समाज को, उसके बंधनो को जो लोग अच्छा समझते हैं, वही दरअसल समाज के दुश्मन हैं। यही वे लोग हैं जो तमाम अच्छी सोच वाले बनकर भीतर से घटिया ही बने रहते हैं। सबसे निम्नस्तरीय सोच वाले वह हैं जो दूसरों के लिये बड़ी बड़ी बातें करेंगे जैसे,
"आप अपनी लड़की को खूब पढ़ाइये, चाहें जैसे कपड़े पहनाइए। हमारे यहाँ लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता। पढ़ाने से लड़कियां बिगड़ जाती हैं (तभी इनके लड़के बिगड़ गए पढ़ाई करके) और आधुनिक कपड़े वाली लड़कियाँ (इनके) लड़कों का शिकार बन जाती हैं।"
मतलब दूसरा करे तो कोई दिक्कत नहीं है क्योकि खुद की नज़र दूसरों के ऊपर रहती है। लेकिन अपने वाले परम्परागत ढंग से ही चलने चाहिए। यह दरअसल उसी तटस्थता के नियम की झलक है जो आपको धर्मनिरपेक्ष होने के संदर्भ में दर्शाया जाता है, जैसे,
"आप मना लो होली, दिवाली हम भी गुझिया खाने, रंग लगाने आ जायँगे। आप भी आ जाना ईदी खाने को हमारे यहाँ।"
"खान साहब, हमारे यहाँ दुर्गापूजा और जागरण है आपको सादर आमंत्रित किया है"
"आ जाएंगे जी। ज़रुर आ जाएंगे।"
"आप आये नहीं पूजा में खान साहब?"
"अरे क्या बताएं, उसी समय बिटिया को दस्त लग गए और उसे दवाई दिलाने ले जाना पड़ा। बताइये क्या करते?"
"अरे पांडे जी, आप ईदी खाने नहीं आये। आपके लिये बिरयानी बनवाई थी।"
"हमारा उपवास था उस दिन खान भाई। इसलिये आपको तकलीफ नहीं दी। खान साहब"
इस तरह से चलता है भाई चारा। अंदर क्या चलता है वह भी देखिये।
"अब क्या बताएँ पांडे जी को कि हमारे यहाँ मूर्ति पूजा हराम है। ख़ुदा माफ करना, धर्म की रक्षा के लिये झूठ बोलना पड़ा!"
"हरे राम, हरे राम, अब क्या कहें खान साहब को, उनकी बिरयानी ख़ाकर धर्म थोड़े ही भृष्ट करना है। माफ करना राम जी, धर्म की रक्षा के लिये झूठ बोलना पड़ा! हरि ॐ तत्सत!"
क्या है यह झूठा समाज? खाली दिखावा? बस एक चिंगारी का इंतज़ार करता हुआ विस्फोटक? और जब नेता चुनोगे तो मुद्दे तो चाहिए ही जिन पर आपको सबसे ज्यादा गुस्सा हो। वही न जिसके कारण आपको धर्मरक्षा करनी पड़ती है? कि काश दूसरे धर्म वालों के बीच रहना ही नहीं पड़ता तो कितना अच्छा होता?
भारत कभी धर्म तटस्थ (कथित धर्मनिरपेक्ष) था ही नहीं। बस दिखावा करना था ताकि चैन से जी सकें। लेकिन क्या नेता ऐसा होने देंगे? आप अपनी कास्ट, धर्म और पैरवी करने वाले को ही तो वोट देते हैं। क्यों? क्योकि आपको उससे उम्मीद हैं और बाकियों से नफरत।
उम्मीद भी किस बात की? यही कि हमको अलग कालोनी/राज्य/देश मिल जाये, लड़के-लड़कियों को गैर धर्म में रिश्ता न जोड़ना पड़े। अलग सुविधायें मिल जाएं। सब कुछ धर्मानुसार होता रहे; चाहें वह कितना भी गलत ही क्यों न हो। पुरखों ने किया तो कुछ तो बात होगी! यही सोच कर पाप पुण्य और पुण्य पाप में बदलते रहते हैं।
हम सब धर्म/सम्प्रदाय की बारूद से बने बम बने घूम रहे हैं और नेता फुलझड़ी लेकर आपके करीब आ रहे हैं। सावधान रहें। वैसे भी आप बारुद को आग पकड़ने से रोक नहीं सकते। क्या फुलझड़ी को कभी फूंक मार के बुझा पाया है कोई? ~ शुभाँशु जी 2018©
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें