Zahar Bujha Satya

Zahar Bujha Satya
If you have Steel Ears, You are Welcome!

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शनिवार, दिसंबर 28, 2019

ईश्वर और उनके दूतों का आमरण अनशन ~ Shubhanshu


एक बार सभी धर्मो के ईश्वर और उनके मृत संस्थापक घर आकर
बोले: हमको क्यों नहीं मानता है बे?
शुभ: नहीं मानूँगा। क्या कर लोगे?
त्रिशूलधारी: क्या बोला बे?
गजमानव: अरे काहे गुस्सा हो रहे हैं पिता जी?
शूलीधारी: आओ साथियों, यहाँ गुस्से से काम नहीं चलेगा।
पगड़ी-दाढ़ी धारी: ये आदमी खतरनाक है। कुछ करना पड़ेगा।
छुरी धारी: जो बोले...सो निहाल...निकालेगा कोई हल।
नग्न पुरुष: अहिंसा परमो धर्म:।
घुंघराले बाल धारी: आइए शांति से बात करते हैं।
(सब मिल कर मंत्रणा करते हैं)
सभी एक साथ: तय हुआ है कि भूख हड़ताल करेंगे।
शुभ: आप सब तो अमर हो। लगे रहो। हाथ कंगन को RC क्या? पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या? शुरू हो जाओ।
तब से ये सब दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर हैं। 10 साल हो गए। इसलिये आपकी मदद नहीं कर रहे। परेशान न हों। दिल्ली चलो। इनके साथ अनशन पर लग जाओ। शायद कोई मदद कर दे। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

गुरुवार, दिसंबर 26, 2019

वोट न देने वाले निर्दोष हैं ~ Shubhanshu


बहुमत का ही मूल्य होता है। जो लोग नेता नहीं चुने उनकी कोई वैल्यू ही लोकतंत्र में नेता चुनने में नहीं होती। दरअसल जिस तरह से पुराने नेता ही बार-बार सत्ता में आकर गाली खाते हैं उससे जो विपक्षी है वे भी एक से दोषी हैं। वोट न देने वाले ही किसी भी प्रकार से दोषी नहीं हैं। 

इसीलिए पढ़ालिखा धनी वर्ग कभी वोट देने के लिये ट्रॉली में भर के और धक्के खाकर लाइन में लग कर वोट देने नहीं जाता।

सिर्फ पैसे के लालच में गरीब और मध्यम वर्ग का वह तबका जाता है जो किसी न किसी धार्मिक, जातीय, या नफ़रत की भावना से या फिर वोट देना ज़रूरी है ऐसा समझ कर देने जाता है। छात्र तो अपने छुटभैया नेता के साथ मिल कर गुंडागर्दी कर सकें इसलिये अपने जानने वाले को वोट देकर लुभाते हैं।

और ये नेता कौन बनने आता है? गली का गुंडा, पुजारी, नेता का लड़का, उसकी पत्नी, बेटी, कोई व्यापारी, अभिनेता-अभिनेत्री, कोई संत, साधु, प्रसिद्ध हस्ती, अंडरवर्ल्ड के लोग आदि आसानी से नेता बन जाते हैं। अच्छे लोगों को नेता बनाने के लिये अन्ना हजारे जैसा आंदोलन ही कभी-कभी काम कर सकता है और वैसा आंदोलन बार बार नहीं होता।

कुछ लोग कहते हैं कि जो वोट नहीं देते उनके कारण गलत नेता चुने जाते हैं तो वे मूर्ख हैं क्योंकि जो वोट देना नहीं चाहता वो नोटा का बटन दबाएगा और उससे क्या बदल जायेगा? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

सोमवार, दिसंबर 23, 2019

कंडोम प्रयोग करने की आदत डालिये ~ Shubhanshu


यदि मोनोगेमस सेक्स चल रहा है तो मैथुन भंग विधि का प्रयोग कर सकते हैं। न कंडोम की ज़रूरत है और न ही पिल की। pill केवल आपातकाल में प्रयोग किया जा सकता है।

मैथुन भंग में सभी लोग अभ्यस्त नहीं होते इसलिये ये केवल उन्हीं के लिये उचित है जो biology जानते हैं और खुद पर बहुत नियंत्रण है। साथ ही इसमें कुछ प्रतिशत गर्भधारण का डर बना रहता है लेकिन मेरे मामले में वर्षों से ये सफल रहा है।

कंडोम सबसे बेस्ट है सभी महिला-पुरूष हमेशा जेब/पर्स में डीलक्स निरोध का 5 in 1 pack (5₹ में 5 पीस) रखें। 😍

Pills के बारे में डॉक्टर की राय से ही चलें। ~ Shubhanshu 2019©

बिन फोटू सब सून ~ Shubhanshu


फेसबुक पर लड़की अपनी सेल्फी न डाले तो उस id के पीछे क्या-क्या हो सकता है? कुछ अनुमान प्रस्तुत हैं:

1. साधारण लड़का (लड़की बन कर, लड़कियों की पसन्द जानकर, बाद में असली id से सेटिंग करने की चाह में)
2. गैंडा (खुद समझिये)
3. Engaged Girl (लड़की जिसकी मंगनी हो चुकी या किसी लड़के के साथ relationship में है)
4. Married Girl doing Inappropriate acts without knowledge of her husband. (शादीशुदा महिला गैर मर्दों की तलाश में)
5. असली लड़की सेक्स चैट करने के चक्कर में। (दूसरी असली id पर भजन गाने वाली)
6. बुजुर्ग लेकिन ठरकी महिला।
7. बेहद बदसूरत शक्ल की असली लड़की/महिला जिसे पता है कि उसे असलियत में देख कर कोई भी भाग जाएगा।

ऐसे ही अगर लड़के की id में जानकारी नकली और फ़ोटो गायब है तो कुछ अनुमान प्रस्तुत हैं:

1. गैंडा
2. बदनाम अपराधी
3. Giggalo (पुरुष वैश्या, महिला हेतु)
4. आपराधिक पोस्ट करने वाला (अफवाह विशेषज्ञ)
5. गाली बाज़/बदतमीज
6. एक से अधिक आपातकाल ID बनाने और कोई same id की रिपोर्ट न करे।
7. महिला से सेक्स चैट करने की तलाश में
8. कोई मिशन/संस्था/आंदोलन चलाने वाले अपने logo को DP में लगाये हुए।

बाकी आप सुझाइए।

Note: समझ आये तो ठीक, न आये तो कोई पोस्ट पर हंसेगा नहीं। OK? ~ Shubhanshu 2019©

हम सब महान हैं लेकिन... ~ Shubhanshu

एक राज़ की बात बताता हूँ।

हम अक्सर महापुरुषों को इतना महान क्यों पाते हैं?

