लोग अपने आप को जब तक अकेडमिक (शैक्षणिक) सिद्धान्तों के अनुसार नहीं ढालते, देश क्या विश्व विष के घूंट पियेगा।
शैक्षिक सिद्धान्त वे हैं जो आपकी पाठ्य पुस्तकों में लिखे हैं। जो भ्रष्टाचार आप करते हैं वह अशिक्षा है। गांव में भृष्ट अधिक हैं। अधिकतर सरकारी कर्मचारी गांव से आते हैं। क्योंकि उनके पास पढ़ाई के अलावा कोई काम नहीं होता और वे वही करते हैं शहर में रह कर।
ऐसे गांव के लोग बस रटन्त विद्या सीखते हैं क्योंकि उनको ज्ञान नहीं होता सब कुछ समझने का। वे पढ़ाई बस पास होने के लिये करते हैं। आप उनकी भाषा और व्यवहार देख के समझ सकते हैं कि इन्होंने खाली पढ़ाई को सीढ़ी बनाया पैसा प्राप्त करने के लिए। वे उस शिक्षा को अपने वास्त्विक जीवन मे कभी नहीं उतार पाएंगे क्योकि उन्होंने सिर्फ पढ़ा था, याद किया था लेकिन समझा कुछ भी नहीं था। इसी को शिक्षा और वास्तविक शिक्षा के बीच का अंतर कहा जाता है।
वास्तविक शिक्षा वह है जो आप शिक्षित होने के लिये लेते हैं। और दूसरी शिक्षा जिसे आप व्यवहारिक शिक्षा कह सकते हैं वह सिर्फ आपकी मार्कशीट में अंक बढ़ाने के लिए ली जाती है। यही बर्बादी की जड़ है। आप धन तो कमा लेंगे लेकिन उसे मैनेज नहीं कर पाएंगे, भ्र्ष्टाचार में लिप्त हो जाएंगे,आपमें और एक अशिक्षित में व्यवहारिक समानता होगी। इनको पढ़े लिखे अनपढ़ों की श्रेणी में रखा जाता है।
भारत में इस समय 90% स्नातक अयोग्य हैं। वे बस परीक्षा पास करने की ट्रिक जानते हैं। उनकी अधिकांश ज़िन्दगी मंदिर/मस्जिदों में या चिकित्सकों के पास कटने वाली है और यही लोग अस्वस्थ सरकार को चुनेंगे। इस बात का प्रमाण आप सिर्फ इस बात से पा सकते हैं कि विद्यार्थी कितनी भी पढ़ाई क्यों न कर ले, वह दुआ/मन्नत मांगने ज़रूर जाएगा। क्योकि उसे खुद पर भरोसा ही नहीं है। जबकि जो बातें हमें पसन्द आती हैं, उनको हमें याद नहीं करना पड़ता, वह याद रह जाती हैं। जो हमें याद रह जाता है वही हम जीवन मे उतारते हैं और जो रट लेते हैं उसे हम बस दूसरे को पढ़ा/सुना सकते हैं। समझ/समझा नहीं सकते।
इन सब का सार इसी बात से सामने आ जाता है कि हम भारतीय लोग नौकरी तो सरकारी चाहते हैं लेकिन कोई सरकारी जगह हमें पसन्द नहीं आती।
इंसान को शिक्षा का ज्ञान नहीं बल्कि सुविधा का लालच लुभाता है और यही इस विश्व की परिणति है कि अब महान ज्ञानी लोग पैदा नहीं होते। धूप में लाइन में लगा व्यक्ति खिड़की से AC की ठंडक में बैठे बाबू को देख कर यही दुआ मांगता है कि काश वह भी बाहर नहीं बल्कि भीतर होता।
अब हर कोख से एक भृष्ट पैदा होता है। जिसमे सब अवगुण ही होते हैं, कोई गुण नहीं होता और उसको जीत मिलती है क्योंकि लोग यही चाहते हैं। अगर कोई भृष्ट नहीं होगा तो बिना लाइसेंस की बन्दूक और गाड़ी कैसे चलाएंगे? जल्दी काम कैसे करवाएगे? अपराध करके कैसे बचेंगे?
ब्रायन का लिखा लेख इसी बात की ओर इशारा करता है कि हम जन्म से और कर्म से भृष्ट पैदा होते हैं और उसका कारण हमारा भेदभाव और धर्म है। "हम कभी सुधर नहीं सकते" ऐसा लगता है लेकिन याद रखिये हर सुधरे हुए व्यक्ति ने कभी यही शब्द कहे थे। नमस्कार। 2017/09/30 03:12 लेख: Vegan Shubhanshu Singh Chauhan
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें