Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

Translate

सोमवार, जून 29, 2020

Civilization is the state of mind, not from someone's dressing sense



जब भी कोई पुरुष या महिला आपको कपड़ों को लेकर टोकता/ती है तो उसके 2 मतलब होते हैं:

1. अगर मैं (पुरुष) उत्तेजित हो गया तो तेरा यहीं बलात्कार कर दूंगा और इसमें तेरी ही गलती होगी।

2. अगर किसी पुरुष ने उत्तेजित होकर तेरा बलात्कार कर दिया तो इसमें तेरी ही गलती होगी। उसकी नहीं।

अब सोचो, ये खुले आम पुरुष प्रधान समाज की धमकी है कि उसे सजा का कोई डर नहीं है। उसे अगर मन किया तो वह किसी भी महिला को सड़क पर गिरा के *ध सकता है और अगर उसने विरोध किया तो जला कर मार भी सकता है। ये खुली गुंडई है और जो महिलाएं उनका साथ देती हैं, वे उन पुरुषों के ऊपर निर्भर हैं, इसलिये उन्हीं का साथ देती हैं। ~ Dharmamukt Shubhanshu 2020©

There is no any problem with female, problem is boundations



यदि आप इसलिये विवाह नहीं कर रहे कि महिलाएं नरक का द्वार हैं या वे बुरी या धोखेबाज होती हैं; ऐसी बात कहीं से सुन पढ़ रखी है, तो आप 1 नंबर के मूर्ख हैं।

दरअसल विवाह जिससे भी कर लोगे, वह आपसे बंध कर जल्द ही उकता जाता है और फिर वह अपनी जंजीर तोड़ने के लिये क्लेश करता है।

आज़ादी के लिये दुनिया मे लाखों लोग बली चढ़ गए लेकिन आज़ादी के बिना रोटी नहीं खाई। यही हमारे खून में है। हम सबको आज़ाद रहना है। आप पर कोई रोक टोक करे और आपको उसके टोकने में कोई भलाई न दिखे तो आप उससे कुढ़ने लगोगे।

यही नफ़रत क्लेश का कारण बनेगी। इसे दबा कर मन ही मन कुढ़ कर कैदी की तरह जी लिए तो विवाह सफल और अगर अंदर से इंकलाब ज़ोर मार गया तो मौके पर मौत या कत्ल के जुर्म में जेल। या कमज़ोर निकले, मुकाबला न कर सके; तो तलाक होना तो तय है।

फिर काहे अपनी "उसमें" छुरा कर रहे खुद ही? आपके विवाह का, चाहे आपकी मर्जी हो या न हो, एकमात्र ज़िम्मेदार, सिर्फ आप हो। और कोई नहीं। ये बात याद रखना। ~ Dharmamukt Shubhanshu 2020©

बुधवार, जून 24, 2020

Communism is a false propaganda, it's not possible completely



100% कोई भी समाज, आर्थिक रूप से बराबर नहीं हो सकता। कोई न कोई तो अधिक आर्थिक संपन्न होगा, तभी कमाई सम्भव है। जितने भी कम्युनिस्ट कम्युनिज़्म को बराबरी का उपाय बताते हैं वे झूठे हैं। बराबरी होने पर सभी कार्य रुक जाएंगे। जैसे, मजदूर, मजदूर के यहाँ नौकरी नहीं करेगा।

सब पर समान मात्रा में धन होगा तो वह खर्च करते ही असमान हो जाएगा। धन नहीं होगा तो हम वापस पाषाण काल में पहुंच जाएंगे और आदिवासी जीवन जीने लगेंगे।

क्या हम वापस आदिवासी बनना चाहते हैं? उधर भी मुखिया होता है जो साबित करता है कि कोई बराबर नहीं हो सकता। सब अपनी योग्यता से अपना स्थान पाते हैं।

सबके लिये अवसर समान हैं लेकिन किसी से धन सम्पत्ति लेकर (छीन कर) किसी फिजूलखर्ची को देना और बदले में उसी मूल्य का देनदार को कुछ न देना लूट है और इस तरह की बराबरी से सब आधुनिक समाज नष्ट हो जाएगा।

कम्युनिस्ट देश की करेंसी होने का अर्थ है कि वह देश कम्युनिस्ट नहीं है बल्कि उसकी आड़ में देशवासियों का शोषण कर रहा है। ताकि वह विश्वगुरु लग सके। घमंड ही इसकी बुनियाद है। इसीलिए इनका तानाशाह खुद को ईश्वर समझता है। ~ Shubhanshu 2020©

शनिवार, जून 20, 2020

In a hotel of Nainital


लड़की: कोई भी रूम नहीं है! अब क्या करूँ?

शुभ: बुरा न माने तो आप मेरे साथ कमरा शेयर कर सकती हैं। इतनी रात में बाहर सोना उचित नहीं।

लड़की: तुम लड़के हो, मैं तुम्हारा भरोसा कैसे करूँ?

शुभ: हाँ, उचित प्रश्न है। वैसे, मेरी भी माँ-बहन है। एक लड़का जब उनके साथ एक घर में जीवन भर रह सकता है तो आपके साथ तो केवल कुछ ही घण्टों की बात है। हो सकता है कोई और लड़का शराफत का सुबूत देने के लिये कमरे से बाहर सो जाता। लेकिन वो सुबूत कहाँ हुआ?

