हम में से अधिकतर विद्वान बहुत ज़ल्दी निराश हो जाते हैं। सबकुछ बहुत जल्दी जानने की चाह हमको ज्ञानी बना देती है लेकिन परेशान भी बहुत कर देती है। दरअसल हम में से बहुत लोग सबकुछ जानने के लिये नहीं बने या बनना ही नहीं चाहते।
जो यह बात नहीं जानते, वे कुएं से निकल कर, एक बड़े तालाब को ही दुनिया समझ बैठते हैं। गलती उनकी नहीं है। जब भी कोई छोटे से कुएं से बाहर निकलता है तो वह सीमित तालाब उसे दुनिया ही नज़र आतीं है, जैसे जब तक हम अंतरिक्ष में नही गए हम बस पृथ्वी को ही सबकुछ समझ बैठे थे।
आज हमें पता है कि ross 128 ख नाम का पृथ्वी के समान एक और ग्रह मिल चुका है। उस पर मानव के बसने की उम्मीद बढ़ती जा रही है। लेकिन हम में से ज्यादातर विद्वान क्या कर रहे हैं? बस इस छोटे से पृथ्वी रूपी तालाब के चक्कर काट कर खुद को पूर्ण हुआ समझ लेते हैं। उतना जानकर ही हम 50 वर्ष की उम्र में बस मृत्यु की राह देखने लगते हैं।
मैं भी कभी कभी ऐसा ही सोचने लगता हूँ। जैसे अब बस हुआ। यह मानव की आत्म घाती इंस्टिंक्ट कहलाती है। जबकि सत्य तो यह है कि जीवन के खुशनुमा पल एकांतवासी बन कर भी मिलते हैं लेकिन कथित परलोकवासी बन कर कभी नहीं। लाशें नहीं बोलतीं। लाशें नहीं सिखातीं। लाशें सड़ती हैं। लाशें दुर्गंध फैलाती हैं। लाशें बीमारी फैलाती हैं। हमकों लाश नहीं बनना। हमको तो दुनिया में ज्ञान की सुगंध फैलानी है।
जब तक विद्वान जीवन जीते हैं बस उतने ही दिन अच्छाई फलती-फूलती है। जब उन विद्वानों की मृत्यु होती है, तब सारी दुनिया अनाथ हो जाती है।
मैं इसीलिये जीवन जी रहा हूँ क्योकि लोगों को मैं अभी कुछ विद्वान लगता हूँ, उनको मेरी ज़रूरत है। जबकि मैं अभी भी कुएं से निकल कर तालाब में आया और अब उस से आगे जाने वाले अन्य विद्वानों की तरह का एक सामान्य सा मूर्ख इंसान रूपी मेढ़क ही हूँ।
मैं भी कभी कुएं को तो कभी तालाब को पूरी दुनिया ही समझ बैठा था लेकिन आशा की किरण किसी न किसी कोने से आती दिखती ही रही और मैं फुदक कर एक दिन तालाब से बाहर निकल ही आया। यह दुनिया पहले वाली दोनो दुनिया से बेहतर थी। मैंने अपनी कंफर्ट ज़ोन छोड़ दी थी और संघर्ष की एक नई राह पकड़ कर जीवन को फिर से रोमांच से भर दिया।
दुनिया 1. कूप या कुंआ (स्थानीय परिवेश: देश यात्रा व देशी पुस्तके)
दुनिया 2. तालाब (बाहरी परिवेश: विदेश यात्रा व विदेशी पुस्तकें)
दुनिया 3. समुद्र (गूढ़ ज्ञान की दुनिया, छिपी हुई दुनिया, रहस्य और हर समस्या का हल)
और मैं और आप एक मण्डूक (मेढ़क: उभयचर प्राणी)
इस तीसरी दुनिया में मैं आज विचरण कर रहा हूँ। जो ब्रह्मांड जैसी विशाल है। वैसे ही हमारे लिये समुद्र भी बहुत विशाल है। इसे देखने के लिये बहुत जीवन चाहिए। बहुत ज्यादा, बहुत बहुत बहुत ही ज्यादा। लेकिन वह कैसे मिले? जर्जर ज़िस्म, चारपाई पकड़े हुए, 100 वर्ष जीवन जीने से तो मर जाना बेहतर। फिर कैसे रहें चिरंजीवी? चिरयुवा?
जब आप इस तीसरी दुनिया में जाते हैं तो जीवन अपने आप लम्बा और शरीर युवा होने लगता है। शरीर अपने आप एडजस्ट करता है खुद को, बदली हुई दुनिया के अनुसार। हमें ऐसा ज्ञान मिलने लगता है जो पहले सर्वथा असम्भव था। यानि वह अब जब आपकी सच्ची आवश्यकता बना, तब सम्भव हो गया। जवान और अमर होना अब सम्भव हो चुका। मृत्यु अब अंतिम सत्य नहीं।
कोई भी जीव अब तक नहीं बचा इसलिये हम कहते हैं कि मृत्यु अंतिम है। इससे कोई पार नहीं जा सका। लेकिन फिर यह क्यो भूल जाते हैं कि पहले कोई हवाई यात्रा भी तो नहीं करता था, मोबाइल पर फेसबुक-ट्विटर-व्हाट्सप्प-इंस्टाग्राम आदि भी तो नहीं चलाता था।
पहले वाले जीव-जंतु-मानव अभावग्रस्त थे लेकिन हम लोग तो सम्पन्न हैं। उम्मीद ने ही हमको जीवन दे रखा है। फिर भी हम उसे छोड़ देने में देर नहीं लगाते। यह कैसा शुक्रिया है? यह कैसा सम्मान है उम्मीद का? उसे गले लगा कर मान देने की जगह फटकार? छी, थू है ऐसे तिरस्कार पर।
जब भी सब दरवाजे बंद दिखें तो हमको नये दरवाजे के खुलने की उम्मीद लग जानी चाहिए। न मिले तो समझ लीजिए कि आपको वह अब खुद बनाना है।
याद रखिये मैं आपको सबकुछ घोल कर नहीं पिलाने वाला। इशारा कर सकता हूँ लेकिन चम्मच से नहीं खिला सकता। मैं बहुत स्वार्थी व्यक्ति हूँ। सबकुछ लुटा कर चैन और सुकून खरीद लेना चाहता हूँ। मुस्कुराहट देकर मुस्कुराहट प्राप्त करता हूँ। सौदेबाज हूँ, सौदागर हूँ। छलिया हूँ। आपसे आपके दुःख की धूप ठग कर सुख की छांव का चूना लगा दूँगा।
मैं आया ही इसीलिये हूँ, आप सबको ठगने के लिए। ~ शुभाँशु जी 2018©