गुरुओं के जाल में भी बहुत लोग आ फंसे हैं। खुद फंस गए तो दूसरों को फंसाने का कार्य मत्थे मढ़ जाता है। जैसे विवाह संस्था वाले बस सबका विवाह-बच्चे करवा देना चाहते हैं, वैसे ही जैसे कोई अपने गुरु का सबको शिष्य बना देना चाहता है।
अगर आप किसी 1 गुरु से बंध गए तो दूसरा उससे लाख बेहतर ज्ञान देते-देते मर जायेगा लेकिन आप आँख-कान बन्द करके उसको गाली देने लगोगे। बस यहीं से अंधी अज्ञानता शुरू होती है। जिसने इंसान को इंसान से काट दिया। जानवरों और प्रकृति का दुश्मन बना दिया।
जो आपको आपकी ज़रूरतों को पूरा करने का तरीका नहीं बता रहा, वह आपकी ज़रूरतों को खत्म करने को कह रहा है। हारा हुआ है और हारना ही सिखा रहा है। जीतने में हिम्मत और मेहनत लगती है। हारना आसान है। आसान कार्य के लिये गुरु नहीं चाहिए। कठिन कार्य के लिये गुरु चाहिए।
बुद्ध ने कहा, "सब त्यागो।"
सन्यासियों ने कहा, "सब त्यागो।"
मैं भी कहता हूँ कि हाँ, त्यागो लेकिन सब नहीं। केवल वही, जिसकी तुमको ज़रूरत नहीं। तुम निद्रा, भोजन, जल, काम, मद, लोभ, क्रोध, मोह अगर सामान्य मानव हो, तो नहीं त्याग सकते। हाँ इन पर नियंत्रण रख सकते हो। जितेंद्र बन सकते हो।
नियंत्रण का मतलब रोक नहीं होता। घोड़ा घुड़सवार के नियंत्रण में है, ट्रेन उसके ड्राइवर और कंट्रोल रूम के, हवाई जहाज और पानी के जहाज के साथ भी ऐसा ही है। क्या इनको सदा के लिए रोकना उचित होगा?
दमन को नियंत्रण नहीं कहते।
दँगा होता है तो दमन किया जाता है। जब कोई सही बात नहीं सुनता और न मानता है, तो दमन करना पड़ता है। दमन एक उपाय है रोकने का।
लेकिन दँगा शांत करने का उपाय है, समस्याओं का समाधान। तभी भीड़ रुकेगी। तभी दोबारा दंगे नहीं होगें।
भीड़ को सन्तुष्ट करो।
दँगा रुक जायेग़ा।
हमेशा के लिये।
भीड़ की मांगें गलत हैं तो उनको गलत और सही समझाओ। उनको सही तक लेकर आओ। ये काम कर सकता है, एक असली सत्य खोजी गुरु।
हमारी इंद्रियों के दंगे को खत्म करने के लिये हम क्या करते हैं?
दमन? या उनको संतुष्ट करते हैं?
आपने चीटियों को नियंत्रित किया है। आपने थोड़ा आटा अलग दिशा में डाला और चींटी ने अपना रास्ता बदल दिया। वह सन्तुष्ट हो गई। एक ऐसा प्राणी जो आपकी भाषा नहीं समझता, उसे भी अभी आपने संतुष्ट करके अपना कार्य करवा लिया।
ऐसे ही भूखी इंद्रियों को खाना दो। उनको नियंत्रित सिर्फ इतना ही करना है कि वे किसी बेगुनाह को नुकसान न पहुँचा दें।
जैसे गुस्से में लोग ट्रिगर पर रखी उंगली नहीं हटाते लेकिन समझाने पर उसकी नली की दिशा बदल देते हैं।
ट्रिगर दबता है। गुस्से को निकलने का मौका मिलता है।
अक्सर लोग गुस्से में जब किसी ज़िंदा दोषी को चोट नहीं पहुँचा पाते तो बेजान वस्तुओं को तोड़ कर, वह अपना गुस्सा निकाल देते हैं या खुद को चोट पहुँचा कर अपना गुस्सा कम कर लेते हैं।
हम इससे आगे बढ़ कर थोड़ा और स्मार्ट बन सकते हैं। हम बेजान चीजों को भी क्यों तोड़ें? उसमें भी तो खर्च हुआ है। उसमें भी तो किसी की मेहनत, यादें जुड़ी हैं।
दरअसल दोबारा वापस न पाने की भावना ही इस निराशा को जन्म देती है।
इंसान मोह में पागल है। जिससे भी वह मोह रखता है, वह वस्तु नष्ट हो जाती है। तब खोने का दुःख उसे रुलाता है, गुस्सा दिलाता है। जबकि मोह उससे करो जो अनश्वर है। जो हमेशा साथ रहेगा। जिसकी मृत्यु निश्चित है, उससे कैसा मोह?
परंतु हमको जो अनश्वर लगता है, उससे मोह ही नहीं होता। हमको तो उस वस्तु से मोह होता है, जो जल्दी नष्ट होने वाली है।
उदाहरण के लिये, आपके सामने 2 लोग घायल पड़े हैं। 1 कम घायल है और थोड़ी देर और जी सकता है। जबकि दूसरा ज्यादा घायल है। देर करने पर उसकी जान जा सकती है। अब आप पहले किसे बचाओगे?
सीधी बात है कि आप जो जल्दी मरने वाला है, उसे बचाओगे। यानी जो खुद अपनी देखभाल नहीं कर सकता और कमज़ोर है, उसी के प्रति दया उमड़ती है। उसी से मोह होता है। देखा? कैसा जाल है मोह का?
खो देने का डर ही मोह है। पाने का मोह लालच है। इसी से दुःख पनपता है क्योंकि हर किसी की एक सीमा है। उसी सीमा तक वह जाकर रुक जाता है या असफल हो जाता है।
हमें अगर जीतना है तो कुछ अलग करना होगा। वह अलग क्या है?
यह उपाय है कि देखो, जिससे मोह है, क्या वह तुम्हारे लिए वाकई ज़रूरी है? यदि नहीं, तो उससे पीछा छुड़ाओ। यही सही त्याग होगा। जो ज़रूरी है, उसी को रखो। बाकी सब को त्याग दो।
मैं, मेरा खुद का उदाहरण देता हूँ। कई बार मेरे कंप्यूटर की पूरी हार्ड डिस्क का डाटा मिट गया। मेरा न जाने कितना शोध और न जाने क्या-क्या प्रिय सामग्रियों का समंदर नष्ट हो गया। ऐसा लग़ा जैसे कोई अपना दोस्त या रिश्तेदार मर गया हो।
मैं बहुत भावुक रहा हूँ। बेजान वस्तुओं से जिंदा इंसानो के मुकाबले ज्यादा प्यार करता हूँ। बेजान किताबों, शब्दों ने मुझे जीना सिखाया। इंसानो ने बस उलझाया, ठगा और लूटा। ऐसा लग़ा जैसे अगले को कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई मरे या जिये।
लोग ऐसे बुरा व्यवहार करते हैं, जैसे उनके साथ कोई वैसा व्यवहार कर ही नहीं सकता। यही झूठा घमण्ड है।
ऐसे लोगों का घमंड टूटा है। बहुत बार टूटा है। मैंने तोड़ा है। लोगों का घमंड तोड़ने के लिए मुझे उनसे भी ज्यादा काबिल बनना पड़ा।
इसी कारण मैं हर क्षेत्र में ज्यादा जान पाया। जब भी किसी ने कहा, "तेरी औकात क्या है?" तो मैंने उसे चुनोती माना। अपनी औक़ात उससे ज्यादा बनाईं फिर उससे पूछा, "तेरी औकात क्या है?" और कमाल है कि उसकी औकात कभी उससे ज्यादा नहीं हुई।
क्यों? क्योंकि वह बस जहाँ पहुँच गया, उस पर ही घमंड कर रहा। यानी जो लहर पर पत्ते की तरह तैर रहा और किनारे लग गया, वह पत्ता खुश है कि उसने नदी पार करी है। वह जांबाज़ है।
जबकि, संघर्ष ही जांबाजी है। ज़रूरी नहीं कि संघर्षकर्ता, सड़कों पर, अपने लिए बेसिक ज़रूरतें ही जोड़ते हुए दिखे। हर वह जीव संघर्षकर्ता है, जो जी रहा है। इसी को जीवन संघर्ष कहते हैं। यदि आप सांस भी ले रहे तो यह संघर्ष है। नहीं लोगे तो मर जाओगे। एक ऐसा काम जो आपको सोते हुए भी करना है। फिर हम किस संघर्ष की बात कर रहे?
