंसान घमंडी था नहीं। इसे धर्म और कुछ धर्म द्वारा संचालित वैज्ञानिकों ने ऐसा बनाया। उन्होंने कहा कि इंसान श्रेष्ठ है, क्योंकि उस पे ज्यादा आयतन का मस्तिष्क है या इंसान कल्पित ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। परन्तु इस अतिरिक्त मस्तिष्क की आवश्यकता क्या है? ये वे कभी नहीं बता पाए। चलिये मैं बता देता हूँ।

इंसान इतना तुच्छ जंतु है कि ये प्रकृति में ज्यादा देर टिक नहीं पाता। उसका सारा मस्तिष्क प्रकृति को कैसे बर्बाद और नष्ट करके आलस्य बढाने वाले कार्य करें, इस पर केन्द्रित रहता है। इसमें इतनी भी क्षमता नहीं कि मौसम और एक दूसरे की हवस भरी नज़रों की मार से बच सके। उसने इसके लिये अपने ऊपर जानवरो की खाल ही कपड़े बना कर ओढ़ ली।

इससे गिरी हुई हालत और क्या होगी कि इंसान को अपनी त्वचा तक बेकार लगती है। उसको ढकने के लिये उसने बलात्कार संस्कृति और फैशन बाजार की व्यवस्था की। अब वह ज़मीन पर पैर नहीं रखता, क्योंकि उसे चप्पल या जूते चाहिए।

उसे हाथ खुले रखने में भी समस्या है। दस्ताने पहनता है। वह अपने चेहरे व शरीर से भी संतुष्ट नहीं है। उसे उस पर भी लाखों रुपये लगाकर मेकअप और सर्जरी करवानी हैं या छेद करवा कर उसमें कील कांटा पहनना है। कुछ नहीं तो स्थाई टैटू बनवा कर ही दूसरे से अलग दिखना है। चाहें भद्दे ही क्यो न दिखें!

वह इतनी जल्दी बीमार पड़ता है कि मर ही जाता, अगर उसने चिकित्सा जगत की खोज न की होती। इंसान की ज़िंदगी छुई मुई सी है, जो इसने अपने मस्तिष्क की मदद से बचा रखी है। इसका मस्तिष्क केवल अपनी कायर और विकलांग ज़िन्दगी को बचाने के लिये काम आया।

इस कायर और विकलांग ज़िन्दगी को जीकर इसे खुद पर गुमान हो आया कि अरे वाह, देखो मैं भी जानवरों के जैसे अनुकूल जीवन जी सकता हूँ। प्रकृति ने तो मुझे अनुकूल बनाया ही नहीं।

लेकिन उसने जानवरो से भी ईर्ष्या रखी क्योंकि जानवरों पर पहले से सबकुछ था, जिससे वे मस्त होकर जीवन जीते थे। इससे चिढ़ कर उसने उनको ही खत्म कर देने की ठानी। इसलिए उसने Zoo बनाये, उनका व्यापार किया, उनका इस्तेमाल किया, उनका दोहन किया, उनका दूध चूसा, उनका कत्ल किया, उन पर प्रयोग करके उनको काटा, नोचा, खाया। उसने मेडिकल साइंस में बिना किसी प्रमाण के खुद को सर्वाहारी दर्शाया। जबकि सर्वाहारियो का एक भी लक्षण वह नहीं रखता था।

इतना कमज़ोर है इंसान और खुद को ही श्रेष्ठ कहता है? फिर जब कोई इसको खुद को श्रेष्ठ कहता दिखता है, तो ये उसे भी टोकने पहुँच जाता है और कहता है, "वाह! जी वाह! अपने मुहं और मिया मिट्ठू? घमंडी कहीं का।" क्योंकि, कोई और उस जैसा सोचे, तो उस घमण्डी को बर्दाश्त कहाँ होगा? एक म्यान में 2 तलवारें कैसे रहेंगी? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

शुक्रवार, मई 22, 2020

Breasts are important, don't neglect them




स्तनों की बनावट में 2 महत्वपूर्ण घटक होते हैं। वसा (fat) और प्रोटीन। प्रोटीन की वास्तविक बढ़त व सीमा, ऑक्सीटोसिन हार्मोन (प्रेम हार्मोन) की मात्रा, माता-पिता के जीन्स और पोषण की सही मात्रा निर्धारित करती है। अतः स्तन एक बार जिस सीमा तक विकसित हो जाते हैं उससे ज्यादा बड़े, सख्त और तनाव युक्त नहीं हो सकते।

