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मंगलवार, जून 25, 2019
भूखा हूँ, तुमको खा लूँ? ~ Shubhanshu
रामायण में पोलस्य वध या मूर्खता पूर्ण लेखन? ~ Shubhanshu
ब्राह्मणवाद या जातिवाद? ~ Shubhanshu
रविवार, जून 23, 2019
राजनीति: उपाय या समस्या? ~Shubhanshu
गुरुवार, जून 20, 2019
खुद को महसूस करें ~ Shubhanshu
Feel Yourself ~ Shubhanshu
बुधवार, जून 19, 2019
आपकी वयस्कता ही आपकी आज़ादी ~ Shubhanshu
मरती नदी, मरता जीवन ~ Shubhanshu
मूर्खों की सामूहिक ताकत और अकेले विद्वान ~ Shubhanshu
शनिवार, जून 15, 2019
आचार्य जगदीश: अनसुलझा प्रयोग? ~ Shubhanshu
सोमवार, जून 10, 2019
अतिमूल्यांकित आत्मविश्वास से बचें ~ Shubhanshu
असली बुद्धिमत्ता यह जानना है कि आपको कुछ भी नहीं पता है ~ सुकरात
एक मूर्ख खुद को बुद्धिमान और बुद्धिमान खुद को हमेशा अज्ञानी समझता है ~ शेक्सपियर
इन दोनों कथनों पर रिसर्च हुई और यह निष्कर्ष निकाला गया कि दरअसल इन दार्शनिकों का कहना था कि खुद को अतिमूल्यांकित (Overestimate) करने वाले लोग मूर्ख सदृश कार्य करते हैं।
इससे अतिआत्मविश्वास उतपन्न हो जाता है और हमारी कार्यक्षमता घट जाती है। इसलिए बेहतर है कि हम पहले से ही खुद की भावी कार्यशैली व कार्यक्षमता का मूल्यांकन न करें बल्कि उसे आजमाते रहें, यह सोच कर कि अभी आप नए हैं और अभी भी सबकुछ नहीं जानते हैं।
इस विषय में एक और वाक्य याद आ रहा है:
"आप कुछ जान सकते हैं, दूसरों से कुछ ज्यादा जान सकते हैं लेकिन सबकुछ जानने का दावा हमें बिना प्रमाण के नहीं करना चाहिए।" ~ Vegan Shubhanshu Dharmamukt 2019©
रविवार, जून 09, 2019
धर्ममुक्त यानि Atheism Upgraded ~ Shubhanshu
मैं नास्तिक शब्द का प्रयोग आपकी प्रचलित समझ के लिए करता हूँ लेकिन ये शब्द best नहीं है। धर्ममुक्त बेहतर है। कैसे? देखिये, जब से पृथ्वी बनी तब से सब धर्ममुक्त थे लेकिन नास्तिक तब बना, जब आस्तिक आया। आस्तिकता आई, सबने अपनाई फिर उसमें तर्क करने वालों ने उसका खंडन किया और नास्तिकता अपनाई। अब उनका सारा जीवन आस्तिकता का खंडन करके ही कटने लग गया।
उन पर जुल्म हुए तो वो नफरत से भरते गए। जुल्म इसलिये हुए क्योंकि वे जबरन नास्तिकता को लोगों को दे रहे थे जबकि लोगो को आस्तिकता मे मज़ा आ रहा था। इसीलिए उन्होंने नास्तिको को ढूंढ-ढूंढ कर मारा/जलाया। इस तरह बेमतलब में नास्तिकता, आस्तिकता की दुश्मन बन गई। दोनो लड़ने लगे। समझना-समझाना समाप्त हो गया और रह गया कष्टमय और नफरत में सुलगता बदतर जीवन।
