Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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मंगलवार, जून 25, 2019

भूखा हूँ, तुमको खा लूँ? ~ Shubhanshu


विद्वान: जानवरों को न मारें तो उनकी संख्या बहुत बढ़ जाएगी।

शुभ: 1. इंसान की जनसंख्या बढ़ रही है या पशुओं की विलुप्त हो रही है? सेंचुरी और रिजर्व का मतलब पता है आपको? जानवरो को संरक्षण दिया जा रहा है इतनी ज़मीन को इंसान रहित करके। क्यों भैया?

2. जानवरों की संख्या बढ़ रही तो ऐसे कह रहे जैसे जंगल से पकड़ कर खाते हो। दरअसल बात खाने तक सीमित नहीं है। आपका धंधा है, सींग, खाल, कस्तूरी आदि अंगों का उनके। उसी तरह आपका धंधा है फार्म बना कर जानवरों की खेती करना। उनकी संख्या खेती करके बढ़ाते हो और फिर उत्पाद की तरह पेश करते हो। अगर संख्या का मुद्दा होता तो उनको फार्मिंग करके पशुपालन न हो रहा होता।

◆ मछली पालन
◆ दुधारू पशुपांलन
◆ मुर्गी/कुक्कुट पांलन
◆ सुअर पांलन
◆ बकरा पालन
◆ मधुमक्खी पालन
◆ लाख कीट पांलन
◆ रेशम कीट पांलन
◆ सीप (मोती) पांलन

आदि आपके धंधे चल रहे हैं। इनसे आपको पैसा मिलता है दुनिया को उल्लू बना कर। व्यापक स्तर पर वैज्ञानिक, इनकी संख्या बढ़ाने के लिए कृत्रिम प्रजनन तक कर रहे, जीन इंजीनियरिंग कर रहे, सब पैसे के लिए। कोई संख्या नहीं बढ़ रही जिसे वे कम कर रहे। उल्टे शिकारियों ने अभ्यारण्य और रिज़र्व में घुस कर विलुप्त प्रायः जन्तुओं को भी मारना चालू रखा है। (सलमान खान और काला हिरण केस) रिश्वत देकर वन्य विभाग से बचे खुचे मांसाहारी जानवर छुड़वा दिए जाते हैं गांव में ताकि ग्रामीण उनको मार डालें और उनकी खाल चुराई जा सके। सब स्वाद और धन का मामला है, सेहत का कतई नहीं। ह्रदय का दौरा, कैंसर, पथरी, मधुमेह आदि सब मांस की देन है।

अगर जनसंख्या की इतनी चिंता है तो जो बढ़ रही है उसे मारो-खाओ। कानून खत्म करो। धारा हटाओ कत्ल की। "खाने के लिए मानव हत्या" अधिकार बनाओ। जब vegan पशु के स्थान पर वनस्पति चुनते हैं तो कहते हो कि वनस्पति और जंतु में भेदभाव कर रहे। फिर आप भी तो इंसान और पशुओं में भेद भाव कर रहे हो? वाह भई, इंसांनो के लिए कानून है जानवरों के लिए कानून भी ढंग के नहीं? हलाल करने पर अगर जानवर को कष्ट नहीं होता और कानून मानता है तो आप भी इधर आइयेगा आपको हलाल करके दावत की जाएगी। कानून से आप ही लड़ो, जो हमें रोके तो। हम तो जो सही है वही करेंगे। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

रामायण में पोलस्य वध या मूर्खता पूर्ण लेखन? ~ Shubhanshu

अव्वल तो कहानी में ही साफ है कि कल्पना है सबकुछ। फिर भी उस पर इतनी चर्चा करते हैं लोग। लक्ष्मण ने सीता को आश्रम में नहीं सौंपा था वाल्मीकि को।

नारद ने वाल्मीकि को पूरी राम कथा सुनाई थी। उसे विस्तार से कल्पना करके वाल्मीकि ने लिखा था पोलस्य वध नाम से और लवकुश को दिया। जो कि नहीं जानते थे कि वे कौन हैं। यही ये पुस्तक लेकर वीणा के साथ गाते थे सड़को पर। फिर एक दिन राम का रथ उनको अपने महल ले गया और वहाँ पर वाल्मीकि के सामने लवकुश ने राम को वो रचना सुनाई। जो कि सुन कर राम आश्चर्य चकित हुए।

अब बताओ, कथा में जो पोल्सय वध नामक राम कथा राम को सुनाई गई वो कहाँ है? यही है तो इसमें इसका जिक्र कैसे?

कथा के अंत में राम मृत्यु पाकर सरयू नदी से पृथ्वी छोड़ देते हैं। साथ ही पूरी अयोध्या के सभी जीव भी। 11000 वर्ष शासन करने के बाद भी सभी लोग उनके साथ होते हैं। किसी की उम्र नहीं बढ़ती। दशरथ भी 6000 साल के थे। राम को उनके नदी में समाने, लक्ष्मण को आदेश की अवहेलना करने पर देश निकाला, आदि को पहले से ही लिख कर राम को सुनाया गया? क्या कमाल है। वाह। जिस वार्तालाप को राम और महाकाल ने उनके पृथ्वी छोड़ने के विषय में छिपाने को कहा था, वाल्मीकि ने दुनिया के सामने ला दिया।

कमाल ये कि नारद ने उसे कैसे सुना? लक्ष्मण को तो झंड होकर आत्महत्या करनी पड़ी क्योंकि उसे फंसाया गया था। राम ने कहा कि मुझे डिस्टर्ब मत करना महाकाल की मीटिंग में, उधर दुर्वासा ऋषि ने कहा कि मैं भूखा हूँ जबरन मुझे राम के हाथों से ही भोजन चाहिए अन्यथा राम समेत सबको भस्म कर देंगे। ऐसा ऋषि? बेचारे लक्ष्मण को खुद की मृत्यु का भय न लगा और सबको बचाने की खातिर मरने चला आया राम के पास।

रामचरित मानस में अहिल्या पत्थर की है जबकि असली वाली में महिला मात्र है, कोई लक्ष्मण रेखा असली में नहीं है जबकि तुलसी वाली में है।

