सच्चा आस्तिक कौन है? यह जानने से पहले आस्तिक क्या है यह समझना जरूरी है। परिभाषानुसार, "रचनाकार द्वारा रचित संसार में सब रचनाकार नियंत्रित कर रहा है, बना रहा है; इसमें हस्तक्षेप करने वाला नास्तिक है, ऐसा मानने वाला व्यक्ति ही आस्तिक है।"
अब आप एक जानवर का जंगल में व्यतीत होने वाला जीवन देखिये। वह बेजुबान अस्तिकता को माने या न माने लेकिन आस्तिक की परिभाषानुसार वह सही प्रतीत हो रहा है। वह जैसा चल रहा है वैसा चलने दे रहा है। पूर्ण प्राकृतिक जीवन। आस्तिकता यही कहती है कि हस्तक्षेप मत करो प्रकृति के साथ।
लेकिन क्या मुझे कोई भी आस्तिक होमो सेपियंस ऐसा मिला है? नहीं। मानव आस्तिक नहीं है। जानवर आस्तिक जैसा व्यवहार करते हैं लेकिन उनका कोई दर्शन नहीं है। वह मूर्खों की तरह ईश्वर की कल्पना करके उसका पूजन या आराधना नहीं करते। वह उनको चढ़ावा और रिश्वत देकर प्रकृति में अपने लिए बेईमानी करने के लिए नहीं उकसाते। जीवन को जीवन की तरह लेते हैं और मस्त हैं।
अब सच्चा नास्तिक कौन है? अभी के क्षद्मनास्तिक क्या कर रहे हैं? प्रकृति से छेड़छाड़। अच्छे के लिए नहीं, बल्कि बुरे के लिए। गलत प्रोपोगोण्डा को सही मान कर शिक्षा का दुरुपयोग कर रहे हैं। सत्य से कतरा रहे हैं। जो पहले से किताबों में लिख दिया गया उसे बदलने की सोचना भी धार्मिकों की तरह उनको गलत लग रहा है जबकि ज्ञान बदल रहा है। पुराना ज्ञान जल्द ही नवीनतम होता जा रहा है लेकिन उनका क्या जो प्रोपोगोण्डा और पुरानी किताबों में उलझे हैं?
पुनः जानवरों की ओर देखते हैं। वे प्राकृतिक जीवन जी रहे हैं। कुछ जंतु जाला, घोंसला, कोकून, लकड़ियों को चिपका कर, पत्तो को चिपका कर, मिट्टी से, अपने शरीर के मोम से, मांद ढूंढ कर, बिल खोद कर अपने रहने योग्य स्थान बना रहे हैं। क्या वह प्रकृति के विरुद्ध न था?
जानवर सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं। आज जितनी भी विज्ञान से चीजें बनी हैं उनमें से सबसे महत्वपूर्ण वाली तो जानवरों से ही प्रेरित हैं। जैसे बाज/चील से हवाईजहाज, मछली से नाव, जुगनू से फ्लैशलाइट, चीते से मोटरसाइकिल, साही से धनुष, ऑक्टोपस से रंग की पिचकारी आदि।
अब वे बेजुबान बिना विज्ञान जाने भी मानव से अधिक शक्तिशाली, बुद्धिमान और साधनयुक्त दिख रहे हैं। उनको कमाने के लिए किसी का नौकर नहीं बनना पड़ता। कुछ खरीदना नहीं पड़ता। वे अपने भोजन में नमक, तेल, मिर्च नहीं डालते। उसे आग जला कर पकाते नहीं। जो जैसा उपलब्ध है, वही पर्याप्त है उनके लिए।
वे कपड़े नहीं पहनते, उनके यहाँ कोई वयस्क होने से पहले रोकटोक नहीं होती, मातृसत्ता का बोलबाला होता है, नर केवल प्रजनन क्रिया के लिए ही ज़रूरी होते हैं, पालने के लिए माता पर्याप्त होती है, वे पूजा नहीं करते, रिश्वत नहीं देते, धोखा नहीं देते, बलात्कार नहीं करते, हाँ चोरी ज़रूर करते हैं कभी-कभी लेकिन वह भी जीवन संघर्ष का हिस्सा है। न करो तो मरो।
तो क्या यह लक्षण नास्तिको से भी नहीं मिल रहे? अब यह क्या गोरखधंधा है? नास्तिक भी जानवर और आस्तिक भी। अतः प्रकृति को भोगने के लिए आस्तिक/नास्तिक होना मायने ही नहीं रखता लेकिन तर्कवादी होना रखता है। कैसे?
एक हाथी को खाई में धकेलने की कोशिश कीजिये। चलिये बड़ा ज्यादा हो गया तो किसी चौपाये को गड्ढे या खाई में धकेलने की कोशिश कीजिये। नहीं हो पा रहा? चलो एक छड़ी लेकर एक जानवर के मारिये। अब दोबारा मारिये। देखिये वह प्रतिक्रिया देता है या नहीं? चलो और कुछ try करते हैं।
एक मशाल जलाओ। अब जानवर के मुहँ पर उसकी आंच लगाओ। क्या हुआ? भाग गया वह? होना ही था। देखिये, जानवर भी जानते हैं कि खतरा कहां है। अतः वह तर्क लगाते हैं। वह जीवन जीना सीख लेते हैं क्योंकि वे मरने से बचना जानते हैं। ऐसा तर्कवाद से ही सम्भव है। उनको मालूम है कि आग उनको जला देगी, खाई में गिर के उनको चोट लगेगी, छड़ी से उनको तकलीफ होगी। अतः वे बार बार एक ही गलती नहीं दोहराते। इसी को अर्जित गुण कहा जाता है। यह तर्कशक्ति ही है।
मतलब तर्कवाद प्रकृति में है लेकिन अस्तिकता/नास्तिकता केवल मन का वहम है। जैसा जीवन जीने को मिला उसे वैसे ही जीना प्रकृति है। श्रेष्ठ है और सही है। लेकिन विज्ञान का क्या? सुविधाओं का क्या? हम उनकी आदत डाल चुके। पुरखों ने यह आधुनिक जीवन जिया है, अतः अब इसे नियंत्रित करना ही श्रेयस्कर होगा। बिल्कुल वापस चले जाना अब सम्भव नहीं है।
विज्ञान वह सुनियोजित ज्ञान है जिसका उपयोग समस्या के निदान में किया जाता है लेकिन इससे समस्या को भी पैदा किया जा सकता है। बेहतर होगा कि जितना प्रकृति के करीब रह सको, वह कार्य करो और विज्ञान का प्रयोग, समस्या सुलझाने में कीजिये न कि समस्या पैदा करने में।
याद रखिये, बस यही एक पृथ्वी है अभी, जहाँ जीवन शेष है और हम इसे अपना हक समझ कर विवाह और बच्चे पैदा करके अपने लिए छोटा कर रहे हैं। प्रायः मानव ने बस इसे दीमक की तरह खाया ही है और विज्ञान हो या ज्ञान हो, प्रकृति से अभी तक कोई नहीं जीत पाया है। अति का अंत होता है।
सावधान रहिये, बदलिये खुद को, विवाह और बच्चों को होने से पहले ही त्याग करके और लोगों को भी जनसँख्या और विज्ञान के दुरूपयोग को रोकने के लिए निकल पड़िये।
यह आप किसी और के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए ही कर रहे होंगे क्योंकि रहना आपको भी इधर है और उनको भी, जो अभी भेड़चाल में लगे हैं। दोषियों को दंड देने से भी अगर बात बन जाये तो चलेगा। अन्यथा जब प्रकृति अपने संतुलन को करेगी तो बिना ज़मानत के, बिना ट्रायल के और बिना अदालत के तुरन्त दंड भोगने के लिए तैयार रहिये। 2018/10/31 20:01 ~ शुभाँशु सिंह चौहान 2018©