ये तो आप उसके छेड़खानी करने पर भी करवा सकती थीं। ये तो अपनी हवस का प्रमाण देना हुआ कि कंट्रोल नहीं है खुद पर इसलिये बाहर निकल गए। मुझे खुद पर पूरा भरोसा है। बस आप शरीफ़ निकलें इसकी आशा करता हूँ।

कभी-कभी मदद के बदले लूटमार हो जाती है। मदद मैं कर रहा हूँ, नुकसान मेरा है। मेरी प्राइवेसी में दखल रहेगा। हांलाकि आपको आधा किराया शेयर करना चाहिए लेकिन ये मैं आपके ऊपर छोड़ता हूँ। पर इसके बाद भी क्या आप मुझे अच्छा इंसान समझेंगी? क्या मैं आप पर भरोसा कर सकता हूँ? ये सवाल ज्यादा जरूरी है। बजाय इसके कि आप मुझ पर भरोसा क्यों करें?

लड़की: Wow! Please show me your room! I also want to know more something about you. You looks very interesting person! 👌

शुभ: Sure! Here we go! 😊

गुरुवार, जून 18, 2020

Chameleon Atheists: Snakes in your arms




गिरगिट नास्तिक: ऐसा व्यक्ति जो खुद को धार्मिक नहीं कहता, खुद कोई धार्मिक कार्य नहीं शुरू करता लेकिन कोई और करवा रहा तो उसमें बढ़चढ़ के हिस्सा लेता है। धार्मिकों की लड़कियों/लड़कों पर लार टपकाता है और लड्डू नास्तिक बांट रहा हो या आस्तिक, उनको बस खाने से मतलब है। ये धार्मिकों के कार्यक्रम में हिस्सा लेकर उनको सफल बनाते हैं। इनकी नास्तिकता इनकी गांड में घुसी रहती है जिसे सिर्फ वही देख सकते हैं टॉयलेट में जाकर। बाकी दुनिया उनको धार्मिक ही समझती है। फेसबुक पर वे नास्तिक हैं। घर में राजा बेटा-बेटी हैं। हवन में आहुति देते हैं, होली-दिवाली पे पूजा में बैठते हैं। रक्षाबंधन से लेकर बसंत पँचमी, ईद और क्रिसमस दिल खोल कर मनाते हैं। ये बस एक न्यूट्रल व्यक्ति होते हैं जिनकी दरअसल एक ही विचारधारा होती है। दसों उंगलियां घी में और मुहँ गटर में। 😁

ऐसे लोग कुतर्क देते हैं: नास्तिकता मन से होती है। हम धार्मिक अनुष्ठान में हिस्सा लें, होली, दीवाली, रक्षाबंधन, भाई दूज मनाएं या प्रशाद-भंडारा खाने जायें। इससे आस्तिक नहीं बन जाते। हम खुद तो नहीं जाते मंदिर। हम खुद तो नहीं मनाते अकेले कोई त्योहार। कोई मना रहा है तो उसके साथ हम भी घुलमिल गए। दोस्ती खराब नहीं करते और बेमतलब में अलग बैठने तो जा नहीं सकते। अपने त्योहार अलग बना लें क्या?

ये तो वही बात हुई जैसे सुपर मैन स्पाइडर मैन का ड्रेस पहन लें तो स्पाइडर मैन थोड़े ही बन जायेगा? या स्पाइडर मैन सुपर मैन की पोशाक पहन ले तो सुपर मैन नहीं बन जायेगा।

करके देखिये। समझ आ जायेग़ा कि खुद पर आस्तिकता थुपवा लेना, दूसरों को न बताना कि आप उनकी विचारधारा के खिलाफ हैं; दरअसल, उनका फायदा उठाना है। उनके साथ और अपने साथ धोखा है। एक कायर और डरपोक आदमी भी यही करता है। उसकी धर्मिको से इतनी फटती है कि जैसा वो लालच देते हैं, वैसे ही ललचा जाते हैं। धार्मिकों के समारोह में लड़कियों/लड़कों को ताड़ने का प्लान होता है। नास्तिकों की तो भारी कमी है तो लड़की किधर पटाई जाय? फ्री में प्रशाद और खाना मिल रहा, कैसे ठुकराया जाय? हराम का और पाखण्ड का कमाया हुआ खाने की आदत कैसे छूट जाएगी? जितना भ्रष्ट धार्मिक है, उतना ही भ्रष्ट धर्ममुक्त भी न हो गया तो क्या लाभ है?

आपको त्योहार चाहिए क्यों? किसी के पाखण्ड में आपको लालच क्यों आ रहा है? आपको हर वही चीज क्यों चाहिए जो धार्मिकों पर है? दरअसल आप उन लोगों के साथ हो जो नास्तिकता को धर्म का ही हिस्सा बताते हैं। चार्वाक को भी किसी विचारधारा से मतलब न था। वो भी बस करेक्टर लेस नास्तिकता के समर्थक थे। जिधर जो लाभ मिल रहा, ले कर निकल लेने वाले मक्खी/मच्छर जैसे जंतु। 😁 मक्खी नहीं देखती कि किसकी टट्टी पर बैठ रही है। मच्छर नहीं देखता कि किसका खून पी रहा है। ऐसे ही गिरगिट नास्तिक हैं।

जबकि तर्कवादी होना, सत्य को पकड़ के बैठने का नाम है। जड़ें सत्य के लिये अटल हों। सत्यवादी होना तो ज़रूरी है। खुद से तो झूठ न बोलो। खुद को धोखा मत दो। आपको अगर गंदगी से नफ़रत है तो उससे दूर रहो। नहीं है तो आप भी गंदगी चट हो।

नास्तिक-आस्तिक केवल आपकी शुद्धि और अशुद्धि हैं। कोई नियम, या वेशभूषा नहीं है इसकी। लेकिन शुद्धता तो रहेगी। शुद्ध होना ज़रूरी है। अन्यथा आपका कोई वजूद नहीं। आप मजाक बना रहे विचारधारा का। ये तो वैसा ही है जैसे विजय माल्या खुद को मार्क्सवादी कहे। मार्क्सवादी आंदोलन चलाये। MK गाँधी ब्रिटेन की महारानी के पैर धोकर पियें। मदर टेरेसा खाली समय में स्टेनगन चलाती हों।

आप पाखण्ड की गंदी गटर/नाली से बाहर आ गए और साफ हो गए। दोबारा नाली में लोट लगा कर उसी गंदगी को प्रेम करना है क्या?

ज़हर है धार्मिकता और ये मीठी उसी को लगती है जो नास्तिक होने का ढोंग करता है, भीतर से धार्मिकता उबाल मार रही हो लेकिन नास्तिक दोस्त भी बड़े काम के हैं। उनसे भी बना कर रखनी है। उनसे भी यारी है और आस्तिकों से तो है ही। ऐसा क्यों? ताकि उसको दोनो जगह से लड्डू मिल सकें।

ऐसे लोगों को नास्तिक नहीं, गिरगिट नास्तिक नाम देना ही बेहतर होगा। ये लोग तो नास्तिकों को कत्ल करवा कर आस्तिकों से मिल जाएंगे और आस्तिकों के मरने पर नास्तिकों से मिल जाएंगे। इनकी सोच और कुछ नहीं, केवल मुफ्त का माल बटोरना होती है। हिम्मत ही नहीं होती कि सत्य स्वीकार सकें। नाम का आस्तिक और नाम का नास्तिक बन जाना ही इन मौका परस्त लोगों की कायरतापूर्ण अभिव्यक्ति होती है। इनको अभी कोई नास्तिक आंदोलन करने को बोलो, तो कथा/जागरण/कीर्तन में जाकर बैठ जांएगे।

इनसे आप किसी तरह की मदद की उम्मीद मत रखियेगा। ये दोनों तरफ खाते हैं। कभी आपके ऊपर आतंकी हमला हो जाये तो ये हाथ खड़े कर देंगे। ये बोलेंगे कि हम तो इनके यहाँ रोज आते जाते हैं, साथ खाते और त्योहार मनाते हैं। इनके खिलाफ कैसे कुछ बोल दें या कर दें? और किसी दिन इन्हीं पर हमला हो जाये तो धार्मिक तो हाथ जोड़ के कह देगा कि धर्म की रक्षा कर रहा हूँ आपकी दोस्ती और जान उसके आगे कुछ नहीं। तब ये बेशर्मी से उन्हीं नास्तिकों से मदद मांगेंगे जिनको पिछली बार हाथ जोड़ के मना कर आये थे। थू है ऐसे लोगों पर।

हर विचारधारा का एक चरित्र होता है। उसकी विशेषता होती है। जिसने अपनी विशेषताओं को ही खो दिया वह अपने करेक्टर से ही निकल गया। स्पाइडर मैन सुपर मैन बन कर जाले फेंक रहा है और सुपर मैन स्पाइडर मैन बन के उड़ रहा है। वाह! यही नास्तिकता को बना कर रख दिया है इन जैसे गिरगिटों ने। 😁 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020© वाकई धर्ममुक्त!

शनिवार, जून 13, 2020

Learn basic science before listening to the experts. They maybe wrong.




विकासवाद को समझने का सही तरीका बहुत से लोग नहीं जानते हैं। भ्रम से उपजा तरीका ही सब गड़बड़ी पैदा कर देता है। अवशेषी अंग, इस्तेमाल में न आने से गायब नहीं हुए बल्कि ऐसे मानव ही ज़िंदा बचे, जिनमें संयोग वश हुई आनुवंशिक गलती से उनकी अगली पीढ़ी में वे अंग समाप्त हो गए थे। पुराने अंगों के कारण हुई समस्याओं से पुराना मानव खत्म हो गया।

दिमाग में ये बात डाल ली जाए कि पहलवान/गणितज्ञ/वैज्ञानिक/कलाकार आदि का बेटा/बेटी जन्म से कभी पहलवान/गणितज्ञ/वैज्ञानिक/कलाकार नहीं होता। ये सभी बाद में अर्जित किये गए गुण हैं जो केवल सिखाने या उसके खुद सीख लेने पर ही आ सकते हैं। अतः अर्जित गुण अगली पीढ़ी में नहीं जाते।

यदि मानव कोई भोजन करके इस जीवन में स्वास्थ्य लाभ उठाता है तो उसकी अगली पीढ़ी में वह स्वास्थ्य प्रेषित नहीं होगा। अतः बाहरी प्रभाव कभी भी अगली पीढ़ी में नहीं जाते। कुछ वैज्ञानिकों द्वारा भोजन से मस्तिष्क के विकास की बात सिर्फ प्रोपोगंडा है। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

शुक्रवार, जून 05, 2020

Without understanding the modern constitution you can't live well




जितनी जनसंख्या, संसाधनों पर उतना ही हक?
ठीक है, ये कबीले में होता है। शहरीकरण में जो जितना योग्य है वह उतना संसाधन पा सकता है। अब प्रकृति का सिद्धांत है 'योग्यतम की उत्तरजीविता।' प्रकृति के खिलाफ कैसे जाया जाए?

कबीला एक परिवार होता है। इसलिये जो मिलता है सब आपस में बांटा जाता है। सबकी सोच एक जैसी, एक जैसे विचार होते हैं। परंतु एक संगठित समाज में हर तरह के लोग होते हैं। अलग धर्म और अलग सोच विचार के। उनमें एकता नहीं होती।

जहाँ एकता नहीं, एक सोच विचार नहीं, वहाँ कैसे कोई परिवार बन सकता है? शत्रु ही बनेंगे। कबीलों में भी कौन सी एकता है? अपने कबीले के अतिरिक्त क्या कभी दूसरे कबीले को अपने संसाधनों को बांटा है? नहीं न? उनके तो जानी दुश्मन होते हैं कबीले वाले।

जब हर कबीला अपना अपना वर्गीकरण करके बैठा है और एक दूसरे से नफरत करता है तो फिर वही तो आगे चला आया। बल्कि शिक्षा और शहरीकरण ने तो वैमनस्य कम किया है। आज आप सनातनी होकर भी एक मुसलमान के साथ कार्य कर सकते हो। उसके साथ सौदे कर सकते हो।

अब तो विवाह भी हो जाते हैं अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक। इतनी सुविधा और प्रेम पहले कभी नहीं था। संविधान ने देशों को जोड़ा है। कबीले वाले तो अवैध सम्बंध की सज़ा के तौर पर योनि (चूत) में पत्थर भर देते हैं, गुदा (गांड) में भाला डाल के मुहं से निकाल देते और तड़पते इंसानो को मैदान में टांग देते हैं।

तब भी हम समझते हैं कि बहुत से लोग योग्य नहीं होते। उनकी ज़िंदगी बर्बाद हो सकती है इस आधार पर। मानवता यहां आकर अयोग्य की भी मदद करती है। अयोग्य को समाज में निर्धन कहा जा सकता है। निर्धन को सरकार मदद देने के लिये समाज कल्याण विभाग बनाये बैठी है।

उसका कार्य ही सहारा देने का है। शिक्षा मुफ्त देने, चिकित्सा मुफ्त देने, आवास मुफ्त देने, और अब तो अनाज भी मुफ्त देने की व्यवस्था हो गयी। इस बार तो गजब ही हुआ। ट्रेनें ही मुफ्त कर दी गईं।

संसाधन बंट तो रहे हैं। अमीरों से टैक्स लेकर गरीबों को संसाधन उपलब्ध करवाए जा रहे हैं। अगर आपको लेना नहीं आ रहा तो उसके लिये ग्राम पंचायतों ने आंगनवाड़ी, नुक्कड़ नाटक करवा कर जानकारी भी दी है ताकि जागरूक हो अशिक्षित नागरिक।

प्रकृति के खिलाफ इससे अधिक गए तो अमीर टैक्स देना ही बन्द कर देंगे और तब क्या करोगे? अमीरों से इतनी भी नफ़रत कैसी? सोनू सूद भी अमीर है। बाकी और भी अमीरों ने अभी अरबों रुपये दान किये। क्या सरकार को वो इतना टैक्स देते थे? नहीं। उन्होंने अपना टैक्स कटने के बाद बचा अपने हक का, अपनी योग्यता से कमाया हुआ धन आपकी सेवा में दे दिया। बुरे होते तो क्या ऐसा करते?

अपनी सोच बदलिये। कबीले मत बनाइये, इस आधुनिक दुनिया में। अमानवीय मत बनिये अगर मानवता को अहिंसक समझते हो। संविधान को समझने के लिये साक्षर हो जाओ। फिर देखो दुनिया कुछ अलग ही दिखेगी। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020©

गुरुवार, जून 04, 2020

Superiority Complex is the root of all evil



  • इंसान खुद को जानवरों से श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • पुरुष खुद को महिला से श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • ब्राह्मण बाकी सब से खुद को श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • गोरा काले से खुद को श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • बड़ा छोटे से खुद को श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • अमीर गरीब से खुद को श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • धार्मिक दूसरे धार्मिक से खुद को श्रेष्ठ समझता है। हिंसा करता है।
  • विपरीत सोच के देश, बाकी देशों से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। हिंसा करते हैं।
  • बुद्धिमान मूर्ख से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। दूर चले जाते हैं।
  • ज्ञानी अज्ञानी से खुद को श्रेष्ठ समझते हैं। वाक युद्ध करते हैं।

ये श्रेष्ठ समझना ही दरअसल सभी तरह की हिंसाओं की जड़ है। जबकि बुद्धिमान व्यक्ति जो उसे पसंद नहीं, उससे दूरी बना लेता है और यही श्रेष्ठ होना है। हिंसा करना नहीं। ~ Dharmamukt Shubhanshu 2020©

सोमवार, जून 01, 2020

Arrogance makes you great by provoking you




विनम्रता दरअसल लोगों को हतोत्साहित करने का एक मोहक उपाय है। "आप महान हैं, मैं तुच्छ हूँ" कहना, ये जानते हुए भी कि सामने वाले की कोई औकात नहीं है, दरअसल वह जैसा है, उसे वैसा ही छोड़ कर आगे बढ़ जाने की कला है। हमारे जितने भी कम प्रतिद्वंद्वी होंगे, हमारा रास्ता उतना ही आसान होगा। अगला अपने को बड़ा समझ कर खुश हो जाएगा और रास्ते से हट जाएगा।

जबकि यदि मैं कहता हूँ, "अबे हट, न आता न जाता, चुनाव चिन्ह छाता।" या "न खाता, न बही, तू जो बोले, सो सही?"

अब क्या होगा? अब पक्का वह आपकी राह में रोड़ा बनेगा। वह आपको कुछ बन के दिखा देगा। वह आपकी राह में प्रतिद्वंद्वी बन कर आ खड़ा होगा।

अपमान से, उसमें महत्वाकांक्षा जाग जाती है। जबकि सम्मान से वह वहीं खत्म हो जाता है। सम्मान न देने से, सम्मान पाने की इच्छा अगले में जाग जाती है और वह सम्मान के लायक बनना चाहता है।

तमाम उदाहरण इस घटना के मिल सकते हैं। 2 उदाहरण पेश हैं:

1. तुलसीदास को उनकी पत्नी ने देह के मोह के प्रति अपमानित किया और उन्होंने रामचरित मानस लिखी।
2. दसरथ राम मांझी को उसकी पत्नी ने मोह के प्रति अपमानित किया और उसने अकेले पहाड़ काट के रास्ता बना दिया।

अगर अपमान न किया जाए तो लोग कभी कामयाब ही नहीं होते। अपमान करने वाले ही किसी महान व्यक्ति के गुरु होते हैं। घमंडी निस्वार्थ भाव से अपमान करके लोगों को महत्वाकांक्षी बनाते हैं। मनोविज्ञान और मोटिवेशनल जगत में इसे रॉकेट के पीछे की आग कहते हैं। जलोगे नहीं तो उड़ोगे नहीं। इसीलिए प्रिंसिपल, बॉस, मालिक खड़ूस होते हैं। अपने घमंडी व्यवहार से वह बाकियों को उकसा कर ऊंचा उठा देते हैं।

जो विनम्र है, वह चालू है। वह चुपचाप सब लड्डू खा लेना चाहता है। सबको वह नीचे रख कर, खुद ऊपर चला जाता है। वह जानता है कि किसी का अपमान करना, उसे उसके सामने लाकर खड़ा कर देगा। जिसे उसे हराने में ऊर्जा खर्च करनी होगी। बेहतर होगा कि किसी को अपने इरादों की भनक लगे बिना ही अपना काम करते जाओ। जो सामने पड़े, सम्मान से, विनम्रता से बोल कर उसे नतमस्तक कर दो, उसे खुश कर दो। वह चला जायेगा।

तो ये विनम्रता केवल और केवल अपने स्वार्थ के लिए है। ताकि कोई दुश्मन न खड़ा हो जाए। घमण्ड में उल्टा बोल के हम अपने दुश्मन बना लेते हैं और वे हमसे बेहतर निकल जाएंगे तो हमे पीछे छोड़ देंगे। इसीलिए घमंड खुद के लिए घातक है। लेकिन यही घमण्ड अपमान सहने पर आपको महत्वकांक्षी बना कर सर्वोच्च भी बना देता है।

साधारण विनम्र मानव तो मरा हुआ होता है। उसे कितना भी अपमानित कर लो, उसका खून नहीं खौलता। वह बस नौकर अच्छा बनता है। मालिक तो कभी बन ही नहीं सकता।

तो क्या सीखा? सामने वाले की विनम्रता, आपको कमज़ोर करती है और सामने वाले का घमंड आपको मजबूत बनाता है। अगर कुछ कर गुजरने की इच्छा है तो किसी घमंडी के साथ लग जाओ। 😝 ~ Shubhabshu 2020©  2020/06/01 21:22 

A real teacher maybe a master but doesn't want slaves



गुरुओं के जाल में भी बहुत लोग आ फंसे हैं। खुद फंस गए तो दूसरों को फंसाने का कार्य मत्थे मढ़ जाता है। जैसे विवाह संस्था वाले बस सबका विवाह-बच्चे करवा देना चाहते हैं, वैसे ही जैसे कोई अपने गुरु का सबको शिष्य बना देना चाहता है।

अगर आप किसी 1 गुरु से बंध गए तो दूसरा उससे लाख बेहतर ज्ञान देते-देते मर जायेगा लेकिन आप आँख-कान बन्द करके उसको गाली देने लगोगे। बस यहीं से अंधी अज्ञानता शुरू होती है। जिसने इंसान को इंसान से काट दिया। जानवरों और प्रकृति का दुश्मन बना दिया।

जो आपको आपकी ज़रूरतों को पूरा करने का तरीका नहीं बता रहा, वह आपकी ज़रूरतों को खत्म करने को कह रहा है। हारा हुआ है और हारना ही सिखा रहा है। जीतने में हिम्मत और मेहनत लगती है। हारना आसान है। आसान कार्य के लिये गुरु नहीं चाहिए। कठिन कार्य के लिये गुरु चाहिए।

बुद्ध ने कहा, "सब त्यागो।"
सन्यासियों ने कहा, "सब त्यागो।"

मैं भी कहता हूँ कि हाँ, त्यागो लेकिन सब नहीं। केवल वही, जिसकी तुमको ज़रूरत नहीं। तुम निद्रा, भोजन, जल, काम, मद, लोभ, क्रोध, मोह अगर सामान्य मानव हो, तो नहीं त्याग सकते। हाँ इन पर नियंत्रण रख सकते हो। जितेंद्र बन सकते हो।

नियंत्रण का मतलब रोक नहीं होता। घोड़ा घुड़सवार के नियंत्रण में है, ट्रेन उसके ड्राइवर और कंट्रोल रूम के, हवाई जहाज और पानी के जहाज के साथ भी ऐसा ही है। क्या इनको सदा के लिए रोकना उचित होगा?