जो तीर और लक्ष्मण रेखा बना कर दिखाया जाता है वह सब बाद में बनाया गया बिना रामायण पढ़े। क्योंकि जो तीर 7 पेड़ों में धंसा दिखाया जाता है वह तीर वापस तरकश में आ गया था।

विश्वामित्र ने अक्षय तरकश दिया था राम को। कोई भी तीर कहीं गिरता नहीं था। वापस आ जाता था। विश्लेषण: Shubhanshu Dharmamukt 2019©

ब्राह्मणवाद या जातिवाद? ~ Shubhanshu

शुभ: ब्राह्मणवाद जैसे शब्दों के प्रयोग से बचें। ये जातीय नफरत दिखाता है। इसकी जगह अस्पृश्यता जैसे संवैधानिक शब्द प्रयोग करें।

मित्र: ब्राह्मण से नफरत करना और ब्राह्मणवाद से नफरत करना, दोनों अलग हैं|,,, और ब्राह्मणवाद क्या हैं ?!?

शुभ: कुछ नहीं है सिर्फ नाक को पीछे से पकड़ना है। जब तक जाति का नाम आपके पास रहेगा उससे सिर्फ नफरत ही होगी। जबकि बहुत से ब्राह्मण लोग नास्तिक हैं और हमारे साथ हैं। ब्राह्मणवाद ब्राह्मण जाति से जुड़ा है और इसे इसके साथ ही खत्म किया जा सकता है, यही आप सभी की पोस्ट में देखेंगे। जबकि खत्म करनी है छुआछूत जिस के आधार पर बना है scst एक्ट।

ये ब्राह्मणवाद नफरत से निकला है। संविधान में इसका जिक्र नहीं है कहीं। एक क्षत्रिय और वैश्य से भी लोगों को नफरत है लेकिन उनके साथ यह वाद नहीं जोड़ा जा रहा।

असल नफ़रत एक ही जाति से की जा रही है जो कटोरा पकड़े है, बाकियों से उनको डर लगता है। बामसेफ की कार्यविधि और भाषण सुनिए। जिस बात को अलग से समझाना पड़े वह बात भ्रामक है और भ्रामक बातें षडयंत्र में इस्तेमाल होती है।

मित्र: जो चीज़ मानवी बुध्दि के समक्ष आती हैं, मनुष्य उसे एक नाम से संबोधित करता हैं| ब्राह्मण कहलाने वाले लोग,, दूसरों के मौलिक प्राकृतिक अधिकारों को नकार उनका दमन कर उनपर अपना वर्चस्व स्थापिक कर उनको अपना गुलाम बनाना चाहते हैं| इसी को ब्राह्मणवाद कहा गया हैं|और इस विचार के समर्थक ब्राह्मण आज भी ज्यादा तादाद में मौजूद हैं|

एक क्षत्रिय और एक वैश्य से भी लोगों को नफ़रत हैं औऱ यही तो ब्राह्मणवाद है; क्योंकि उनके ही शास्त्रों में कहा गया कि समाज न सिर्फ अनेक जातियों में बंटना चाहिए, बल्कि उनमें वर्गवार/वर्णवार विषमता होना अनिवार्य है| लोग एक दूसरे को नीच समझ एक दूसरे का द्वेष करते रहे|

शुभ्: तो वह ब्राह्मणवाद नहीं, वैदिक अनुशासन है जिसका पालन वे कर रहे। आपको वेदों और मनुस्मृति का विरोध करना है न कि किसी जाति का। उस किताब का विरोध करना जिसने उनको ये सिखाया। हैं तो सब मनुष्य ही। किसी जाति का नाम लगा कर हम मानव के नाम पर कलंक बन रहे हैं। जिसने भी ये ब्राह्मणवाद शब्द दिया उसने सिर्फ नफरत पेश की है।

हम कितना भी बहाना बना लें कि ब्राह्मणवाद कोई जाति से जुड़ा नहीं है लेकिन यह झूठ है। ब्राह्मण वाद से ब्राह्मण निकाला जाए तो केवल वाद रह जाता है। अतः यह सिर्फ जातीय नफरत के उद्देश्य से बनाया गया शब्द है जिसे किसी भी तरीके से जाति से अलग नहीं किया जा सकता।

अंबेडकर ने भी सिर्फ मनुस्मृति जलाई, किसी ब्राह्मण को नहीं जला दिया लेकिन आज हर कोई बाह्मण को मार डालने की बात कर रहा है। कहता है कि न रहेगा ब्राह्मण, न रहेगा बाह्मणवाद। और एक तरह से वह सही ही कह रहा है।

लेकिन मैं भी कह सकता हूँ फिर कि न रहेगा गरीब, न रहेगी गरीबी। न रहेंगे लोग, न रहेगी समस्या। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। सब को मार डालो, सबको खत्म कर दो, सब समस्या खत्म। लेकिन क्या यह उचित है?

मित्र: धूर्त लोग हैं भाई इस दुनिया में,,, मैं उनका विरोध करता हूं; मतलब उनकी गंदी सोच का विरोध करता हूं| बामण को मार डालकर समस्या मिटेगी नहीं,,,बढेगी


रविवार, जून 23, 2019

राजनीति: उपाय या समस्या? ~Shubhanshu

राजनीति का प्रचारक: क्या बकवास पोस्ट करता रहता है। देश में क्या हो रहा है कोई फिक्र है तुम्हें? BJP देश की लुटिया डुबो देगी।

शुभ: आप तो लुटिया को वापस ला रहे हैं। खुद सरकार चुनते हैं और फिर सबकुछ सरकार ही करे। जनता बस अपराध करके सरकार की परीक्षा लेती रहे। दरअसल सभी अपराध विपक्ष द्वारा सरकार को गिराने के लिए ही करवाये जाते हैं। क्या हमने देखा नहीं कि विपक्ष में कोई भी हो हमेशा उसे ही सबसे पहले गुंडाराज, बलात्कार और अपराध की खबर कैसे मिलती है? कैसे सबसे पहले विपक्षी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा ही शोशल मीडिया पर खबरें पोस्ट की जाती हैं?