जबकि सब पहले धर्ममुक्त थे और अपना मस्त जीवन जीते थे। न कोई विचारधारा थी और न ही कोई सोच। सब अपना जीवन संतुलन में जीते थे। जिसका जो कर्तव्य और अधिकार था वह निर्विवाद स्वीकार किया जाता था। फिर कुछ धूर्तो ने धर्म (रिलिजन) बनाया और धर्ममुक्त समाज संकट में आने लगा। धर्मों ने ईश्वर की कल्पना करके उससे सबको डराया और गुलाम बनाने लगे। सीधे लोगों पर उन्होंने पहले अच्छे व्यवहार से विश्वास स्थापित किया फिर उन्होंने सूद समेत सब वसूलना शुरू किया। झुको और झुकाओ। फूट डालो और राज करो की नीति से लोगों को लड़वा कर वे उनके सगे बन गए।
जो इनको समझ गए वो इनका विरोध करने लगे। तब उन्होंने शैतान की कल्पना की और कहा कि ये लोग शैतान के इशारे पर कार्य करते हैं। इनसे नफरत करो। धर्ममुक्त होते तो अपना जीवन जीते। ये लड़-भिड़ रहे, इसका मतलब है कि इनको कोई लालच है तुमसे। इस बात में दम था, आस्तिक मान गए। फिर अब एक नास्तिक की value क्या रह गई? सब उनको paid एजेंट समझने लगे। उनकी बताई हर बात को धोखा मान कर अनदेखा करने लगे। नास्तिकता बुराई में तब्दील कर दी गयी। फिर बदलाव कैसे होता?
जबकि बदलाव लाने के लिए दबाव, बल की आवश्यकता नहीं होती। एक नास्तिक लड़ने पहुँच जा रहा, घमण्ड और गुस्से के कारण जबकि एक धर्ममुक्त मस्ती में नाच गा रहा। उसे मस्त देख कर सबको लगा कि ये कौन है जो इतना खुश है? हमें तो दुनिया भर के कष्ट हैं। उन्होंने उसका पीछा किया, उसको आज़ाद और बिना धर्म/ईश्वर/उपासना के प्रसन्न देखा तो उनकी समझ में आया कि हां, ये धर्म गुरु हमको मूर्ख बना रहे हैं। ये व्यक्ति निःस्वार्थ अपना जीवन मस्ती में जी रहा। इससे सीखो। नास्तिक का तो कोई स्वार्थ होगा तभी हमारी ज़िंदगी में हस्तक्षेप कर रहे हैं। ऐसा सोच कर आस्तिक धर्ममुक्त होने लगे और बदलाव स्वयं आने लगा।
खुद देखिये कि कैसे और क्या फर्क है धर्ममुक्त और एक जबरन भिड़ने वाले नास्तिक में। नास्तिकता को एक और ऊंचाई पर ले आइये। फिर से वापस आज़ाद धर्ममुक्त बन जाइए और देखिये कैसे विज्ञान अपना कार्य करने लगता है जो इस धर्म-अधर्म के कारण रुका हुआ है।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर।
न काहुँ से दोस्ती, न काहू से बैर।
धर्ममुक्त जयते, ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt
शनिवार, जून 01, 2019
धर्ममुक्त होना ही समय की मांग है ~ Shubhanshu
सनातन के लिए राम-कृष्ण-शिव-हनुमान आदि,
इस्लाम के लिये मोहम्मद,
सिख के लिए नानक व गुरु पुस्तक,
इसाई के लिये जीजस,
बौद्ध के लिये तथागत,
अम्बेडकरवादी के लिये बाबा साहेब,
जैन के लिए महावीर,
मार्क्सवादी के लिए कार्ल मार्क्स,
आदि पूजनीय हैं और इनकी बाकायदा मूर्तिपूजा (इस्लाम और सिख को छोड़ कर, सिख में तस्वीर व पुस्तक पूजन और इस्लाम में नाम की तस्वीर पूजन) चालू है। हमारे लिए ये सभी इतिहास के महापुरुष हैं (राम आदि को छोड़ कर क्योंकि उनका कोई पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध नहीं है)।
इनका आज के आधुनिक/वैज्ञानिक ज़माने में महिमामंडन, पुष्प पूजा व दिखावे वाला सम्मान करना मध्यकालीन युग मे वापस लौटने जैसा होगा। जो कि पुनः पाखण्ड का जनक बनेगा (काफी हद तक बन चुका है)।