दमन को नियंत्रण नहीं कहते।

दँगा होता है तो दमन किया जाता है। जब कोई सही बात नहीं सुनता और न मानता है, तो दमन करना पड़ता है। दमन एक उपाय है रोकने का।

लेकिन दँगा शांत करने का उपाय है, समस्याओं का समाधान। तभी भीड़ रुकेगी। तभी दोबारा दंगे नहीं होगें। 

भीड़ को सन्तुष्ट करो।
दँगा रुक जायेग़ा।
हमेशा के लिये।

भीड़ की मांगें गलत हैं तो उनको गलत और सही समझाओ। उनको सही तक लेकर आओ। ये काम कर सकता है, एक असली सत्य खोजी गुरु।

हमारी इंद्रियों के दंगे को खत्म करने के लिये हम क्या करते हैं?

दमन? या उनको संतुष्ट करते हैं?

आपने चीटियों को नियंत्रित किया है। आपने थोड़ा आटा अलग दिशा में डाला और चींटी ने अपना रास्ता बदल दिया। वह सन्तुष्ट हो गई। एक ऐसा प्राणी जो आपकी भाषा नहीं समझता, उसे भी अभी आपने संतुष्ट करके अपना कार्य करवा लिया।

ऐसे ही भूखी इंद्रियों को खाना दो। उनको नियंत्रित सिर्फ इतना ही करना है कि वे किसी बेगुनाह को नुकसान न पहुँचा दें।

जैसे गुस्से में लोग ट्रिगर पर रखी उंगली नहीं हटाते लेकिन समझाने पर उसकी नली की दिशा बदल देते हैं।

ट्रिगर दबता है। गुस्से को निकलने का मौका मिलता है।

अक्सर लोग गुस्से में जब किसी ज़िंदा दोषी को चोट नहीं पहुँचा पाते तो बेजान वस्तुओं को तोड़ कर, वह अपना गुस्सा निकाल देते हैं या खुद को चोट पहुँचा कर अपना गुस्सा कम कर लेते हैं।

हम इससे आगे बढ़ कर थोड़ा और स्मार्ट बन सकते हैं। हम बेजान चीजों को भी क्यों तोड़ें? उसमें भी तो खर्च हुआ है। उसमें भी तो किसी की मेहनत, यादें जुड़ी हैं। 

दरअसल दोबारा वापस न पाने की भावना ही इस निराशा को जन्म देती है।

इंसान मोह में पागल है। जिससे भी वह मोह रखता है, वह वस्तु नष्ट हो जाती है। तब खोने का दुःख उसे रुलाता है, गुस्सा दिलाता है। जबकि मोह उससे करो जो अनश्वर है। जो हमेशा साथ रहेगा। जिसकी मृत्यु निश्चित है, उससे कैसा मोह?

परंतु हमको जो अनश्वर लगता है, उससे मोह ही नहीं होता। हमको तो उस वस्तु से मोह होता है, जो जल्दी नष्ट होने वाली है।

उदाहरण के लिये, आपके सामने 2 लोग घायल पड़े हैं। 1 कम घायल है और थोड़ी देर और जी सकता है। जबकि दूसरा ज्यादा घायल है। देर करने पर उसकी जान जा सकती है। अब आप पहले किसे बचाओगे?

सीधी बात है कि आप जो जल्दी मरने वाला है, उसे बचाओगे। यानी जो खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकता और कमज़ोर है, उसी के प्रति दया उमड़ती है। उसी से मोह होता है। देखा? कैसा जाल है मोह का?

खो देने का डर ही मोह है। पाने का मोह लालच है। इसी से दुःख पनपता है क्योंकि हर किसी की एक सीमा है। उसी सीमा तक वह जाकर रुक जाता है या असफल हो जाता है।

हमें अगर जीतना है तो कुछ अलग करना होगा। वह अलग क्या है?

यह उपाय है कि देखो, जिससे मोह है, क्या वह तुम्हारे लिए वाकई ज़रूरी है? यदि नहीं, तो उससे पीछा छुड़ाओ। यही सही त्याग होगा। जो ज़रूरी है, उसी को रखो। बाकी सब को त्याग दो।

मैं, मेरा खुद का उदाहरण देता हूँ। कई बार मेरे कंप्यूटर की पूरी हार्ड डिस्क का डाटा मिट गया। मेरा न जाने कितना शोध और न जाने क्या-क्या प्रिय सामग्रियों का समंदर नष्ट हो गया। ऐसा लग़ा जैसे कोई अपना दोस्त या रिश्तेदार मर गया हो।

मैं बहुत भावुक रहा हूँ। बेजान वस्तुओं से जिंदा इंसानो के मुकाबले ज्यादा प्यार करता हूँ। बेजान किताबों, शब्दों ने मुझे जीना सिखाया। इंसानो ने बस उलझाया, ठगा और लूटा। ऐसा लग़ा जैसे अगले को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई मरे या जिये।

लोग ऐसे बुरा व्यवहार करते हैं, जैसे उनके साथ कोई वैसा व्यवहार कर ही नहीं सकता। यही झूठा घमण्ड है। 

ऐसे लोगों का घमंड टूटा है। बहुत बार टूटा है। मैंने तोड़ा है। लोगों का घमंड तोड़ने के लिए मुझे उनसे भी ज्यादा काबिल बनना पड़ा।

इसी कारण मैं हर क्षेत्र में ज्यादा जान पाया। जब भी किसी ने कहा, "तेरी औकात क्या है?" तो मैंने उसे चुनोती माना। अपनी औक़ात उससे ज्यादा बनाईं फिर उससे पूछा, "तेरी औकात क्या है?" और कमाल है कि उसकी औकात कभी उससे ज्यादा नहीं हुई।

क्यों? क्योंकि वह बस जहाँ पहुँच गया, उस पर ही घमंड कर रहा। यानी जो लहर पर पत्ते की तरह तैर रहा और किनारे लग गया, वह पत्ता खुश है कि उसने नदी पार करी है। वह जांबाज़ है।

जबकि, संघर्ष ही जांबाजी है। ज़रूरी नहीं कि संघर्षकर्ता, सड़कों पर, अपने लिए बेसिक ज़रूरतें ही जोड़ते हुए दिखे। हर वह जीव संघर्षकर्ता है, जो जी रहा है। इसी को जीवन संघर्ष कहते हैं। यदि आप सांस भी ले रहे तो यह संघर्ष है। नहीं लोगे तो मर जाओगे। एक ऐसा काम जो आपको सोते हुए भी करना है। फिर हम किस संघर्ष की बात कर रहे?

हम बात कर रहे हैं अपनी इच्छाओं और हुनर को सही जगह प्रयोग करने के प्रयास की। दरअसल दुनिया में बहुत हुनर है। बहुत प्रतिभा है। लेकिन लोगों को उसकी कद्र नहीं है। तमाम प्रतिभाओं का गला घोंट दिया जाता है।

मेरी खुद की प्रतिभाओं का गला घोंट दिया गया। तभी सोशल मीडिया पर लिखता हूँ। जानता हूँ कि मेरी योग्यता या कीमत क्या है। बहुतों से जाना है। बहुतों ने सलाह दी है। कोई कहता, उपन्यास लिखो, कोई कहता, इतना ज्ञान है तो नेता बन कर देश बदल डालो। कोई कहा, उपन्यास छापो, कविता की किताब निकालो, हम लेंगे। मैं बस इसे अपनी हौसला अफजाई समझ कर मुस्कुरा देता। इस से आत्मविश्वास उत्तपन्न होता है।

मेरे माता-पिता और उनके पिता-माता, सब के सब साधारण बल्कि अतिसाधारण बुद्धि के मानव थे। उनका जीवन आम लोगों की एकदम नकल था। दादा दादी अंगूठा छाप थे। ताऊ बेरोजगार, हस्ताक्षर कर लेते हैं।

मूक बधिर होने के कारण विवाह नहीं हुआ और पापा को बचपन में किसी अपमानजनक सामाजिक घटना के चलते, ज़िद करके, मार-मार के विद्यालय भेजा गया।

दादा खाना कम खाते लेकिन पैसा बचा कर सरकारी कॉलेज तक पढाई करवाई। मां प्राइमरी पढ़ी थीं तो उनको अपने पति को भी पढ़ा लिखा देखने की ज़िद रही और उन्होंने भरसक प्रयास किये कि पिताजी किसी तरह स्नातक कर लें। पिता गांव से शहर पहुँचे तो दोस्तों की बुरी संगत में पड़ गए। 1-2 साल फेल भी हुए। कॉलेज छोड़ के सिनेमा देखते थे।

मेरे दादा ने पापा को इसलिए पढ़ाया था क्योंकि दादा जी एक ओझा थे और लोहे के हंटर से लोगों का भूत उतारते थे। किसी ने उनका अपमान कर दिया। अपमान तो वैसे भी ब्राह्मण करते ही थे और दादा उनके यहाँ बेगारी काम भी करते थे। ये 1954 से पहले व उसके बाद की बात है। इसी वर्ष 1954 के अंतिम माह में मेरे पिताजी ने जन्म लिया था। और इसी के 1 वर्ष बाद 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। ये मैंने क्यों बताया आगे देखिएगा।

दादा-मम्मी-पापा-ताऊ, दादी आदि वो सब मिट्टी-छप्पर के बने एकदम निम्न श्रेणी के गाँव में रहे थे। जब आस-पास के गांवों में, बिजली और सड़क आ गई, तब हमारे गाँव में इस विकास का जमकर विरोध हुआ। लोगों ने कहा कि बिजली से हम चिपक के मर जाएंगे, सड़कों से गाड़ी हमको कुचल देगी और रसोई गैस से सिलेंडर फट जाएगा और सब जल कर मर जाएंगे। 😝

ये समय अब उस नर्क को छोड़ने का था। मेरे पापा ने पढाई पूरी कर ली। उनको अफसर पद के लिये इंटरव्यू का लेटर मिला था। तभी उनके पिता को भयानक खांसी हुई। डॉक्टर ने बताया कि फेफड़े का कैंसर है। बच नहीं पाएंगे। लेकिन पापा उनको लेकर यहाँ वहाँ भटकते रहे। उनकी वह जॉब हाथ से निकल गयी। दादा जी भी गुजर गए।

इसके बाद पापा LLB की तैयारी करने लगे। उस समय वकालत 3 साल की होती थी। पापा ने 2 साल पूरे कर लिए लेकिन तभी उनको रोजगार कार्यालय से स्टेट बैंक के इंटरव्यू का लेटर मिला। उसी इंटरव्यू में तमाम परीक्षाओं को पास करते देखने के बाद अंत में पापा से पूछा गया कि ये साधारण कपड़े और इतने लम्बे दाढ़ी, मूछ व बाल के साथ यहाँ क्यों आये? शेव क्यों नहीं काटी?