आज तक, तेज़ आदि सबसे तेज़ खबरें लाने का दावा करते हैं लेकिन विपक्ष तो रॉकेट से भी तेज है। दरअसल विपक्ष ही ये सब घिनौने कार्य करवाता है। राजनीति ही देश की असली बीमारी है और आप उस बीमारी को फैलाने वाले वायरस हो। मैं तो लोगों को सुकून दे रहा हूँ। जिसकी उनको सख्त जरूरत है।

लोग सो नहीं पा रहे न्यूज़ सुन-पढ़ कर। अपने घर में ही हर किसी से डर लगने लगा है। जबकि सब मन में भर ही ये मीडिया रहा है। आप को इसकी लत लग गई है। रोज नया अपराध करना 'सावधान इंडिया' सिखाता है और विपक्ष भड़काता है, नए लड़को को। साम, दाम, दंड, भेद, सबकुछ करके, खून बहा कर, बस एक बार हराम का माल देने वाली कुर्सी मिल जाये।

10 साल से मैंने न्यूज़ पढ़ना बन्द कर दिया, TV पर सिर्फ 'डोरेमॉन' देखता रहा। दुनिया में क्या हो रहा, जानने से ज्यादा मेरे घर में क्या हो रहा है, ये जानने में मेरी ज्यादा दिलचस्पी रही। यही ज़रूरी भी है। हम अपना घर, परिवार सुरक्षित रखें, यही हमारी पहली ज़िम्मेदारी है। जब सब यही करेंगे तो आपको और हमें किसी और की चिंता करने की ज़रूरत नहीं रह जायेगी।

इसीलिये मैं लोगों को भयमुक्त करता हूँ और आप भयभीत। कौन बड़ा हुआ? निडर बनाने वाला या डरपोक बनाने वाला?

100 साल होने वाले हैं आज़ादी को। लेकिन क्या कोई समस्या हल हुई? हर 5 साल में कोई न कोई बैठा दिया जाता है प्रतिनिधि बना कर। क्या बदल गया? सभी समस्याओं को जस का तस बनाये रखा गया है और आप भोले-भाले लोगों को उल्लू बना कर उनका कीमती जीवन बर्बाद कर रहे हैं। कम समय है सबके पास। प्रदूषण, घर, परिवार की चिंता में वैसे ही सब मरे जा रहे हैं। दूसरों की दुर्दशा करके और हमें दिखा-बता कर हम सबको कतई मार डालो आप।

लेकिन मैं बचाऊंगा। मुझे जो भी कर मिलेगा, करके, लोगों को सुखी करने के उपाय बताता रहूँगा। सबको सुख चाहिए और मैं उसे पाने का रास्ता सबको बताऊंगा। आप कुढ़ते रहिये। रोते रहिये। बदलने वाला कुछ नहीं है।

अगर कुछ वास्तव में बदलना है तो खुद को बदलना सीख लो। देश से शिकायत करने से पहले खुद से शिकायत करो कि आपने देश को क्या दिया है? देश हम सबसे मिल कर बना है।

ईमानदार बनो, भ्रष्टाचार खत्म। बिजली पानी बचाओ, 24 घण्टे पानी-बिजली आने लगेगी। अपनी सुरक्षा के लिए मार्शल आर्ट सीखो-सिखाओ, महिलाएं सुरक्षित रहेंगी। बच्चियों और बच्चों को अपनी निगरानी में रखो, वे सुरक्षित रहेंगे।

सब कुछ आपके ही हाथों में है। सरकार तो बस सेना और विदेशों से व्यवहार करने, टैक्स लेने, गम्भीर आपदाओं में मदद करने तक सीमित है।

पुलिस को कामचोर और बेईमान आपने बनाया। बिना रिश्वत दिए आप मानते नहीं तो वो लेने में क्यों चूकें? फिर भी ऐसा हो तो एसएसपी से कंप्लेन करो और सब गलत पुलिसकर्मियों के नाम लिखाओ। निबट जाएंगे।

मानवाधिकार आयोग से सम्पर्क करो, करप्शन निरोधन विभाग से सम्पर्क करो। बहुत लोग करते हैं लेकिन सब क्यों नहीं करते? आपके सुखों की चाभी आपके ही पास है। दूसरे को न हम कभी जोर-जबरदस्ती से बदल सके हैं और न ही बदल पाएंगे।

कुछ समझ आया हो तो ठीक है, अन्यथा आप दोबारा मत दिखना। मुझे आपकी थोपी गयी सलाह की कोई आवश्यकता नहीं है, अपना जीवन जीने के लिए। नमस्ते।

राजनीति का प्रचारक: आपके चरण किधर हैं, गुरु जी। भाड़ में गई राजनीति। मुझे अपने साथ जोड़ लीजिये कृपया।

शुभ: क्षमा महोदय, मैं इस लायक नहीं। जो मुझे कुछ सिखाता है सिर्फ उसे ही मित्र बनाता हूँ और मैं किसी को सिखाने लायक अभी हुआ नहीं तो क्षमा कीजियेगा। पोस्ट वाल पर पढ़ सकते हैं लेकिन मित्र सूची में सबके लिए जगह नहीं है।

राजनीति का प्रचारक (अब साधारण इंसान): आज आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला है। कोटि-कोटि प्रणाम। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©


गुरुवार, जून 20, 2019

खुद को महसूस करें ~ Shubhanshu

जब किसी को दर्द होता है, तो क्या आपको उसका दर्द महसूस करने से पहले धर्म को याद करने की ज़रूरत है या किसी की मदद करना एक मानवीय स्वभाव है?

यहां तक ​​कि जानवरों में भी भावनाएं होती हैं और वे एक-दूसरे की मदद करते हैं।

दूसरों के दर्द और खुशी को महसूस करना हमारे डीएनए में है। देखिए, जब कोई मुस्कुराता है या हंसता है, तो हमें भी ऐसा ही लगता है और जब कोई रोता है, तो परिणाम हमारी आंखों में आंसू के रूप में आता है।

केवल धर्म हमें ईश्वर के नाम पर कठोर बनाता है। ये हमारे स्वभाव के विरुद्ध कुछ करने के लिए; जैसे समलैंगिकता, बिना शादी के संभोग करने वाले, नास्तिक लोगों, अन्य विभिन्न धर्म अनुयायियों की हत्या आदि के लिए उकसाता है।

धर्म हमारी मानवता के साथ-साथ प्राकृतिक नैतिकता को भी छीन लेता है। सभी को जीने की जरूरत और हक है। हम ऐसे किसी को भी मौत या सजा नहीं दे सकते जो हमें शारीरिक या मानसिक रूप से नुकसान नहीं पहुंचाता है। यदि आप वास्तव में किसी चीज को मारना चाहते हैं, तो सभी धर्मों को मार डालो। यहां तक ​​कि वे बहुत दयालु दिखते हैं। वे सभी धीमे जहर हैं। वे अपने दर्दनाक काले पक्ष को एक वास्तविकता के रूप में दिखाने में समय लेते हैं।

खुद को महसूस करें, अपनी आंतरिक स्वाभाविक नैतिकता को महसूस करें। यह साबित न करें कि आप एक इंसान नहीं हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य बुद्धिमान, दयालु और वफादार हैं। अगर यह है, तो हमें दूसरे के नियमों को ख़ुद पर लागू करने की आवश्यकता क्यों है? हम सोच सकते हैं और हम स्वतंत्र रूप से रह सकते हैं, हम सब पैदाइशी स्वतन्त्र होते हैं!  😊 ~ शुभांशु धर्ममुक्त २०१९©

Feel Yourself ~ Shubhanshu

When someone in pain, do you need to recall Religion, before feeling his/her pain or just it's human nature to help someone?

Even animals has feelings and they helping each other's.

Feeling pain and joy of others are in our DNA. See, when someone smiling or laughing, we also feels the same and when someone crying, the result comes in our eyes as tears.

Only, religion makes us hard in the name of god, to do something against our nature, as killing someone for homosexuality, sex without marriage, atheists, other different religion followers etc.

Religion takes our humanity as well as natural morality. Everyone needs to live. We can't give death or punishment to anyone who don't harm us physically or mentally. If you really want to kill something, kill all the religions. Even they looks very kind. They all are slow poisons. They takes time to bloom to show their painful black side as a reality.

Feel yourself, feel your inner natural morality. Don't prove that your are not a human. They says that humans are intelligent, kind and faithful. If it is, then why we need to impose other's rules on us? We can think and we can live freely, as well as we are born free! 😊 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 

बुधवार, जून 19, 2019

आपकी वयस्कता ही आपकी आज़ादी ~ Shubhanshu

मैं एक नई रीत शुरू कर रहा हूँ। अब से मैं जन्मदिन नहीं बल्कि अपना स्वतंत्रता दिवस मनाऊंगा। जन्म की तिथि को नहीं, अपने वयस्क होने की तिथि को। वह भी वही होगी लेकिन मैं उस पर वर्ष लिखूंगा हमेशा, वही जो था मेरे 18वें वर्ष में। इस दिन मैं आज़ाद हो गया था, अपने माता-पिता से, मेरे केयर टेकर से, मेरे गार्जियन से। आज़ाद हो गया था अपनी मर्जी से जीने, गलती करने और सज़ा पाने के लिए। हो गया था आज़ाद, चुनने के लिए कि क्या सही है और क्या गलत है मेरे लिए। 

ज़िम्मेदार हो गया था खुद के प्रति। मेरा ये शरीर, ये जीवन बड़ी ज़िम्मेदारी है। इसे पूरा खर्च करना है। खुद के लिए। जीवन सुखों के लिए जीना है। दुःख हुआ तो वो भी मेरा हो। मेरा सुख तो मेरा होगा ही। किसी पर आरोप नहीं लगाना है तब से। खुद को आरोपी बनाने में ही ज़िम्मेदारी है। ठोकरें ही तो सिखाती हैं जीना।

भूल गया था दूसरों के गमों को, खुद के कम थे क्या? कौन आया मेरे आंसू पोछने जो किसी और को पंगु बना दूँ? आज जब खुद के दम पर जीने का इंतज़ाम कर लिया तो सफल हूँ। ये सफलता है मेरी खुद की। किसी का कोई हक नहीं इस पर और अब मैं कुछ छोड़ जाऊं तो ये होगा असली एहसान।

याद रखिये आपके मरने के बाद ही आपके बारे में अच्छी बातें होंगी। जीते जी कितनो के भी आंसू पोछिये, जूते ही खाओगे। इसलिये अच्छे से जी लो। आप अपने कर्म भुगतो, दूसरों को उनके भुगतने दीजिये। यही सच्ची समाज सेवा और आपका योगदान होगा। उदाहरण बनूँगा और बाकी उससे सबक लेंगे। याद रखिये सबको ख़ुशी नहीं दे सकते आप। फिर कुछ को हंसा के बाकी को रोता छोड़ोगे तो वो बद्दुआ देंगे। बेहतर है किसी की बद्दुआ और दुआ मत लो।

मर जाने के बाद मेरी सम्पत्ति किसी अच्छे कार्य में लगेगी तो सब गर्व से याद करेंगे। अभी तो बस गाली ही पड़ेंगी। कहेंगे कि शो ऑफ कर रहा है। सब इसके प्रसिद्ध होने के बहाने हैं। कोई एहसान नहीं कर रहा। नेता बनने के चोचले हैं। समझे कुछ?

मैं तो 18वें जन्म दिन की आज़ादी की खुशी याद करूंगा हर साल। कुछ अच्छा करूँगा, उस दिन जिससे मुझे खुशी मिले। आप जो मर्जी करो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मरती नदी, मरता जीवन ~ Shubhanshu

जब लोग मरते हैं तो इतना दुःख नहीं होता क्योंकि प्रायः उनके अपने कर्म उनकी दशा के ज़िम्मेदार होते हैं और बहुत हैं, बेवजह जीते हुए पर्यावरण को बर्बाद करते, भूजल, ज़मीन और जंगल बर्बाद करते हुए। लेकिन जब एक नदी की मौत होती है...

तब आँसू आ जाते हैं मेरी आँखों में, क्यों कि एक नदी सिर्फ पानी की एक धारा नहीं होती। वो ज़िन्दगी होती है जंगल, गांव और शहर की। एक बम फटता है तो ज्यादा नहीं मरते, लेकिन जब एक नदी मरती है तो वो मिटा देती है अपनी राह के हर ज़िंदा अस्तित्व को। एक नदी अकेले नहीं मरती। वो साथ ले जाती है, अस्तित्व, जीवन का।

भूजल की कमी से नदी सूखती हैं, कृपया भूजल की जगह क्लोरीन फिल्टर से पानी साफ करके पिएं। इस्तेमाल किया पानी फिर इस्तेमाल करने का जुगाड़ करें। वर्षा का जल नाले में जाने की जगह सोक पिट बना कर भूमि में समाने की व्यवस्था करें। इसे वाटर हार्वेस्टिंग कहते हैं। आपके लिए ही मेरी भी एक पुकार है, ये जीवन आपके ही हाथों में है। चाहों तो आने दो, या चाहों तो जाने दो। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मूर्खों की सामूहिक ताकत और अकेले विद्वान ~ Shubhanshu

जो आपकी संगत में उतपन्न सोच के जैसा लिखे, वह महान लेखक। जो आपकी मूल समस्याओं की जगह अपनी भड़ास दूसरों पर निकालने वाली सोच रखे, वो महान। जो लड़ने-भिड़ने, मारने-काटने की बात करे; बिना तर्क के और इंसाफ को मजाक कहे, वह महान। जो खुद को बदलने की जगह दूसरों को जबरन बदलने के लिए शोर मचाये, वो महान। दरसअल 96% ऐसे लोग मूर्ख हैं और खुद को महान समझते हैं क्योंकि उनकी 'संख्या' ज्यादा है।

उनको महामूर्ख का चुनाव करके उसे सबसे महान बनाना ही होगा क्योंकि उसमें उसकी वाली सारी मूर्खता एक ही जगह पर एकत्र है। जहाँ वह सभ्यता की बात नहीं करता, नृशंसता और हैवानियत की बात करता है। उदाहरण साफ दिखाते हैं कि कैसे एक शांति और विकास की बात करने वाला भीड़ द्वारा कुचल दिया जाता है और कैसे उस भीड़ को भेजने वाला एक हिंसा भड़काने वाले भाषण को देकर (बिना बुद्धि के गाल बजा कर) सर्वप्रिय और सबका मालिक समान बन जाता है।

इस समाज में सामाजिक कौन है? हर किसी को, हर किसी से तो नफरत है। सड़क पर कोई वाहन टकरा जाए तो सब बिना मामला जाने कमज़ोर पर टूट पड़ते हैं। जब कोई घायल हो जाता है तो उसकी वीडियो बना कर साथियों को डराने का मनोरंजन तैयार किया जाता है। घायल जब लाश बन जाता है तब उसे पुलिस उठा कर पंचनामा भर के ठिकाने लगा देती है। जानवर वही सुरक्षित है जिसे आपके धर्म ने बचा लिया। (बाकी सब तो आपके जानी दुश्मन हैं) कोई पानी मांगता है तो कहीं नल नहीं दिखता। उसके हत्थे तक निकाल कर रख लेते हैं लोग, ताकि पानी की बोतल बिक सके। जिस पर पैसा नहीं वो सीधा नाली में मुहँ डाल दे।

किसे समाज बोलते हो आप? उसे, जहां पढ़ने, प्रेम करने और साथ रहने पर कत्ल कर दिया जाता है? जहाँ आपके कपड़े कितने होने चाहिए और कैसे होने चाहिए, ये लोग तय करते हैं? जहाँ अगर कोई कार्य/नौकरी नहीं कर पा रहा तो उसे अपराधी घोषित कर देते हैं?

कोई विवाह नहीं कर रहा तो वो गलत, कोई बच्चा नहीं पैदा कर रहा तो वो गलत, कोई बच्चा पैदा करके उसकी देखभाल नहीं कर पा रहा, तो वो गलत, कोई ईमानदार है, तो वो गलत, कोई (आपसे) ज्यादा बेईमान है तो वो गलत; कोई रिश्वत ले रहा, तो गलत, कोई रिश्वत नहीं ले रहा, तो वो भी गलत।

इस समाज में सही क्या है? सब उसी पटरी पर चलना चाहते हैं जिस पर उनका बाप चला था। चाहें वह पटरी टूट ही क्यों न चुकी हो। चाहें उस पर सिग्नल हो या न हो। अंधी पटरी है, उसी पर चलते जा रहे हैं। न जाने कहाँ जा रहे हैं? न जाने कहाँ ले जाना चाह रहे हैं? न जाने क्या चाहते हैं और कहते हैं कि सुख नहीं मिलता, कोई सुख दे दे।

लोग, उनके पास जाकर सुख मांगते हैं जो खुद सामाजिक नहीं हैं। जो बाबा बन गया, परिवार, समाज, विवाह, नौकरी, बच्चे, सम्पत्ति से दूर हो गया, उससे सुख की चाभी मांगने जाते हैं।

इतना बड़ा मूर्ख है 96% मानव और सीना तान कर श्रेष्ठ बना फिरता है। घरों में दुबक कर, कपड़े में खुद को जलने/ठंढाने से बचाने के लिए, खुद की प्रजाति से ही नग्न रहने में शर्माता हुआ, उसी को जान से मारने के इरादे लिए, उसी के कहने पर चलते हुए, उसी के रहमोकरम पर मिलने वाले चंद, कागज के उसी के बनाये नकली धन से अपना पेट पालने का नाटक करते हुए; दूसरों का पेट काट कर, पशुओं से खुद को श्रेष्ठ बताते हुए नहीं थकता है। भूल जाता है कि वह भी पशु है। उसका वर्गीकरण भी उन्हीं के साथ किया गया है विज्ञान में, लेकिन झूठ (ईश्वर) को मानने वाले सत्य क्यों मानेंगे भला?

कोई-कोई निकल आता है इस भीड़ से। 4 प्रतिशत में अपना नाम लिखाने, तो बाकी के 96% लोगों को आग लग जाती है। वे उसे अपने जैसा मूर्ख बनाने के लिए सबकुछ कर डालते हैं। न मानने पर उसे मार डालने में भी कोई हिचक नहीं। यह 96% संख्या बहुत बड़ी ताकत है। इसे कुछ कह दें, तो ये हमला करेगी।

इसमें बस कुचल देने की ताकत है। हंस कर गले लगाने की इसकी औकात ही नहीं। इसीलिये जला दिए इसने वो हीरे (हीरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है जबकि वह पृथ्वी का सबसे कठोर पदार्थ है) जो 4% में अपना स्थान रखते थे। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के सब अंडे निकालने की चाहत और उस अंडे के बनने का धैर्य न होना, खिसिया कर मुर्गी ही मार देना, इस भीड़ का ही गुण है।

बच जाते हैं कोई-कोई, जो समझ जाते हैं इस खेल को। बच जाते हैं भीड़ से। सीख लेते हैं अकेले जीना, सीख लेते हैं "जीना"। वही 4% हिस्सा बनाते हैं।

बाकी खो जाते हैं, इस 96% में, बन जाते हैं भीड़ का हिस्सा, नोच कर फेंक देते हैं इंसानियत, बन जाते हैं हैवान; मिटा देते हैं खुद की पहचान और बन जाते हैं खुद भी एक समाज। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शनिवार, जून 15, 2019

आचार्य जगदीश: अनसुलझा प्रयोग? ~ Shubhanshu

सामान्यतः जंतु तकलीफ महसूस करते हैं क्योंकि उनमें मस्तिष्क व तंत्रिका तंत्र होता है। सामान्यतः वनस्पतियों में मस्तिष्क और तंत्रिकाओं का पूर्णतः अभाव होता है इसलिये जगदीशचंद्र बसु का प्रयोग क्षद्मविज्ञान से अधिक प्रतीत नहीं होता।

मस्तिष्क हीन जंतु जैसे जेलीफिश और बहुत से जलीय स्थिर जंतु खुद पौधे जैसे दिखते हैं होते हैं वे दर्द महसूस नहीं करते बल्कि जलीय दबाव के प्रति क्रिया दर्शाते हैं। उसे एक निर्जीव क्रिया समझा जा सकता है।

पौधों की जन्तुओ से तुलना करने वाले मूर्ख लोगों को यह पता होना चाहिए कि पौधे और जंतुओं को जोड़ने वाली कड़ियाँ सिर्फ अपवाद होती हैं जो कि वर्गीकरण में भिन्न स्थान पर रखी जाती हैं।

मूल वर्गीकरण पौधे और जंतु में किया गया है जो कि मस्तिष्क हीन जीवन और मस्तिष्क युक्त तंत्रिका तंत्र से व गतिमान अवस्थाओं, जंतु-वनस्पति कोशाओं के मूलभूत अंतर पर और मानव से उसकी समानता पर जंतु जगत में और सजीव परन्तु जड़ निकायों के रूप में पौधों (वनस्पतियों) में किया गया है।

स्वपोषी में भी क्लोरोफिल वाली वनस्पतियों के अतिरिक्त कवक व मशरूम शामिल हैं जो अपना भोजन मृतोपजीवी के रूप में स्वयं ही बनाते है। प्रकृति में भोजन स्वयं बनाने वाली प्रत्येक खाने योग्य वस्तु/जीव जो किसी का अन्य का शिकार न करती हो वह प्राथमिक भोजन होती है।

जो जैसे पाचन तंत्र के साथ पैदा हुआ है उसे वैसा ही भोजन करना चाहिए और मानव वनस्पति आधारित पाचनतंत्र के साथ पैदा हुआ है यही अंतिम सत्य है। सर्वाहारी जंतु के रूप में भालू और बंदर आपके सामने हैं उनसे खुद की तुलना करके खुद देख लें। धन्यवाद! ~ Shubhanshu Singh Chauhan Vegan 2018©

नीचे जगदीश चन्द्र बसु का प्रयोग दिया गया है जिसमें वे पौधों में बिजली का करंट है, ऐसा साबित कर रहे हैं। जबकि वनस्पति विज्ञान में कहीं भी विद्युत स्पंदन का ज़िक्र नहीं मिलता (इनके प्रयोग को छोड़ कर)। विद्युत स्पंदन का बिना मस्तिष्कीय प्रोसेस के दर्द महसूस करने, प्रेम महसूस करने से क्या मतलब हो सकता है ये समझ से बाहर है, भले ही वे विद्युतीय प्रतिक्रिया देते भी हों। उस विद्युत का उपयोग वह भावनाओं को व दर्द को महसूस (process) करने के लिए किस अंग का प्रयोग करते हैं? वे अगर यह भी समझा देते तो मैं भी मान जाता इनकी महान खोज को।

वनस्पति के साथ जगदीश चन्द्र बसु का प्रयोग

बायोफिजिक्स (Biophysics) के क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने दिखाया कि पौधो में उत्तेजना का संचार वैद्युतिक (इलेक्ट्रिकल) माध्यम से होता हैं ना कि केमिकल माध्यम से। (जबकि विद्युत रासायनिक रूप से ही उतपन्न होती है) बाद में इन दावों को वैज्ञानिक प्रयोगो के माध्यम से सच साबित किया गया था। आचार्य बोस ने सबसे पहले माइक्रोवेव के वनस्पति के टिश्यू पर होने वाले असर का अध्ययन किया था। उन्होंने पौधों पर बदलते हुए मौसम से होने वाले असर का अध्ययन किया था। इसके साथ साथ उन्होंने रासायनिक इन्हिबिटर्स (inhibitors) का पौधों पर असर और बदलते हुए तापमान से होने वाले पौधों पर असर का भी अध्ययन किया था। अलग अलग परिस्थितियों में सेल मेम्ब्रेन पोटेंशियल के बदलाव का विश्लेषण करके वे इस नतीजे पर पहुंचे कि पौधे संवेदनशील होते हैं। वे "दर्द महसूस कर सकते हैं, स्नेह अनुभव कर सकते हैं, इत्यादि"।

मेटल फटीग और कोशिकाओ की प्रतिक्रिया का अध्ययन

बोस ने अलग अलग धातु और पौधों के टिश्यू पर फटीग रिस्पांस का तुलनात्मक अध्ययन किया था। उन्होंने अलग अलग धातुओ को इलेक्ट्रिकल , मैकेनिकल, रासायनिक और थर्मल तरीकों के मिश्रण से उत्तेजित किया था और कोशिकाओ और धातु की प्रतिक्रिया के समानताओं को नोट किया था। बोस के प्रयोगो ने simulated (नकली) कोशिकाओ और धातु में चक्रीय(cyclical) फटीग प्रतिक्रिया दिखाई थी। इसके साथ ही जीवित कोशिकाओ और धातुओ में अलग अलग तरह के उत्तेजनाओं (stimuli) के लिए विशेष चक्रीय (cyclical) फटीग और रिकवरी रिस्पांस का भी अध्ययन किया था।

आचार्य बोस ने बदलते हुए इलेक्ट्रिकल स्टिमुली के साथ पौधों बदलते हुए इलेक्ट्रिकल प्रतिक्रिया का एक ग्राफ बनाया, और यह भी दिखाया कि जब पौधों को ज़हर या एनेस्थेटिक (चेतना शून्य करने वाली औषधि ) दी जाती हैं तब उनकी प्रतिक्रिया कम होने लगती हैं और आगे चलकर शून्य हो जाती हैं। लेकिन यह प्रतिक्रिया जिंक (zinc) धातु ने नहीं दिखाई, जब उसे ओक्सालिक एसिड के साथ ट्रीट किया गया।

क्या बिना मस्तिष्क के ऐसा हो सकता है? क्या इनको अभी और रिसर्च की ज़रूरत महसूस नहीं हुई? अवश्य ही यह प्रयोग अधूरा है।

सोमवार, जून 10, 2019

अतिमूल्यांकित आत्मविश्वास से बचें ~ Shubhanshu

असली बुद्धिमत्ता यह जानना है कि आपको कुछ भी नहीं पता है ~ सुकरात

एक मूर्ख खुद को बुद्धिमान और बुद्धिमान खुद को हमेशा अज्ञानी समझता है ~ शेक्सपियर

इन दोनों कथनों पर रिसर्च हुई और यह निष्कर्ष निकाला गया कि दरअसल इन दार्शनिकों का कहना था कि खुद को अतिमूल्यांकित (Overestimate) करने वाले लोग मूर्ख सदृश कार्य करते हैं।

इससे अतिआत्मविश्वास उतपन्न हो जाता है और हमारी कार्यक्षमता घट जाती है। इसलिए बेहतर है कि हम पहले से ही खुद की भावी कार्यशैली व कार्यक्षमता का मूल्यांकन न करें बल्कि उसे आजमाते रहें, यह सोच कर कि अभी आप नए हैं और अभी भी सबकुछ नहीं जानते हैं।

इस विषय में एक और वाक्य याद आ रहा है:

"आप कुछ जान सकते हैं, दूसरों से कुछ ज्यादा जान सकते हैं लेकिन सबकुछ जानने का दावा हमें बिना प्रमाण के नहीं करना चाहिए।" ~ Vegan Shubhanshu Dharmamukt 2019©

रविवार, जून 09, 2019

धर्ममुक्त यानि Atheism Upgraded ~ Shubhanshu

मैं नास्तिक शब्द का प्रयोग आपकी प्रचलित समझ के लिए करता हूँ लेकिन ये शब्द best नहीं है। धर्ममुक्त बेहतर है। कैसे? देखिये, जब से पृथ्वी बनी तब से सब धर्ममुक्त थे लेकिन नास्तिक तब बना, जब आस्तिक आया। आस्तिकता आई, सबने अपनाई फिर उसमें तर्क करने वालों ने उसका खंडन किया और नास्तिकता अपनाई। अब उनका सारा जीवन आस्तिकता का खंडन करके ही कटने लग गया।

उन पर जुल्म हुए तो वो नफरत से भरते गए। जुल्म इसलिये हुए क्योंकि वे जबरन नास्तिकता को लोगों को दे रहे थे जबकि लोगो को आस्तिकता मे मज़ा आ रहा था। इसीलिए उन्होंने नास्तिको को ढूंढ-ढूंढ कर मारा/जलाया। इस तरह बेमतलब में नास्तिकता, आस्तिकता की दुश्मन बन गई। दोनो लड़ने लगे। समझना-समझाना समाप्त हो गया और रह गया कष्टमय और नफरत में सुलगता बदतर जीवन।

जबकि सब पहले धर्ममुक्त थे और अपना मस्त जीवन जीते थे। न कोई विचारधारा थी और न ही कोई सोच। सब अपना जीवन संतुलन में जीते थे। जिसका जो कर्तव्य और अधिकार था वह निर्विवाद स्वीकार किया जाता था। फिर कुछ धूर्तो ने धर्म (रिलिजन) बनाया और धर्ममुक्त समाज संकट में आने लगा। धर्मों ने ईश्वर की कल्पना करके उससे सबको डराया और गुलाम बनाने लगे। सीधे लोगों पर उन्होंने पहले अच्छे व्यवहार से विश्वास स्थापित किया फिर उन्होंने सूद समेत सब वसूलना शुरू किया। झुको और झुकाओ। फूट डालो और राज करो की नीति से लोगों को लड़वा कर वे उनके सगे बन गए।

जो इनको समझ गए वो इनका विरोध करने लगे। तब उन्होंने शैतान की कल्पना की और कहा कि ये लोग शैतान के इशारे पर कार्य करते हैं। इनसे नफरत करो। धर्ममुक्त होते तो अपना जीवन जीते। ये लड़-भिड़ रहे, इसका मतलब है कि इनको कोई लालच है तुमसे। इस बात में दम था, आस्तिक मान गए। फिर अब एक नास्तिक की value क्या रह गई? सब उनको paid एजेंट समझने लगे। उनकी बताई हर बात को धोखा मान कर अनदेखा करने लगे। नास्तिकता बुराई में तब्दील कर दी गयी। फिर बदलाव कैसे होता?