क्योंकि उनकी सभी बातों को उनके चाहने वालों ने बढ़ा चढ़ा कर बताया होता है और केवल अच्छा पक्ष ही।

बाकी वे सब भी उसी साधारण माँ से जन्में हैं जिससे हम-तुम।

हर इंसान महान है।

बस हम सब जानबूझकर खुद को बुरा दिखा रहे हैं।

वरना क्या हम अपनी कमियों को जानते नहीं हैं क्या?

बस दूर नहीं करते। जानबूझकर।

गुस्सा है, नफरत है, अपमान है, चाहत बड़ी और उम्मीद छोटी है। दूसरों से जलते हैं। कोई हमसे बेहतर हार भी गया तो खुद की भी हिम्मत तोड़ देते हैं। नहीं सोचते कि क्या पता अगला कोई गलती कर बैठा या जानबूझकर हार गया। आपकी हिम्मत तोड़ने के लिये। ☺

सच तो ये है कि हम बस महान लोगों से काम निकालने में ही आसानी समझते हैं। हम उन जैसे नहीं हो सकते, कह कर, दरअसल खुद मेहनत करने से बचना चाहते हैं।

आजकल पेट भर गए हैं और सुविधाओं से हम लैस हैं। कल जो ऐसी ज़िंदगी पाने के लिए महान बन गए, वो ज़िंदगी आपने पैदा होते ही पा ली। फिर क्या ज़रूरत है महान बनने की? ऐसे ही ठीक हैं। हैं न? 😊

धर्ममुक्त जयते! ~ Shubhanshu 2019©

रविवार, दिसंबर 22, 2019

All is well is much better than any religion ~ Shubhanshu


शुभ: पंडित जी नास्तिक कौन होता है?
पंडित जी: मैं हूँ।
शुभ: अरे नहीं। ऐसा कैसे?
पण्डित जी: देखिये मैं सब जानता हूँ कि ये मेरा रोजगार है और मैंने आजतक इस मूर्ति के सिवाय कोई देवता न तो देखा है और न ही देखूंगा। ये सब धर्म धंधे हैं। सोचो अगर कोई ईश्वर होता भी तो क्या हम इन मूर्तियों/हवा में अपनी प्रार्थना करके उसको नियंत्रित कर सकते हैं?

यदि हाँ तो फिर वो सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? जबकि हम उसको अपने अनुसार चला रहे? पूजा/इबादत/प्रार्थना आदि सब के सब बस आपको तसल्ली देने के धंधे हैं। जिनसे होता कुछ नहीं बस आप को तसल्ली हो जाती है कि सब ठीक होगा। ये तो all is well बोलने से भी मिल जाती है न? बस इस दुनिया में दरअसल कोई आस्तिक है ही नहीं। केवल मूर्ख हैं जो खुद को आस्तिक बोलते हैं।

धंधा कर रहे या तसल्ली को ज्यादा ही गम्भीरता से लेकर मूर्खतापूर्ण हरकते कर रहे। तसल्ली होने पर काम बिना समस्या के हो जाते हैं। अक्सर हम लोग कार्य पूरा होने से पहले ही उसके बारे में गलत सोचने लगते हैं और उसी गलत के आने का इंतजार करते रहते हैं। फिर अधिकतर वो आता है क्योंकि आपने कोई गलती की होती है।

कभी-कभी आप गलती नहीं भी करते तो भी आपको पिछली गलती के कारण आत्मविश्वास नहीं रहता और आप घबराहट में काम खराब कर देते हैं। इसी घबराहट को खत्म करने का कार्य सभी धर्म तसल्ली देकर करते हैं जिससे लाभ होता है। अब तुम ही बताओ, इसमें ईश्वर का क्या लेनदेन?

सीधी बात है कि कोई ईश्वर अगर होता तो दुनिया में कोई समस्या ही नहीं होती। जिस दिन निचले स्तर का व्यक्ति/जन्तु/वनस्पति भी सुखी हो जाएगी उस दिन मैं ईश्वर को मान लूंगा कि वह सभी कुछ ठीक से चला रहा है। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

अपनी तो जैसे-तैसे कट जाएगी! आपका क्या होगा? जनाबे आली? ~ Shubhanshu



जो भी विद्वान इस तरह की पोस्ट (चित्र देखें) पेल रहे, आप एक बात बताओ।

नास्तिक हो या धर्ममुक्त? नास्तिक हो तो कैसे नास्तिक हो जो एक से नफरत और बाकी धर्म से प्रेम है?

धर्ममुक्त हो तो आपको क्या डर या परवाह है कि कोई किसी धर्म को बाहर कर देगा?

जाति मुक्त हो या नौटँकीबाज?

जातिमुक्त हो तो SC/ST का लेबल हटाओ। फिर किस बात का डर? न पूछो न बताओ जातिमुक्त देश बनाओ।

नाम से जाति खोजने वालों को मारो 10-10 थप्पड़। यही कमीने जातिवादी हैं। बाबा साहब भीम राव राम जी अम्बेडकर, रामा स्वामी अययर पेरियार, भगत सिंह आदि लोगों ने तो अपना नाम नहीं बदला या अपना परिवार नाम नहीं हटाया!

फिर ये कौन से जातिमुक्त लोग हैं जो नाम में जाति खोज रहे? नाम के आगे पीछे कुछ और ही तूतियापा लगा ले रहे? आपकी मर्जी है कि आप अपने नाम में क्या लगाते हैं लेकिन जातिवादी नहीं है दिखाने के लिये नाम की ऐसी तैसी न कीजिये। अजीब सरनेम से आप वैसे ही विशेष जाति समुदाय के दिखने लगते हो। जो अपना उपनाम छुपाता है अपने आप आरक्षित वर्ग का समझा जाता है। फिर कैसे हो गया जातिमुक्त कोई सरनेम हटा कर? जातिमुक्त मन से होता है इंसान। नाम से नहीं।

मारो इनको थप्पड़ और नहीं मार सकते तो सब अपने नाम सवर्ण जैसे रख लो। क्या समस्या है?

नौटंकी बाज ही हो तो ये बताओ कि SC/ST से तो सारा काम चलता है देश का तो उनको कोई निकाल कर अपना ही जीवन बर्बाद क्यों करेगा? 85% लोगों को कोई कैसे निकाल सकता है? बुद्धि है या नहीं?

सभी लोग मिल कर नास्तिक हों इसकी बात करनी चाहिए आपको न कि धर्मों का संरक्षण कर रहे। सभी नास्तिक धर्ममुक्त बनिये। फिर देखिए कौन आपको परेशान करता है। धर्ममुक्त जयते। ~ Shubhanshu 2019©

शनिवार, दिसंबर 07, 2019

मैं बोलूंगा तो बोलोगे, बोलता है ~ Shubhanshu


महिला (मादा) को डरा कर रखा जाता है। वो अपने मन की बात कह नहीं पाती। पुरुष को ज्यादा आज़ाद रखा जाता है इसीलिए पुरुष प्रधान दुनिया हो गई। बात सिर्फ बच्चा पालने की थी जिसके कारण महिला के हाथ बांधे गए। बाकी सभी जानवरो में मादा ही सबसे ज्यादा मजबूत और खतरनाक होती है। इंसांनो में भी यही सत्य है लेकिन परवरिश और सामाजिकता ने शेर को गीदड़ बना कर रखा है और इसका प्रमुख ज़िम्मेदार धर्म और संस्कृति हैं।

अपराध सदा से होते रहे हैं। आज मीडिया बिजनेस बन गया है तो खबर फैलाने का काम करने लगी है। पहले बात दबा दी जाती थीं आज सनसनी बना कर note कमाए जाते हैं। खुद देखिये कोई दुर्घटना हो जाये तो लोग उसकी वीडीओ बनाते हैं न कि मदद करते हैं। आज सनसनी मनोरंजन की तरह फैल रही है।

बाकी जो नृशंसता बढ़ी है उसके पीछे कानून का डर है। अपराधी को लगता है कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। इसलिये वो हत्या करना बेहतर समझते हैं बजाय कैद होने के।

समस्या तो ये कुंठा है जो सामाजिक बंधनो के कारण उपजती है। जानवर आज़ाद हैं विवाह और कपड़ो से और वे प्रकृति के अनुसार जीते हैं। जबकि इंसान को बंधनो और कानून के जाल में फंसा दिया गया है वो अब मर जाना चाहता है अपराध करके ही सही। जैसे आप सब देख रहे कि लोग मरने के लिये ही बलात्कारी बनते हैं। सेक्स इतना ज़रूरी हो गया है और मिल नहीं पा रहा। समस्या ज़रूरत अधिक और उसकी आपूर्ति की कमी है। इसीलिये छीनाझपटी मची हुई है।

आप भी कानून तोड़ दोगे अगर भोजन करने पर 7-10 साल की कैद की सज़ा रख दी जाए। आप भी छीनोगे रोटी किसी रोटी वाले से और मार डालोगे उसे जला कर क्योंकि ज़िंदा छोड़ेंगे तो जेल जाना पड़ेगा और कौन जेल जाना चाहता है?

99% प्लान बना कर हत्या करने वाले हत्यारोपी कभी पकड़े नहीं जाते। इसी कारण सुपारी लेकर हत्या करने का व्यवसाय तक बना लिया गया है। कानून हत्या रोकने में विफल है। वही पकड़ा जाता है जो खुद ही पकड़ा जाना चाहता है। दरअसल लोग दूसरे को तभी मारते हैं जब खुद की जान की कोई चाहत नहीं बचती या फिर वे आत्मरक्षा में मार डालते हैं। 1% संस्कृति और इज़्ज़त की ख़ातिर कत्ल करके अपनी मौत/आजीवन कारावास को चुन लेते हैं।

Note: दिल्ली की बस में ज्योति की नृशंस बलात्कार के बाद हत्या करने के केस में मिली फांसी की सज़ा के 6 साल बाद भी कानून अभियुक्तों की तरफ से सजा कम करने की अपील, राष्ट्रपति से फांसी को उम्रकैद में बदलने की याचिका का इंतज़ार कर रहा है। अभी हाल ही में 7 दिन का उनको नोटिस दिया है कि अपनी जान बचाने की कोशिश कर लो नहीं तो 7 दिन बाद कभी भी फांसी हो जाएगी। ज़ाहिर है कि उनको मरना ही पसंद है। ~ ज़हरबुझा सत्यवादी शुभाँशु 2019©

शुक्रवार, दिसंबर 06, 2019

बलात्कार: कारण, बचाव व सुझाव





सम्भोग सभी लिंग-योनि धारी जंतुओं की एक अत्यावश्यक प्रकृति है। ये कोई जानबूझकर कर किया गया कार्य नहीं है। बलात्कार एक शारीरिक हवस की न रोकी जा सकने वाली प्रवृत्ति है। इसको कहीं न कहीं तो निकलना ही है। ये कुंठित पुरुष समाज और महिलाओं के लिये सेक्स को हउआ समझने वाली सोच का परिणाम है। बलात्कार के समय बल प्रयोग विरोध के कारण व हत्या कठोर सज़ा के डर के कारण होती है। अपराधी कभी नहीं पकड़े जा सकते यदि वे cctv camera, वीडियो आदि में न पकड़े जाएं।

सुबूत मिटाने/हत्या करने के मामले में या महिला के शर्म के मारे मुहँ न खोलने के आश्वासन से आश्वस्त होकर ज़िंदा छोड़ने से वे केवल 10% मामलों में फंसते हैं। बाकी 90% बलात्कार पीड़ित महिला इस घटना को दबा जाती हैं। बलात्कार का लगातार विरोध करने, जेल भेजने की धमकी देने से महिलाओं की जान को सबसे अधिक खतरा होता है। जान बचाने के लिये या तो आप मार्शल आर्ट में ब्लैकबेल्ट हों या शांति से जो हो रहा है, उसे हो जाने दें और जब जान बच जाए तो सीधा थाने जाकर रिपोर्ट दर्ज करें। घायल हैं तो सीधा नजदीकी चिकित्सक से सम्पर्क करें।

कुछ मामलों में बलात्कारी, सज़ा से बचने के लिये व पूरी सेफ्टी के लिए महिला को विरोध न करने पर भी मार डालते हैं। ऐसी स्थिति में कानून का डर ही महिला की जान लेता है और उसका हम कुछ नहीं कर सकते। ज़िंदा बची महिलाओ में केवल उन्हीं के द्वारा रिपोर्ट लिखाई जाती है जिनके बॉयफ्रेंड या पति को बलात्कार के समय हुई मारपीट से बने निशानों, फटे कपड़ों से पता चल जाता है और वो बलात्कारी को सज़ा दिलवाने हेतु महिला पर दबाव डालते हैं। शेष सभी बलात्कार की शिकायतें झूठी और female ego के चलते किसी पुरुष (प्रायः प्रेमी के विवाह से मुकरने पर) को सबक सिखाने हेतु दर्ज करवाई जाती हैं। अधिकतर मामलों में ये ब्लैक मेल करना या किसी के द्वारा आर्डर लेकर परेशान करना होता है और कोर्ट के बाहर मोटी रकम लेकर ऐसे केस वापस ले लिये जाते हैं। बलात्कार के विरुद्ध बने कानून का 'महिला के केवल शिकायत करने भर से' बिना प्रमाण के गिरफ्तारी होने के नियम के कारण, इसका दुरुपयोग भी बहुत होता है।

असमान लिंगानुपात और प्रत्येक को समय पर संभोग का मनपसंद/नया साथी न मिल पाने की दशा में सम्भोग की इच्छा उग्र हो जाती है। महिलाओं में सम्भोग केवल विवाह के बाद करने की ज़िद के कारण हर महिला से न ही सुनने को मिलता है पुरुषों को। इसका अनुभव आप इसी से लगा सकते हैं कि सोशल मीडिया पर महिला नाम की id को प्रतिदिन अनगिनत सम्भोग के ऑफर पुरूषों द्वारा किये जाते हैं और महिलाएं उनको 'हाँ या न', न बोल कर सीधे गुस्से में अपमानित कर देती हैं। यहाँ तक कि उनके निजी संवाद के स्क्रीनशॉट भी लगा कर उनको अपमानित करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। फिर ये कुंठित पुरूष कहाँ जाए अपनी भूख मिटाने? बेहतर होगा कि महिलाएं रुचि न होने पर ऐसे लोगों को इज़्ज़त से मना कर दें और यदि वे उसके बाद भी तंग करें तो ब्लॉक कर दें।

नर की यौन भूख या तो हर बार नए पोर्न के साथ हस्तमैथुन से मिट सकती है या समय-समय पर बदलती महिला साथी से क्योंकि 99.99% जंतुओं की तरह मानव भी एक ही साथी के साथ संभोग करने में असमर्थ रहता है। इसी कारण विवाहित हो या अविवाहित, नर बलात्कारी को फर्क नहीं पड़ता। उनके अंग एक ही साथी के साथ सम्भोग नहीं कर सकते। वे शिथिल हो जाते हैं। फिर उल्टा उन के ऊपर उनकी साथी नपुंसकता (लिंग का खड़ा न होना) का आरोप लगाने लगती है। डॉक्टर इसे Eractile Disfuntion का नाम दे देते हैं और लम्बा-चौड़ा बिल फाड़ देते हैं। समस्या फिर भी वही रहती है। दवा ख़ाकर कोई अपनी भूख क्यों मिटाएगा जब ये समस्या सिर्फ अपनी ही पुरानी साथी के साथ होती है तो?

समाज में हस्तमैथुन करने वालों को नफरत से देखा जाता है। उनको मानसिक बीमार और कई काल्पनिक ख़तरों से डराया जाता है जबकि हस्तमैथुन पर्याप्त मात्रा में सेक्स करने के समान है। स्वस्थ वयस्क पोर्नोग्राफी, सेक्स घटनाओं से युक्त पुस्तक, स्वप्न आदि से भी वे सभी रसायन बनते हैं जो सामान्य सेक्स में बनते हैं। 

अतः यदि सामान्य सम्भोग न भी मिले तो कामोत्तेजक माध्यम से हस्तमैथुन करना उत्तम है। यदि परंपरागत हस्तमैथुन से भी अरुचि हो गई हो ('अपना हाथ जगन्नाथ कर-कर के थक गया हूँ' बोल कर लड़की की इच्छा करना) तो सेक्स टॉय खरीदने में शर्म न करें। मैंने इस्तेमाल किये हैं। अच्छे और अपने लायक का चुनाव करें। लुब्रिकेशन महंगा आता है लेकिन आप गूगल करके खुद भी बना सकते हैं। इससे कामोत्तेजना की उग्रता कम होगी और मन में जबरन सम्भोग प्राप्त करने की इच्छा का समापन होगा। फलत: बलात्कार समाप्त।

बाकी महिलाओं से निवेदन है कि अपनी सेक्स की इच्छा को न दबाएं और अपने पसंद के साथी के साथ स्वयं पहल करके गर्भनिरोधक के साथ संभोग का आनन्द उठाएं। इसमें न तो कोई शर्म की बात है और न ही कुछ गलत ही है। हम सब आखिर सम्भोग से ही पैदा हुए हैं और ये उतना ही पवित्र है जितना कि ज़हरबुझा सत्य। पवित्र कार्य करने में धूर्तों द्वारा बनाये गए एकल विवाह का इंतजार न करें। विवाह सिर्फ बच्चा पैदा करके पालने की व्यवस्था है। इसमें सेक्स के आनंद का कोई स्थान नहीं है। सेक्स का आनंद प्रकृति के नियम से ही आ सकता है जो समय के साथ सम्भोग साथी बदलने की मांग करती है। संपूर्ण जगत में प्रकृति का यही नियम है (हंस/सारस की एक प्रजाति को छोड़ कर)।

90% महिलाओं को कभी भी पुरुषों से चरमसुख नहीं मिला है इसलिये वे संभोग में रुचि नहीं ले पाती हैं। पुरूषों की इस लचर हालत का जिम्मेदार स्त्री की तरफ से पहल (seduce) न होना है। इसके चलते वे अधिक उत्तेजित हो जाते हैं और foreplay न करके सीधे योनी की ओर निशाना लगाते हैं जो कि महिला को उत्तेजित नहीं करता। इस तरह जब तक स्तन मर्दन, क्लोटोरिस की रगड़न, योनी में घर्षण आदि से स्त्री उत्तेजित होती है, तब तक पुरुष समापन की ओर बढ़ चुका होता है। इसे आमतौर पर शीघ्रपतन समझ लिया जाता है जबकि 90% मामलों में ये केवल एक तरफा सम्भोग में रुचि लेने के कारण होता है।

सही तरीका यह है कि दोनो साथी एक समान कामोत्तेजित हों, तभी सम्भोग प्रारम्भ किया जाए। सम्भोग की पूर्णता के लिये मिशनरी अवस्था प्रमुख है। इसमें स्तनमर्दन, चुम्बन, क्लोटोरिस की मालिश, गले पर चुम्बन, नाभि को चाटना, स्तन की चुचुक (nipples) जीभ से चाटना व चूसना, धुली हुई योनि को ऊपर के भाग सहित चाटना, कान को होठों से दबाना आदि उत्तेजना वर्धक संवेदनशील स्थल हैं जिनसे आप अपनी साथी को कामोत्तेजित कर सकते हैं। पुरुषों के भी इन्हीं स्थलों पर व धुले हुए लिंग पर महिला अपने होठों के प्रयोग से उसे उत्तेजित कर सकती है यदि वह सम्भोग के लिये तैयार न हो। अस्थाई मुख मैथुन भी पुरुष के लिंग को शिथिलता की अवस्था से निकाल सकता है।

बाकी की 10% में से भी 8% वे हैं जिन्होंने एक बार चर्मोत्कर्ष हस्तमैथुन या किसी अनुभवी से प्राप्त कर लिया हो और फिर उससे दोबारा सेक्स करने का मौका न मिला हो। बाकी की 2% को ही मेरी तरह अनुभवी और संभोग के रहस्यों को समझने वाले पुरुषों ने चरमसुख हर बार और कई-कई बार दिया है और यही सबसे सुखी महिलाओं में भी गिनी गई हैं।

Note: सभी आंकड़े अनुभव और असली सर्वेक्षण से प्राप्त ज्ञान से अनुमानित। आंकड़ें पुलिसलाइन की पारिवारिक अदालत की सलाहकार, डॉक्टरों, मनोवैज्ञानिको और वक़ीलों से हुई बातचीत पर आधारित। इनमें समय के साथ अंतर आ सकता है। ~ Shubhanshu 2019©

गुरुवार, दिसंबर 05, 2019

असत्य से मुक्ति ही शक्ति है ~ Shubhanshu



मैं विवाह विरोधी नहीं हूँ।
मैं शिशु विरोधी नहीं हूँ।
मैं धर्म विरोधी नहीं हूँ।
मैं समाज विरोधी नहीं हूँ।
मैं राजनीति विरोधी नहीं हूँ।
मैं पशुभक्षियों का विरोधी नहीं हूँ।
मैं इन सब से मुक्त हूँ।

मैं मुक्त हूँ, इसका मतलब ये नहीं कि ज़हरबुझा सत्य बताना व अपनाना मेरा काम नहीं। सत्य किसी के भी विरुद्ध हो सकता है जो असत्य हो।

जब मैं विवाहमुक्त होने की बात करता हूँ तो मुझे आपके मध्य क्लेश और अनबन की चिंता होती है क्योंकि आप अपना मन मार के जीते हो।

जब मैं शिशुमुक्त होने की बात करता हूँ तो मुझे आपके बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता होती है। जिन पर आप बाद में बोझ बनकर लटक जाते हो।

जब मैं धर्ममुक्त होने की बात करता हूँ तो मुझे आपके परिवार की चिंता होती है क्योंकि आप को झूठा दिलासा देकर लूटा और मारा जा रहा है।

जब मैं समाजमुक्त होने की बात करता हूँ तो मुझे आपकी आज़ादी के खोने का डर होता है। समाज गैरकानूनी रोकरोक करता है। अपनी मर्जी थोपता है।

जब मैं राजनीतिमुक्त होने की बात करता हूँ तो मुझे आपके जीवन के हर स्तर पर चिंता होती है कि राजनीति की वर्तमान दशा केवल छल और कपट से राज़ करने की, कुटिल नीति है जिसका उद्देश्य आपको मतदान के लिए उकसाने हेतु चारा (लाभ/योजनाएं) डाल कर, और मूर्ख बना कर अपना उल्लू सीधा करना और माल बटोरना (घोटाला, प्रचार, दान) मात्र है।

जब मैं जंतुउत्पादमुक्त/जंतुक्रूरतामुक्त (vegan) होने की बात करता हूँ तो मुझे आपके स्वास्थ्य और समस्त प्राणियों की स्वतंत्रता और अधिकारों की चिंता होती है। उनको भी अपनी प्रकृति अनुसार जीने और अपने भोजन को सिर्फ अपने लिये उपयोग करने और दूसरे को देने से मना करने का हक है।

पशुपालन से विश्व भर में ग्लोबलवार्मिंग का प्रकोप बढ़ा है। जानवरों के झुंड में एक विशेष प्रकार की दुधारू, माँस, अंडे उत्पादक नस्ल का ही उत्पादन और बढ़वार हो रही है। इनके मल, डकार और सांस से 14% ग्रीनहाउस गैसों का उत्पादन हो रहा है। जबकि ये जब जंगल में थे तो इनकी मात्रा इनको खाने वाले जानवर कम करते रहते थे जिससे इनकी मात्रा संतुलन में थी। जब से ये व्यापार बना, तब से इंसान इन जानवरों की खेती करके इनकी मात्रा बढाने लगा।

जानवरों को पहले से उगाया गया अनाज खिलाया जाता है जिसमें पानी और कीटनाशक की बड़ी मात्रा पहले ही खप चुकी होती है। उसके बाद ये बीमार हो कर मर न जाएं इसके लिये इनके भोजन में तमाम एंटीबायोटिक मिलाए जाते हैं। पशुपालन के तरीकों के प्राकृतिक न होने के कारण पशुपालकों को इनके चारे में विटामिन B12 भी खरीदकर मिलाना पड़ता है। अन्यथा मांसाहारी लोग पागल होकर मर जायेंगे।

ये एंटीबायोटिक और B12 भारी मात्रा में मांसाहारी लोगों के शरीर में जाकर उनके शरीर को खोखला करने लगता है और उनका शरीर दूसरी ही बीमारियों का घर बन जाता है। जैसे पथरी, डायबिटीज, ब्रेन हेमरेज, अल्जाइमर, कर्डियक अटैक (दिल का दौरा) आदि। इनमें से दिल का दौरा पशुवसा (बुरा कोलेस्ट्रॉल) के नसों में फंसने से पड़ता है। भारी व्यायाम ही कुछ हद तक इससे बचाव कर सकता है।

इंसान ने अपने स्वार्थ के चलते मांसाहारी पशु मार दिए और बाड़ बना कर इन धन उपजाऊ कम हिंसक पशुओं की रखवाली करने लगा। तब से इनकी बढती जनसँख्या ने ग्रीनहाउस गैसों की अतिरिक्त मात्रा उतपन्न करके साम्यता में खलल पैदा कर दिया। साम्यता का अर्थ है ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन व नाश के बीच में लगने वाला समय। यानि इनकी खपत और उत्पादन में संतुलन बिगड़ गया है। अगर हम इनकी मात्रा घटा दें यानि ये 14% ग्रीनहाउस गैसों का उत्पादन कम कर दें तो साम्यता ठीक हो जाएगी और बाकी स्रोतों से हो रहा इन गैसों का उत्पादन खप जाने के लिये उचित समय मिल जाएगा।

अतः हम पिघलती बर्फ से डूबने से बच जांएगे। उस बर्फ (गेलेशियर) से, जो जमी है तो भूमि सूखी है। जब वो पिघल जाएगी तो जो 30% स्थल जो अभी उपलब्ध है वो भी खत्म होकर पानी में डूब जाएगा। सबसे अंत में पहाड़ी इलाके डूबेंगे लेकिन तब तक वहां निचले स्थल से आये लोगों ने मार काट छीना झपटी मचा कर पहले ही जीवन समाप्त कर दिया होगा।

ये सब अनुमान नहीं है। प्रति वर्ष 1 इंच हम नमकीन पानी में डूबते जा रहे हैं। हर वर्ष पृथ्वी का ताप 1℃ बढ़ रहा है और अफ़सोस कि कुछ लोगों को ग्लोबल वार्मिंग सिर्फ अफवाह लगती है। कोई बात नहीं, कुछ समय बाद पृथ्वी पर जीवन ही एक अफवाह बन जाएगा, जब यहाँ पर आखिरी कोई जंतु बस समुद्री ही रह जाएगा।

साथ ही भारतीय संविधान में पशुक्रूरता निरोधी कानून की धारा 11 और भारतीय दंड सहिंता की धारा 429 (IPC 429) के तहत किसी भी पशु को तंग करना, मारना, कष्ट देना, हत्या करना, चोट मारना आदि संज्ञेय अपराध है और जिसकी सज़ा 5 वर्ष कारावास व जुर्माना दोनो है।

मेरे लिये समस्त जीव-जंतु (मानव में सिर्फ बुद्धि का फर्क) एक समान मस्तिष्क धारी (केवल 0.001% जंतु मस्तिष्कहीन व पौधे नुमा संरचना वाले हैं) अपना परिवार हैं और समस्त पेड़-पौधे, सभी वनस्पतिभोजी प्राणियों (vegans), जिनकी प्रकृति में संख्या लगभग 99% है; के भोजन, आवास, वस्त्र, औषधि, उत्पाद आदि हेतु आवश्यक उत्पादक हैं।  2019/12/05 17:29 Shubhanshu 2019©

बुधवार, दिसंबर 04, 2019

बलात्कारी फांसी क्यों चाहते हैं?



साधारण कत्ल की सज़ा उम्रकैद,

भीभत्स कत्ल की सज़ा फांसी।

बलात्कार की सज़ा वयस्क-अवयस्क के आधार पर भिन्न-भिन्न।

फिर सब बलात्कारी फांसी की सज़ा वाला काम करना क्यों पसन्द कर रहे हैं? बलात्कार करके छोड़ देते और पकड़े जाते तो 7 साल जेल जाते लेकिन वो हत्या करके फांसी या उम्रकैद क्यों चाहते हैं?

ज़ाहिर है कि फांसी या उम्रकैद इतनी बेकार सज़ा है कि लोग उसे ही चुनते हैं। 7 साल की छोटी सज़ा ज्यादा है उनके लिए।

दरअसल कत्ल की सज़ा अगर वाकई में मिल जाना आसान होती तो कत्ल होते ही नहीं। कत्ल करने पर कैसे पकड़े जाओगे? यही सवाल सज़ा से बचाता है। सज़ा से बचने के लिये ही कत्ल किया जाता है। फिर उस सज़ा का क्या फायदा जो कभी दी ही नहीं जा सकती? कत्ल रोज़ हो रहे हैं और पकड़े जाते हैं निर्दोष या मूर्ख। असली अपराधी को पकड़ने के लिये पुलिस को शेरलॉक होम्स होना होगा। जो कि सम्भव नहीं लगता।

फिर भी लोग उनको फाँसी दो चिल्ला रहे। अव्वल तो कोर्ट तय करेगी कि पकड़े गए लोग वाकई में वही हैं जिन्होंने अपराध किया है या पुलिस ने अपनी नाक बचाने के लिये आरोपी बनाये हैं कठुआ कांड की तरह। दूसरी बात, वो तो खुद ही अपराधी साबित होने पर फाँसी (यदि दुर्लभतम हत्या हो) या उम्रकैद पाएंगें ही।

अभी से जो आरोपी बनाए गए (साबित नहीं किये गए) लोगों की फ़ोटो डाल कर उनको मार डालने की अपील असली अपराधियों को बचाने की साजिश हो सकती है। साबित होने से पहले ही आरोपियों को मार डालो तो असली बच निकलेगा।

कुछ लोग कह रहे कि सुबूत हो न हो इन अपराधियों ने कुबूल कर लिया है कि अपराध उन्होंने ही किया है तो इनको कोर्ट क्यों ले जा रहे। अभी मार डालो। तो इन मूर्खों से कहना चाहूंगा कि कानून का सम्मान तो करते नहीं। कानून की समझ है नहीं। जंगल राज़ समझा हुआ है। ये वही लोग हैं जो मोबलीचिंग करते हैं। निर्दोषों को घेर कर मार डालते हैं। अरे मूर्खों, कानून अपने हाथ में लेकर आप सब खुद क्यों नहीं उम्रकैद या फांसी चढ़ जाते? दूसरों को क्यों भड़का रहे?

रही बात कुबूलने की तो भला कौन पागल बिना प्रमाण के, जानते हुए भी कि अगर सज़ा हो गयी तो उम्रकैद या फांसी होगी, अपना जुर्म कुबूल करेगा? कोई नहीं।

फिर ये कौन लोग हो सकते हैं?

1. शक के आधार पर पकड़े गए लोग।
2. अपराधियों से मिली भगत के चलते पुलिस द्वारा सेटअप।
3. सरकार की बदनामी को बचाने हेतु गरीबो को पैसों का लालच देकर तैयार किये गए लोग।
4. असली अपराधी (यदि मूर्ख हुए तो)

यदि वे 1 से 3 के अंदर आते हैं तो ये कोर्ट में पलट जाएंगे और पुलिस के दबाव और मारपीट से बचने के लिये जुर्म कुबूला ऐसा कारण बताएंगे। असली अपराधी हुए तो सुबूत की मांग करेंगे। सुबूत अगर पुख्ता हुए तो ही अदालत उनको उनके किये की सज़ा सुनाएगी। जुर्म कुबूला या नहीं इससे फर्क नहीं पड़ेगा।

जिस तरह से बिना अक्ल का इस्तेमाल किये साथीगण पोस्ट पेल रहे हैं उससे उनकी बुद्धि का पता चलता है। बिना ज्ञान के किसी भी पोस्ट को आगे न बढ़ाया करें। संविधान की बेइज़्ज़ती खुद रुक जाएगी। संविधान का सम्मान करें। केवल यही ईश्वरीय सत्ता के कानून से ऊपर है। न कि थाने के हवलदार और पुलिसकर्मी। Shubhanshu 2019©

सोमवार, नवंबर 25, 2019

शिशुजन्म: न टाले जा सकने वाले दुःख की जड़


बुद्धिज़्म से भी यही संदेश मिलता है कि जीवन दुःखमय ही है।

यदि किसी बच्चे को बिना उसकी अनुमति के इस दुखभरी दुनिया में लाया जाए तो उसके साथ होने वाली हर बुरी घटना के ज़िम्मेदार उसके परिजन होंगे जबकि सज़ा उसे दी जायेगी। क्या यह न्याय होगा?

क्या पैदा होने से पूर्व बच्चे से उसे पैदा करने की अनुमति ली जा सकती है? जवाब है नहीं और इसलिए हम बच्चा पैदा नहीं कर सकते। हर माता पिता कानूनी/तार्किक रूप से अपने बच्चे के हर अपराध और गलतियों के दोषी/ज़िम्मेदार हैं।

अफसोस की बात यह है कि जीवन में अच्छे कार्य करने वाले लोगों की संख्या कम है और उन्होंने अच्छा बनने के दौरान इतने अधिक दुःख सहे हैं कि उनको कोई और न सहे इसलिये वो लोगों को अपनी खुशियों को भी दे देते हैं।

यह वे खुशी से नहीं करते बल्कि इसलिये करते हैं कि उनको अफसोस है कि कोई भी पैदा क्यों हो गया और हो गया तो वो मेरे जैसा दुःख न झेले। लेकिन वे भी उस दूसरे इंसान की जिंदगी में सिवाय पैबंद के कुछ नहीं लगा पाते।

हम लाख मदद ले लें लेकिन वह मदद एक दुःख से सदा जुड़ी रहेगी। हम लोग अक्सर सुख के पलों को भूल जाते हैं और दुःख के पलों को याद रखते हैं। हम कितने ही दोस्तों, रिश्तेदारों से घिरकर खुश दिखने लगे लेकिन जब हम उनसे बिछड़ेंगे (छोड़ कर जाना, मृत्यु) तब हम सदमें से गुजरेंगे जो कि इतना भयानक होता है कि नर्वस ब्रेकडाउन हो सकता है।

इससे पैदा हुए डिप्रेशन (तनाव) से मृत्यु भी हो जाती है। बिछड़ना तय है क्योंकि न तो हम एक इंसान के साथ हमेशा अच्छा व्यवहार करने के लिए बने हैं और न ही हम में से कोई अमर है।

अतः हर हाल में पैदा होकर हम आनंद को ढूंढने और दुःखों को झेलने में ही जीवन बिताते हैं। अपनी कामयाबी के ज़िम्मेदार बच्चे खुद होते हैं लेकिन नाकामयाबी के ज़िम्मेदार सदा उसके परिजन ही होंगे। क्या आप इस तरह की ज़िम्मेदारी लेकर खुश रह सकेंगे जो आपके नियंत्रण में कभी नहीं हो सकती? ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शनिवार, नवंबर 23, 2019

अतिजनसँख्या का असर दिखने लगा है ~ Shubhanshu


यूरोप की आबादी 200 साल मे कईं गुणा बढ़ी है लेकिन जनसंख्या और अतिजनसँख्या में बहुत अंतर होता है। वहाँ जितनी ज़रूरत थी उतनी तो चाहिये ही। लेकिन उधर भी अतिजनसँख्या की समस्या वैसी ही विकराल है जैसी अन्य विकासशील देशों में। कम जनसंख्या और बुद्धिमानी (आविष्कार, उपाय) से प्राप्त अधिक GDP, वैज्ञानिक उपायों से अधिक संसाधन उपलब्ध करवा कर और गगनचुंबी इमारतों के कारण किसी तरह ये राज़ दबाया जाता रहा है लेकिन कब तक?

यूरोपीय फिल्मों जैसे इन्फ्रेंनो, फ्रोजन, एवेंजर्स के थानोस ने इस भीषण समस्या को दर्शाया है।

इसको आप इस तरह से समझ सकते हैं; जैसे एक 2 पहिया वाहन पर 1 मस्ती से, 2 लोग आराम से और 3 लोग तकलीफ से बैठ सकते हैं। दुर्घटना के अवसर 80% हो जाते हैं, लेकिन 4 लोगों के बैठने से दुर्घटना 100% तय हो जाती है। उसी तरह से एक देश भी, एक कमरे की तरह दीवारों (सीमा रेखा) से घिरा होता है।

अब ये कमरा कितना भी बड़ा समझिये लेकिन इसमें एक सीमा में ही लोग आराम से रह सकते हैं। उसके बाद सब आपस में लड़ मरेंगे। कितने लोग एक कमरे में रह सकते हैं?