पापा की आंखों में आंसू आ गए। बोले, "ब्लेड खरीदने के लिये पैसे नहीं हैं।" इसी के साथ बोर्ड ने एकसाथ कहा, "you are selected!"

अब समझ आया कि ऊपर स्टेट बैंक का नाम क्यों लिया था? 😁

बस उस दिन से हमारे दिन बदलने शुरू हुए और पिताजी ने शहर में किराए के मकानों में रहते हुए एक-एक करके बर्तन खरीदे। आज भी मां बताती हैं कि 1-1 करके चम्मच कटोरी खरीदी हैं तभी कोई सेट नहीं है हमारे घर में। हर बर्तन अलग ही डिजाइन का था। हर चम्मच अलग ही डिजाइन का था।

मेरे पैदा होने के पीछे भी माता-पिता का बहुत संघर्ष रहा। एक लड़की पैदा होने के बाद माता की फैलोपियन ट्यूब बन्द हो गयी। बहुत वर्षो तक कोई बच्चा नहीं हुआ। ये लोग देश के सारे तीर्थ कर आये। हर डॉक्टर को दिखा डाला। कोई लाभ न हुआ। फिर एक दाई ने मां से कहा कि मैं तुम्हारी मालिश से ट्यूब खोल दूँगी। मुझे बनारसी साड़ी दिलाना, जब बालक हो।

कमाल हुआ, और मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म ने माता-पिता को तानों से बचाया और वंश वृद्धि के सपने भी जगाए। परन्तु, बचपने से ही मैं विवाह का विरोधी हो गया। बचपने से ही धर्ममुक्त हो गया, बचपन से ही मैं vegan हो गया। तब घरवालों को लगा कि बच्चे तो ऐसा बोलते-करते रहते हैं और बड़े होकर सब बदल जायेगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने जो कहा, न सिर्फ जीवन में उतारा बल्कि उसे कायम रखा। आज भी मैं हैरान हो उठता हूँ कि बचपने के फैसले, बड़ों के फैसलों से भी ज्यादा शक्तिशाली कैसे निकले? आज जब मैं उन फैसलों के लिये तमाम ज्ञान प्राप्त करके एक मजबूत आधार खड़ा कर चुका हूँ, तब सोचता हूँ कि शुरू से ही सही होना, कितना गौरवशाली होता है।

इस गौरव ने मुझसे मेरी बहुत सी प्रिय लगने वाली वस्तुएं, भोजन और दोस्त छीन लिए। समाज से अलग होना, समाज को बर्दाश्त नहीं होता।

 - मैं लोगों के साथ बैठ कर खा नहीं सकता क्योंकि मेरे सिद्धान्त उनके पशुउत्पाद युक्त भोजन को क्रूरतापूर्ण और अन्यायपूर्ण मानते हैं।
 - मैं महिलाओं से घुलमिल नहीं पाता, क्योंकि कहीं न कहीं आकर वे विवाह के बारे में मेरे विचार जानना चाहती हैं और जानते ही दूर हो जाना भी चाहती हैं। जो लिव इन में रुचि रखती हैं, वे मेरे बच्चे न पैदा करने के प्रण को लेकर नाराज़ हो जाती हैं। 
 - मेरा नशामुक्त स्वभाव, महिलाओं के प्रति समानता का नजरिया, मुझे घटिया सोच और नशे-जुए वाले लड़कों में बैठने नहीं देता।
 - मेरा धर्ममुक्त विचार, धार्मिकों को आतंकी बना देता है। वह मारने-पीटने की हद तक गुस्सा हो जाते हैं।
 - मेरा राजनीति मुक्त निष्पक्ष सोच व्यवहार राजनीतिक लोगों को गुस्सा दिला देता है। कई बार तो "मैं वोट नहीं देता" जान कर कई लोगों ने मुझे देशद्रोही तक कह डाला।
 - मैं सत्य के अतिरिक्त किसी की जय नहीं बोलता तो हर तरह के लोग मेरे खिलाफ हो गये।
 - मैंने रिश्तों को धर्मों द्वारा बनाया बताया, तो लोग मुझे मां-बहन की गाली देने लगे।
 - मैंने सेक्स को जीवन का हिस्सा और ज़रूरत बताया न कि बच्चों को तो लोगों ने मुझे ठरकी कहा।
 - जब नौकरी की जगह आत्मनिर्भर होने के लिये प्रतिभा प्रयोग करने को प्रोत्साहन दिया ताकि मालिक बन सकें तो लोग मुझे मूर्ख कहने लगे।
 
कुल मिला कर अधिकतर दुनिया के लिये मैं एक घटिया इंसान हूँ। जबकि मेरी नज़र में इनसे घटिया कोई नहीं है।

मैं समझाऊँ तो मैं सब सही और बेहतर कर रहा पाओगे और न समझाऊँ तो मैं इतना घटिया लगूँगा कि आप दूर ही होना पसंद करोगे। दोनो ही हालातों में मैं सुखी रहूँगा क्योंकि "कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगें खैर, न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर!" जाओ, नहीं बनता मैं किसी का गुरु! अभी वैसे भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। 😊 ~ Shubhanshu 2020©  2020/06/01 21:51