इसी लिये स्तनों को उभारने, पुष्ट और तनाव युक्त करने के लिये इम्प्लांट सर्जरी ही विकल्प रह जाता है।

आपने जितने भी, सर्जरी के अलावा उपायों से फायदा देखा है उसके पीछे कुछ सामान्य कारण होते हैं। जैसे

1. फैट की मात्रा अधिक होने से स्तन अस्थाई रूप से बड़े दिख सकते हैं लेकिन लटके रहेंगे।
2. प्रोटीन की कमी से भी बड़े और कठोर स्तन ढल जाते हैं।
3. प्रोटीन और फैट, दोनो ही सही मात्रा में न हों तो पोषण, मसाज और व्यायाम स्तनों को कामुक और ठोस बना सकते हैं।
4. प्रोटीन स्तन का आभासी कंकाल बनाता है जो दबाने पर कठोर जालिका के रूप में महसूस किया जा सकता है। वसा लिपिड्स के रूप में इन प्रोटीन रेशों को चिकनाहट और सहारा प्रदान करता है। दोनो के संयोग से स्तनों का सही विकास होता है।
5. स्तन दबाने और मालिश करने से और मजबूत व सख्त होते हैं। ऐसा उनमें मौजूद प्रोटीन की मांसपेशियों के टूटने और दोबारा और मोटे जोड़ बना कर जुड़ने से होता है। ऐसा हर बॉडीबिल्डिंग करने वाले के शरीर के साथ वजन उठाने पर भी होता है। स्तनों को इतना ही दबाएं जितना बर्दाश्त कर सकें। परंतु हल्का दर्द भी हो, तो ही स्तन मजबूत और सख्त होंगे। दर्द मासंपेशियों के टूटने से होता है। निप्पलों पर हल्का पानी दिखना पर्याप्त मर्दन के लिये काफी है, परन्तु इतना भी न दबाया जाय कि रक्त निकल आये।
6. स्तन दबाने से ढीले नहीं होते। ढीले होने की अफवाह संकीर्ण विचारों वालों ने फैलाई है। दरअसल स्तन दबने के बाद लड़कियों को आनंद आता है (प्रायः संभोग के दौरान) और वे ज्यादा रिलेक्स हो जाती हैं। इस कारण से उनके स्तन भी रिलेक्स हो जाते हैं जो केवल कुछ समय के लिये ही ढीले होते हैं।
7. स्तन कोई लड्डू नहीं हैं जो दबाने पर फूट जाएंगे। इनका निर्माण ही स्पंजी कोशिकाओं से हुआ है जो दबाने के लिए ही बने हैं। ये मैथुन गद्दी कहलाते हैं जो मेढ़क में दूसरे तरीके की पाई जाती है। स्तन मसलने से वे मैथुन के समय योनि में तरलता लाते हैं और ओर्गास्म जल्दी होता है। जो महिला मैथुन के समय अपने स्तनों को मर्दन करवाती हैं उनको ओर्गास्म खूब बढ़िया और जल्दी होता है।
8. सभी तरह की ब्रा स्तनों को ढीला, बेडौल और दर्दभरा बनाती हैं। अगर बहुत ज़रूरी हो जैसे दौड़ते समय उछलने से रोकना, तो ही मुलायम स्पोर्टस ब्रा पहनिए। निप्पल दिख रहा है, ऐसा सोच कर कभी ब्रा न पहनिए। निप्पल है तो दिखेगा ही। बिना निप्पल के भला कौन आपको पसन्द करेगा?
~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

Feelings can make or destroy you!



मैं हर सबक अति करके ही सीखा हूँ। मैं बहुत ज्यादा भावुक हूँ ये सब जानते हैं। इसीलिए vegan भी बना, प्रेमी भी और अच्छा इंसान भी लेकिन इसी कारण मुझमें गुस्सा, लालच और नफरत भी भर गई। समय रहते इन पर नियंत्रण करने के लिये लोगों से दूर हो गया। खुद पर कार्य किया।

खुद में बदलाव लाये। फेसबुक को अखाड़ा बनाया और जो काम बाहर होता वह इधर करके जांच करी कि खुद पर कितना नियंत्रण हैं। 2017 से lockdown तक कोई भी स्पष्ट भद्दा शब्द नहीं बोला था। फिर पाया कि जो जितने भद्दे शब्द प्रयोग करता है उसके उतने ही ज्यादा चाहने वाले होते हैं तो खुद पर ढील दी ताकि फ्रस्ट्रेशन निकले।