ये सभी लोग खुद को नास्तिक साबित कर लेते हैं क्योंकि ये प्रसिद्ध लोग ईश्वर के रूप में वर्णित नहीं हैं। मानव के रूप में वर्णित हैं। नास्तिक केवल ईश्वर में भरोसा नहीं रखता। इस नियम से ये सभी धर्म (अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद अभी पंजीकृत धर्म नहीं लेकिन लक्षण समान हैं) नास्तिकों को भी धार्मिक बना रहे हैं।
क्या आप इस तरह की नास्तिकता चाहते हैं? यदि हाँ तो बताइये समाज में क्या फर्क पड़ेगा? सारा पाखण्ड यहीं का यहीं रह गया। वह हवाई ईश्वर तो पहले भी पूजा नहीं जाता था। फिर ऐसे नास्तिक पैदा करके क्या उखाड़ लिया हम सब ने? इसलिये व्यक्तिवाद छोड़ना ही होगा। महापुरुषों की जगह पुस्तको और उनकी शिक्षाओं की जगह हमारे मन में है। उनका मूर्ति/तस्वीर/नाम पूजन से कोई लाभ नहीं होने वाला बुद्धिमान मानव को।
इसलिये यह परम आवश्यक था कि एक नई विचारधारा लाई जाए जो मानव की शुद्धि करके उसे कठपुतली से वापस इंसान बना दे। मानव जब अस्तित्व में आया तो वह सभी प्रकार के पाखंडों से मुक्त था। वह किसी भी religion (धर्म) से मुक्त था। वह वास्तविक धर्ममुक्त था। फिर उसने आविष्कार किये और आधुनिक बनता गया। जिन्होंने आविष्कार किये वे धर्म/ईश्वर से मुक्त थे बाकी लोग (96%) को परिवार के चलते कुछ सोचने/करने/खोजने का मौका ही नहीं मिला।
चिंता और थकान में वे सोच न सके और अंधविश्वास में घिरते गए। कुछ धूर्त बुद्धि के विद्वानों ने धर्म की अवधारणा बना कर उनको विज्ञान से दूर रखा और इस तरह मेहनतकश लोग धार्मिक बनते चले गए। उनको लगा कि सोचने के लिए ये धर्मगुरु है न! इस तरह दुनिया धार्मिक हो गयी और 4% लोग आज़ाद सोच के चलते सफल होते गए। धर्मगुरु भी इन्हीं 4% में हैं क्योंकि दरअसल ये एकदम नास्तिक हैं। लेकिन धर्म भी इनके ही पुरखो ने बनाया तो धंधा है, अपनाना ही पड़ेगा।
इतनी सी गणित है दुनिया की। फिर क्या करें? कैसे इन 96% लोगों को भावी परिवार की ज़िम्मेदारी से आज़ाद करें, ताकि वे आज़ाद सोच सकें? इसलिये विवाहमुक्त, शिशुमुक्त, धर्ममुक्त जीवन का विचार आया और बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करके ही हम लोगों को समझा सकते हैं। अन्यथा आज 7 अरब को जगाओ तो अगले दिन फिर 7 अरब लोग पैदा हो जाएंगे। जल, जंगल, ज़मीन सीमित है और मानव असीमित।
भविष्य में एक दूसरे को ही खाना है तो आज पैदा न करने में क्या बुराई है दोस्तों? सोचो, समझो, 10 बार पढ़ो इसे, जो मैंने आपको बताया, उसको बार-बार परखो। मेरे कहने से मत मानो। खुद आज़माओ, खुद देखो करके। फिर अगर समझ में आये तो अमल में लाना। तुम्हारा ही कल्याण होगा। धर्ममुक्त जयते! ज़हरबुझा सत्यमेव जयते। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 3:22 am, शनिवार 1 जूनधर्ममुक्त