बचपन मे मैं भी प्रकृति के पीछे पागल था। लेकिन इतना नहीं कि सीधे शिकारी आदिवासी ही बन जाऊं। आदिवासी भी जानवर नहीं होते। उनकी अपनी सभ्यता होती है। वे भी अपनी परमपरा और अंधविश्वास में लिप्त होते हैं। सबसे ज्यादा अंधविश्वास वहीं से आये हैं।
बनो तो वास्तविक जानवर बनो, आदिवासी नहीं; लेकिन फिर सरकार, सुविधा, विज्ञान, चिकित्सा का उपयोग भी कतई त्यागना होगा। दूरगामी सम्पर्क और सभी आधुनिक कार्य भी त्यागने होंगे। खुले में सोना होगा। शेर, तेंदुए, भेडिये, लकड़बग्घा, सांप आदि से सीधा सामना करना होगा। न हथियार न कोई उपाय करना होगा। भयँकर बीमारियों से मर जाना होगा, बिना कोई दवा खाए।
प्रकृति में मृत्यु दर 100% है। जो इस के विरुद्ध नहीं हो सका वो मर जायेगा। अगर मैं भला मानस हूँ तो मैं वाकई लम्बा जीना चाहूंगा। मानव मृत्यु दर कम करने, अधिक आनन्द लेने के लिये ही प्रकृति से थोड़ा दूर हुआ है। अतः अगर स्वस्थ और प्रकृति प्रेमी रहना है तो आधुनिकता और प्रकृति दोनो में सामंजस्य बैठाना होगा। सिर्फ बातें करके आधुनिकता को कोसने से कोई लाभ नहीं, कहने से पहले करके दिखलाना होगा। ~ Shubhanshu SC 2019©
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