हम बात कर रहे हैं अपनी इच्छाओं और हुनर को सही जगह प्रयोग करने के प्रयास की। दरअसल दुनिया में बहुत हुनर है। बहुत प्रतिभा है। लेकिन लोगों को उसकी कद्र नहीं है। तमाम प्रतिभाओं का गला घोंट दिया जाता है।
मेरी खुद की प्रतिभाओं का गला घोंट दिया गया। तभी सोशल मीडिया पर लिखता हूँ। जानता हूँ कि मेरी योग्यता या कीमत क्या है। बहुतों से जाना है। बहुतों ने सलाह दी है। कोई कहता, उपन्यास लिखो, कोई कहता, इतना ज्ञान है तो नेता बन कर देश बदल डालो। कोई कहा, उपन्यास छापो, कविता की किताब निकालो, हम लेंगे। मैं बस इसे अपनी हौसला अफजाई समझ कर मुस्कुरा देता। इस से आत्मविश्वास उत्तपन्न होता है।
मेरे माता-पिता और उनके पिता-माता, सब के सब साधारण बल्कि अतिसाधारण बुद्धि के मानव थे। उनका जीवन आम लोगों की एकदम नकल था। दादा दादी अंगूठा छाप थे। ताऊ बेरोजगार, हस्ताक्षर कर लेते हैं।
मूक बधिर होने के कारण विवाह नहीं हुआ और पापा को बचपन में किसी अपमानजनक सामाजिक घटना के चलते, ज़िद करके, मार-मार के विद्यालय भेजा गया।
दादा खाना कम खाते लेकिन पैसा बचा कर सरकारी कॉलेज तक पढाई करवाई। मां प्राइमरी पढ़ी थीं तो उनको अपने पति को भी पढ़ा लिखा देखने की ज़िद रही और उन्होंने भरसक प्रयास किये कि पिताजी किसी तरह स्नातक कर लें। पिता गांव से शहर पहुँचे तो दोस्तों की बुरी संगत में पड़ गए। 1-2 साल फेल भी हुए। कॉलेज छोड़ के सिनेमा देखते थे।
मेरे दादा ने पापा को इसलिए पढ़ाया था क्योंकि दादा जी एक ओझा थे और लोहे के हंटर से लोगों का भूत उतारते थे। किसी ने उनका अपमान कर दिया। अपमान तो वैसे भी ब्राह्मण करते ही थे और दादा उनके यहाँ बेगारी काम भी करते थे। ये 1954 से पहले व उसके बाद की बात है। इसी वर्ष 1954 के अंतिम माह में मेरे पिताजी ने जन्म लिया था। और इसी के 1 वर्ष बाद 1955 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। ये मैंने क्यों बताया आगे देखिएगा।
दादा-मम्मी-पापा-ताऊ, दादी आदि वो सब मिट्टी-छप्पर के बने एकदम निम्न श्रेणी के गाँव में रहे थे। जब आस-पास के गांवों में, बिजली और सड़क आ गई, तब हमारे गाँव में इस विकास का जमकर विरोध हुआ। लोगों ने कहा कि बिजली से हम चिपक के मर जाएंगे, सड़कों से गाड़ी हमको कुचल देगी और रसोई गैस से सिलेंडर फट जाएगा और सब जल कर मर जाएंगे। 😝
ये समय अब उस नर्क को छोड़ने का था। मेरे पापा ने पढाई पूरी कर ली। उनको अफसर पद के लिये इंटरव्यू का लेटर मिला था। तभी उनके पिता को भयानक खांसी हुई। डॉक्टर ने बताया कि फेफड़े का कैंसर है। बच नहीं पाएंगे। लेकिन पापा उनको लेकर यहाँ वहाँ भटकते रहे। उनकी वह जॉब हाथ से निकल गयी। दादा जी भी गुजर गए।
इसके बाद पापा LLB की तैयारी करने लगे। उस समय वकालत 3 साल की होती थी। पापा ने 2 साल पूरे कर लिए लेकिन तभी उनको रोजगार कार्यालय से स्टेट बैंक के इंटरव्यू का लेटर मिला। उसी इंटरव्यू में तमाम परीक्षाओं को पास करते देखने के बाद अंत में पापा से पूछा गया कि ये साधारण कपड़े और इतने लम्बे दाढ़ी, मूछ व बाल के साथ यहाँ क्यों आये? शेव क्यों नहीं काटी?
पापा की आंखों में आंसू आ गए। बोले, "ब्लेड खरीदने के लिये पैसे नहीं हैं।" इसी के साथ बोर्ड ने एकसाथ कहा, "you are selected!"