जबकि बदलाव लाने के लिए दबाव, बल की आवश्यकता नहीं होती। एक नास्तिक लड़ने पहुँच जा रहा, घमण्ड और गुस्से के कारण जबकि एक धर्ममुक्त मस्ती में नाच गा रहा। उसे मस्त देख कर सबको लगा कि ये कौन है जो इतना खुश है? हमें तो दुनिया भर के कष्ट हैं। उन्होंने उसका पीछा किया, उसको आज़ाद और बिना धर्म/ईश्वर/उपासना के प्रसन्न देखा तो उनकी समझ में आया कि हां, ये धर्म गुरु हमको मूर्ख बना रहे हैं। ये व्यक्ति निःस्वार्थ अपना जीवन मस्ती में जी रहा। इससे सीखो। नास्तिक का तो कोई स्वार्थ होगा तभी हमारी ज़िंदगी में हस्तक्षेप कर रहे हैं। ऐसा सोच कर आस्तिक धर्ममुक्त होने लगे और बदलाव स्वयं आने लगा।

खुद देखिये कि कैसे और क्या फर्क है धर्ममुक्त और एक जबरन भिड़ने वाले नास्तिक में। नास्तिकता को एक और ऊंचाई पर ले आइये। फिर से वापस आज़ाद धर्ममुक्त बन जाइए और देखिये कैसे विज्ञान अपना कार्य करने लगता है जो इस धर्म-अधर्म के कारण रुका हुआ है।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर।

न काहुँ से दोस्ती, न काहू से बैर।

धर्ममुक्त जयते, ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt

शनिवार, जून 01, 2019

धर्ममुक्त होना ही समय की मांग है ~ Shubhanshu

सनातन के लिए राम-कृष्ण-शिव-हनुमान आदि,

इस्लाम के लिये मोहम्मद,

सिख के लिए नानक व गुरु पुस्तक,

इसाई के लिये जीजस,

बौद्ध के लिये तथागत,

अम्बेडकरवादी के लिये बाबा साहेब,

जैन के लिए महावीर,

मार्क्सवादी के लिए कार्ल मार्क्स,

आदि पूजनीय हैं और इनकी बाकायदा मूर्तिपूजा (इस्लाम और सिख को छोड़ कर, सिख में तस्वीर व पुस्तक पूजन और इस्लाम में नाम की तस्वीर पूजन) चालू है। हमारे लिए ये सभी इतिहास के महापुरुष हैं (राम आदि को छोड़ कर क्योंकि उनका कोई पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं है)।

इनका आज के आधुनिक/वैज्ञानिक ज़माने में महिमामंडन, पुष्प पूजा व दिखावे वाला सम्मान करना मध्यकालीन युग मे वापस लौटने जैसा होगा। जो कि पुनः पाखण्ड का जनक बनेगा (काफी हद तक बन चुका है)।

ये सभी लोग खुद को नास्तिक साबित कर लेते हैं क्योंकि ये प्रसिद्ध लोग ईश्वर के रूप में वर्णित नहीं हैं। मानव के रूप में वर्णित हैं। नास्तिक केवल ईश्वर में भरोसा नहीं रखता। इस नियम से ये सभी धर्म (अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद अभी पंजीकृत धर्म नहीं लेकिन लक्षण समान हैं) नास्तिकों को भी धार्मिक बना रहे हैं।

क्या आप इस तरह की नास्तिकता चाहते हैं? यदि हाँ तो बताइये समाज में क्या फर्क पड़ेगा? सारा पाखण्ड यहीं का यहीं रह गया। वह हवाई ईश्वर तो पहले भी पूजा नहीं जाता था। फिर ऐसे नास्तिक पैदा करके क्या उखाड़ लिया हम सब ने? इसलिये व्यक्तिवाद छोड़ना ही होगा। महापुरुषों की जगह पुस्तको और उनकी शिक्षाओं की जगह हमारे मन में है। उनका मूर्ति/तस्वीर/नाम पूजन से कोई लाभ नहीं होने वाला बुद्धिमान मानव को।

इसलिये यह परम आवश्यक था कि एक नई विचारधारा लाई जाए जो मानव की शुद्धि करके उसे कठपुतली से वापस इंसान बना दे। मानव जब अस्तित्व में आया तो वह सभी प्रकार के पाखंडों से मुक्त था। वह किसी भी religion (धर्म) से मुक्त था। वह वास्तविक धर्ममुक्त था। फिर उसने आविष्कार किये और आधुनिक बनता गया। जिन्होंने आविष्कार किये वे धर्म/ईश्वर से मुक्त थे बाकी लोग (96%) को परिवार के चलते कुछ सोचने/करने/खोजने का मौका ही नहीं मिला।

चिंता और थकान में वे सोच न सके और अंधविश्वास में घिरते गए। कुछ धूर्त बुद्धि के विद्वानों ने धर्म की अवधारणा बना कर उनको विज्ञान से दूर रखा और इस तरह मेहनतकश लोग धार्मिक बनते चले गए। उनको लगा कि सोचने के लिए ये धर्मगुरु है न! इस तरह दुनिया धार्मिक हो गयी और 4% लोग आज़ाद सोच के चलते सफल होते गए। धर्मगुरु भी इन्हीं 4% में हैं क्योंकि दरअसल ये एकदम नास्तिक हैं। लेकिन धर्म भी इनके ही पुरखो ने बनाया तो धंधा है, अपनाना ही पड़ेगा।

इतनी सी गणित है दुनिया की। फिर क्या करें? कैसे इन 96% लोगों को भावी परिवार की ज़िम्मेदारी से आज़ाद करें, ताकि वे आज़ाद सोच सकें? इसलिये विवाहमुक्त, शिशुमुक्त, धर्ममुक्त जीवन का विचार आया और बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करके ही हम लोगों को समझा सकते हैं। अन्यथा आज 7 अरब को जगाओ तो अगले दिन फिर 7 अरब लोग पैदा हो जाएंगे। जल, जंगल, ज़मीन सीमित है और मानव असीमित।

भविष्य में एक दूसरे को ही खाना है तो आज पैदा न करने में क्या बुराई है दोस्तों? सोचो, समझो, 10 बार पढ़ो इसे, जो मैंने आपको बताया, उसको बार-बार परखो। मेरे कहने से मत मानो। खुद आज़माओ, खुद देखो करके। फिर अगर समझ में आये तो अमल में लाना। तुम्हारा ही कल्याण होगा। धर्ममुक्त जयते! ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 3:22 am, शनिवार 1 जूनधर्ममुक्त