दरअसल जो महिला, जैसे माँ, लड़कियों पर पिता की तरह बंधन लगाती हैं, उससे ऐसा आभास होता है कि वे भी पिता जैसा सोचती हैं। लेकिन दरअसल ये एक डर है कि जिस तरह माँ ने पति के घर में एडजस्ट कर रखा है वैसे ही बेटी भी अगर न कर पाई तो उसको भी ससुराल में रखना मुश्किल होगा।
ये गुलामी की सोच, महिला को सदा बच्चा ढोने की मशीन बनाने के कारण पैदा हुई और महिला आज भी उसी परमपरा को धर्म से प्रेरणा पाकर निभा रही है। उस पर गर्व भी कर रही क्योकि महिमामण्डित कर दिया जा जाता है बलि के बकरे की कुर्बानी को बलिदान कह कर।
अतः आत्मनिर्भर न होना, पति के घर में रह कर उसकी गुलामी करना ही मजबूरी बन गया है। इसी मजबूरी में वो दूसरो को भी अच्छा गुलाम बनने को प्रेरित करती हैं ताकि अपने मालिको (सास-ससुर-ननद-पति) को खुश रख सकें। जब भी कोई लड़की अपनी आज़ादी की बात करती है या विवाह के इतर कुछ करने की सोचती, रिस्क उठाती है तो घर समेत सारा समाज कहता है कि आपकी लड़की हाथ से निकल गई। मतलब लड़की कंट्रोल (गुलामी) से निकल गई।
आज़ादी, महिला के लिये अभिशाप समझी जाती है, इस वंशवादी समाज में। इस से निकलने के लिये, 'करो या मरो' की नीति लागू करनी होगी। ये आज़ादी भी कीमत मांगती है। यलगार मांगती है। क्रांति मांगती है।
परिवार को अपनी समाज में इज़्ज़त के अलावा कोई मोह अपने बच्चे से नहीं होता। आप उनके जाल से निकलना चाहते हैं तो मोह अपने सपनो से करो, दुनिया आप पर मोहित हो जाएगी। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© "सपनो का सौदागर"
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