अब समझ आया कि ऊपर स्टेट बैंक का नाम क्यों लिया था? 😁
बस उस दिन से हमारे दिन बदलने शुरू हुए और पिताजी ने शहर में किराए के मकानों में रहते हुए एक-एक करके बर्तन खरीदे। आज भी मां बताती हैं कि 1-1 करके चम्मच कटोरी खरीदी हैं तभी कोई सेट नहीं है हमारे घर में। हर बर्तन अलग ही डिजाइन का था। हर चम्मच अलग ही डिजाइन का था।
मेरे पैदा होने के पीछे भी माता-पिता का बहुत संघर्ष रहा। एक लड़की पैदा होने के बाद माता की फैलोपियन ट्यूब बन्द हो गयी। बहुत वर्षो तक कोई बच्चा नहीं हुआ। ये लोग देश के सारे तीर्थ कर आये। हर डॉक्टर को दिखा डाला। कोई लाभ न हुआ। फिर एक दाई ने मां से कहा कि मैं तुम्हारी मालिश से ट्यूब खोल दूँगी। मुझे बनारसी साड़ी दिलाना, जब बालक हो।
कमाल हुआ, और मेरा जन्म हुआ। मेरे जन्म ने माता-पिता को तानों से बचाया और वंश वृद्धि के सपने भी जगाए। परन्तु, बचपने से ही मैं विवाह का विरोधी हो गया। बचपने से ही धर्ममुक्त हो गया, बचपन से ही मैं vegan हो गया। तब घरवालों को लगा कि बच्चे तो ऐसा बोलते-करते रहते हैं और बड़े होकर सब बदल जायेगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने जो कहा, न सिर्फ जीवन में उतारा बल्कि उसे कायम रखा। आज भी मैं हैरान हो उठता हूँ कि बचपने के फैसले, बड़ों के फैसलों से भी ज्यादा शक्तिशाली कैसे निकले? आज जब मैं उन फैसलों के लिये तमाम ज्ञान प्राप्त करके एक मजबूत आधार खड़ा कर चुका हूँ, तब सोचता हूँ कि शुरू से ही सही होना, कितना गौरवशाली होता है।
इस गौरव ने मुझसे मेरी बहुत सी प्रिय लगने वाली वस्तुएं, भोजन और दोस्त छीन लिए। समाज से अलग होना, समाज को बर्दाश्त नहीं होता।
- मैं लोगों के साथ बैठ कर खा नहीं सकता क्योंकि मेरे सिद्धान्त उनके पशुउत्पाद युक्त भोजन को क्रूरतापूर्ण और अन्यायपूर्ण मानते हैं।
- मैं महिलाओं से घुलमिल नहीं पाता, क्योंकि कहीं न कहीं आकर वे विवाह के बारे में मेरे विचार जानना चाहती हैं और जानते ही दूर हो जाना भी चाहती हैं। जो लिव इन में रुचि रखती हैं, वे मेरे बच्चे न पैदा करने के प्रण को लेकर नाराज़ हो जाती हैं।
- मेरा नशामुक्त स्वभाव, महिलाओं के प्रति समानता का नजरिया, मुझे घटिया सोच और नशे-जुए वाले लड़कों में बैठने नहीं देता।
- मेरा धर्ममुक्त विचार, धार्मिकों को आतंकी बना देता है। वह मारने-पीटने की हद तक गुस्सा हो जाते हैं।
- मेरा राजनीति मुक्त निष्पक्ष सोच व्यवहार राजनीतिक लोगों को गुस्सा दिला देता है। कई बार तो "मैं वोट नहीं देता" जान कर कई लोगों ने मुझे देशद्रोही तक कह डाला।
- मैं सत्य के अतिरिक्त किसी की जय नहीं बोलता तो हर तरह के लोग मेरे खिलाफ हो गये।
- मैंने रिश्तों को धर्मों द्वारा बनाया बताया, तो लोग मुझे मां-बहन की गाली देने लगे।
- मैंने सेक्स को जीवन का हिस्सा और ज़रूरत बताया न कि बच्चों को तो लोगों ने मुझे ठरकी कहा।
- जब नौकरी की जगह आत्मनिर्भर होने के लिये प्रतिभा प्रयोग करने को प्रोत्साहन दिया ताकि मालिक बन सकें तो लोग मुझे मूर्ख कहने लगे।
कुल मिला कर अधिकतर दुनिया के लिये मैं एक घटिया इंसान हूँ। जबकि मेरी नज़र में इनसे घटिया कोई नहीं है।
मैं समझाऊँ तो मैं सब सही और बेहतर कर रहा पाओगे और न समझाऊँ तो मैं इतना घटिया लगूँगा कि आप दूर ही होना पसंद करोगे। दोनो ही हालातों में मैं सुखी रहूँगा क्योंकि "कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगें खैर, न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर!" जाओ, नहीं बनता मैं किसी का गुरु! अभी वैसे भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। 😊 ~ Shubhanshu 2020© 2020/06/01 21:51