मैं फेसबुक से समझ गया कि मेरा लोगों से मिलना जुलना खतरनाक है। इधर लोग मेरे ज़रा से सत्य बोलने पर भड़क कर जान से मारने की धमकी दे देते हैं, बदतमीजी करते हैं तो सोचो सामने होते तो मार ही डालते। इसलिये अनजान लोगों से दूरी ही भली।

जो भी मेरे जैसे या मेरे विचारों को पसन्द करने वाले मिलते हैं उनको ही असल जीवन मे भी मित्र बना सकता हूँ। मेरे जितना ज़हरबुझा प्राणी आम लोगों के जैसा घटिया नहीं है। इसलिये बढ़िया लोगों में ही मेरी पटती है। और बढ़िया लोग होते ही कितने हैं? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

मंगलवार, मई 19, 2020

The so called luck now you can create in reality



किस्मत क्या है? किसी के साथ लगातार अच्छा होना या लगातार बुरा होना। अच्छा होना good luck और बुरा होना bad luck.

किस्मत को बदला नहीं जा सकता, ये माना जाता है। इसीलिये इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। किस्मत/भाग्य/luck शब्द दरअसल विधि के विधान की ओर इशारा करता है। लोगों की मान्यता है कि भाग्य पहले से लिखी कोई योजना है जो आपकी मर्जी के बिना ही आपको ऊंचा या नीचा गिरा सकती है। नीचे गिरने को बुरा भाग्य और ऊपर उठने को अच्छा भाग्य कहा जाता है। इसे केवल देखा और महसूस किया जाता है परंतु नियंत्रित नहीं किया जा सकता, ऐसी मान्यता धार्मिक दे गए हैं।

परन्तु इतिहास गवाह है कि बहुत अधिक सफल लोगों के पास कोई न कोई लकी वस्तु होती है। कुछ मामलों में तो किसी का दोस्त, कोई पोशाक, कोई जानवर भी लकी पाया गया है। हैरी पॉटर की कहानी में भी लकी पोशन यानि भाग्यशाली काढ़ा सारी कहानी पलट देता है। इसे सबसे ताकतवर काढ़ा माना जाता है। कभी लकी सिक्का, कभी लकी जर्सी, कभी लकी ब्रेसलेट, कभी ताबीज आदि तमाम वस्तुओं को लोगों ने अपने लिए लकी बताया है।

ये सब बातें किसी न किसी वास्तविक सच्चाई की ओर इशारा कर रही हैं। कैसे कोई इतना मेहनती व्यक्ति अपनी जीत को एक वस्तु को समर्पित कर देता है? जब कभी भी ये लकी वस्तु उनके पास नहीं होती है तो वे वाकई हार जाते हैं।

कई मेधावी छात्र इसी प्रकार के टोटके को मानते देखे गये हैं। वे इनको कई बार आजमाते हैं, हर बार उनका अनुमान सही निकलता है। वे उसे धोते नहीं। उसे वैसा ही रखते हैं जैसा उनकी पहली जीत के समय वह था।

इस प्रकार यह तो तय है कि बहुत से अमीर मानते हैं कि उनकी मेहनत तो थी ही परंतु उनके साथ उनका भाग्य भी था। तभी वे बाकी अपने प्रतिद्वंद्वीयों से आगे निकल सके। इन बातों ने इतना प्रभाव डाला कि इन लकी वस्तुओं की चोरियां तक हुईं। उनको वापस पाने के लिये मुंहमाँगे इनाम रखे गए।

कहने का तातपर्य है कि बहुत लोग भाग्यवादी होते हैं और उपर्युक्त उदाहरणों से धार्मिक मान्यताओं जिनमें 'भाग्य बदला नहीं जा सकता', जैसा बताया गया है की धज्जियाँ उड़ जाती हैं।

मतलब ये तो पक्का हो गया है कि ये कथित भाग्य अटल तो कतई नहीं है। इसे बदला जा सकता है। उपर्युक्त उदाहरण कहते हैं कि भाग्य वस्तुओं से भी बदल सकता है। जबकि वैज्ञानिक जांच से हर लकी वस्तु दूसरी किसी वस्तु की तरह ही साधारण पाई गई। फिर इनमें ऐसा क्या था कि इनके धारक इनमें कोई शक्ति महसूस करते हैं?

इन सब सवालों के वैज्ञानिक सिद्ध जवाब मेरे पास हैं। कथित भाग्य होता तो कुछ नहीं है, परंतु आप इसे बना सकते हैं। कुछ भी पहले से लिखा नहीं है। सब आप अपने मन से लिख सकते हैं। आप अपना भविष्य अभी तय कर सकते हैं। ये पहले से निर्धारित भविष्य ही आपका असली भाग्य है। मैं इसी नये बने भाग्य को ही सरलता से समझाने के लिए पुराना भाग्य नाम दे रहा हूँ क्योंकि ये नया वाला उसी काल्पनिक जैसा कार्य करता है। दरअसल विज्ञान ने उपर्युक्त घटनाओं में छिपा रहस्य खोज लिया है।

हाँ आप अपना भाग्य बना सकते हैं। ये एकदम जादू की तरह महसूस होगा क्योकि आपको उसकी विधि पता नहीं होगी। बस उसका परिणाम पता होगा। बिल्कुल जैसे कहा जाता है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो। फल मीठा ही मिलेगा।

निराशा हमारी खुद की बनाई बदकिस्मती है। जब हम निराश होते हैं तो हम बर्बादी की ओर बढ़ जाते हैं। अब हम जो भी करेंगे, परिणाम बुरा ही होगा। इसलिए नकारत्मकता से दूर रहने को कहा जाता है। इसीलिए अच्छा सोचने और बोलने को कहा जाता है।

आपने मनहूसियत और काली जुबान वाले लोगों के बारे में भी सुना होगा। इसके पीछे भी यही रहस्य कार्य करता है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मेंटलिस्ट डैरिन ब्राऊन ने इस पर कई प्रयोग किये और कई लोगों की बदकिस्मती को खुशकिस्मती से बदल दिया। इसका प्रसारण टेलीविजन पर हो चुका है। यूट्यूब पर आपको इसके बहुत से वीडियो मिल जाएंगे।

यानि कुल मिला कर किस्मत होती है और इसे नियंत्रित किया जा सकता है। यह एक मानसिक उपकरण की तरह है। जो वाकई कार्य करती है। अच्छा या बुरा? ये आप तय करेंगे।

हैरिपोटर की कहानी में हैरी भाग्यशाली काढ़े को रौन वीसली के पेय में डालने का ढोंग करता है और रौन वाकई बेहतर प्रदर्शन कर देता है। यानि बात काढ़े की, लकी वस्तु की नहीं है। ये है आपके मन की। ये मन मैं काबू करना सिखाता हूँ। मैं हूँ the luck builder! ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

Poverty is a highest selling emotional product for communists and politicians



मजदूरों और किसानों की हालत खुद उन्होंने ही ज्यादा देखी है। भड़कने पर गृहयुद्ध भी उनको ही करना है। फ़िर सोशलमीडिया पर गरीबी पोस्ट करके किसे भड़काया जा रहा है? किसी को नहीं। ये बस like पाने की हवस, उनके नाम पर दान मांग कर ऐश करना और फेमस होने की हवस मात्र है।

मोबाइल-इंटरनेट वाला बस रिएक्शन कमेंट देकर, समोसे खाने चला जाता है। उसने पोस्ट फॉरवर्ड करके गरीबों का भला कर तो दिया है। उधर मजदूर और किसान अशिक्षा के मारे भटक रहे हैं गली-गली। उनके पुरखों ने यही किया था, वो भी कर रहे हैं। पहले उनको पढ़ने नहीं दिया जातिवाद ने और अब उनको कम्युनिस्ट पढ़ने नहीं दे रहे। उनकी रोटी तो गरीबों के खून को बहाकर उसकी फोटो वायरल करने से ही तो चलती है। सलाम तो सभी करते हैं लेकिन उसका रंग लाल तो खून से ही होगा।

कम्युनिस्टों की हाँ में हाँ तो मिलाते रहना है, अन्यथा आप निर्दयी, कठोर और गरीबों से नफरत करने वाले जो बन जाओगे। 🤣 गरीबों का क्या है? कट रही है ज़िन्दगी। 3-4 बच्चे उन्होंने बालमजदूरी के लिये पैदा कर लिए हैं। (भाड़ में गया कानून 😊) सरकार बच्चा पैदा करने पर इनाम जो देती है। 🤣

उनको राजनीति, सरकार से कुछ चाहिये होता तो मेहनत नहीं करते। आमरण अनशन पर बैठ जाते, अन्ना हजारे की तरह, गांधी की तरह! जिसे हम मोटे पेट वाले लोग देख कर आंसू बहाते हैं न, उनको इसकी अब आदत पड़ चुकी है। उनको अपनी हालत से कोई समस्या नहीं है और न ही आप उनका कोई भला कर सकते हैं, क्योंकि मदद उसी की कर सकते हैं जो मदद मांग रहा हो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©