विशाल देश में यह तय करना मुश्किल लग सकता है लेकिन जिस तरह से भूखा शेर घातक और पेट भरा हुआ जानवर शांत होता है; उसी तरह लोगों की भूख और तनाव देख कर, आप जगह और अवसरों की कमी का पता लगा सकते हैं।

जिस तरह कमरे के लोगों में संसाधन कम होते ही एक-दूसरे से नफरत पैदा हुई और लूट-खसोट मची, उसी तरह, यही आप अपने घर और घर से बाहर का माहौल देख कर भी पकड़ सकते हैं कि क्यों आखिर आज हर इंसान एक-दूसरे को लूटने-मारने में लगा हुआ है?

अतिजनसँख्या वास्तव में एक वास्तविक समस्या है। उसका असर लोगों की नफ़रत में नज़र आने लगा है। ~ Shubhanshu 2019©

शुक्रवार, नवंबर 22, 2019

प्रसिद्ध लोगों के सिद्धांत भी गलत हो सकते हैं ~ Shubhanshu



नफ़रत, पूर्वाग्रह से अगर आप अपने सिद्धांतों को बनाते हैं तो सदा असफल रहेंगे। आप किसी के अच्छे या बुरे होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं तो आप खुद को ईश्वर समझते हैं क्योंकि केवल ईश्वर की अवधारणा ही सबको एक ही तराजू में तोलती है और उनको एक सा बुरा बताती है।

सनातन धर्म: मृत्युलोक में सब पापी हैं अतः प्रलय में सबकी मृत्यु निश्चित है।
इस्लाम: सबको एक दिन कयामत में मार दिया जाएगा।
ईसाई: ईसा मसीह मानवों के पापों की सज़ा खुद झेल गए। लेकिन फिर भी एकदिन सबको मरना ही होगा।

इसी तरह यदि हम भी किसी समुदाय, वर्ग के प्रति किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के कहने पर धारणा बना लें कि अमुक वर्ग/समुदाय/जाती/धर्म का व्यक्ति कभी नहीं बदल सकता तो आपने मूर्खता की उच्च श्रेणी प्राप्त कर ली है क्योकि याद रखिये कि नास्तिक भी कभी आस्तिक, अमीर भी कभी गरीब ही थे।

साथ ही नास्तिकता और अमीरी कभी भी किसी जाति, धर्म, समुदाय या वर्ग की बपौती नहीं रही हैं। कोई भी इन अवस्थाओं को पा सकता है।

अतः पूर्वाग्रह से ग्रस्त सिद्धांतों को लात मारिये और वास्तविक व्यवहारिक सिद्धांतों पर कायम रहिये। याद रखिये, इंसान कोई मशीन नहीं है। वो कभी भी अपना ह्रदय परिवर्तन कर सकता है। अभी इतना ही। नमस्ते। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

मंगलवार, नवंबर 19, 2019

धर्ममुक्त भारत की आवश्यकता क्यों? ~ Shubhanshu



महत्वपूर्ण प्रश्न: आपके धर्ममुक्त भारत अभियान और बाकी लोगों के संगठन/धर्मो में क्या फ़र्क है?

शुभ: हमारा अभियान लोगो को एकत्र कर रहा है न कि बाकी धर्मों और संगठनों की तरह उनको मूर्ख समझ कर उनको कोई किताब या धर्म ग्रँथ थमा रहा है, कि अंधों की तरह उसका पालन करो। इंसान बुद्धिमान है। उसे किसी के बताए रास्ते पर नहीं चलना। उसे सिर्फ इशारा किया जा सकता है जो पहले रास्ता खोज चुका, उसके द्वारा।

हमने रास्ता पहले खोज लिया तो उस पर हमारा हक नहीं हो गया। राह/सोच सबकी अपनी है। हम तो आज़ादी की मांग कर रहे, जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। आज़ादी मानसिक गुलामी से। इंसान की मानसिक शक्ति ही उसकी जीवन की गति निर्धारित करती हैं। उसे कुछ धूर्त लोगों द्वारा प्राचीन काल में बलपूर्वक ईश्वर, पाखण्ड, ठगी, धोखे, मूर्खतापूर्ण बातों से उलझा कर व्यस्त कर दिया गया है और वो मानसिक शक्ति अपना वास्तविक कार्य नहीं कर पा रही।

● ये धर्म की अवधारणा इतनी क्यों फैली?

● क्यों ये इतनी सफ़ल रही?

● क्यों लोग इसके गुलाम बने?

इसका मूल कारण था दरिद्रता। दरिद्रता भी एक मानसिक अवस्था है जो जब असर दिखाती है तो व्यक्ति का पूरा सामाजिक जीवन ही भिन्न दिखने लगता है। दरिद्रता को दूर करने के लिये पहले तो घमंड त्यागना होगा। बड़े कार्य करने वाले लोग कभी भी छोटे कार्य को करने से परहेज नहीं करते थे। इसीलिये वे बड़े हुए। कोई भी बीज, अंडा बहुत छोटा होता है शुरू में लेकिन जब वह अपने जीवन के चरम पर होता है तो कभी बरगद तो कभी जिराफ़ जैसा ऊँचा हो जाता है।

पढ़-लिख कर इंसान ज्यादा बेरोजगार होते हैं जबकि अनपढ़ कभी बेरोजगारी नहीं झेलते। उनको घमण्ड नहीं होता, अपनी डिग्री या शिक्षा का। उनको भोजन कमाने की फिक्र होती है जोकि सबकी आधारभूत आवश्यकता है। इससे ऊपर जाने पर अन्य आवश्यकताएँ दिखने लगती हैं। इस पहली आवश्यकता के लिए हमको हर तरह के कार्य करने में संकोच छोड़ना होगा और उस कार्य को बेहतर और आधुनिक कार्य बना कर उसकी गुणवत्ता में सुधार करना होगा। तभी वह कार्य बड़ा बन जायेगा।

छोटे काम को आधुनिक और दूर तक पहुँचाने को ही बड़ा कार्य कहते हैं। जैसे जहाँ सुविधाएं कम हैं वहाँ रेस्टोरेंट ढाबा बन जाता है। जहाँ भोजन सस्ता होने के कारण वेतन कम मिलता है। जबकि सुविधाओं के बढ़ने पर वही ढाबा रेस्टोरेंट बन जाता है और भोजन महंगा करना आसान हो जाता है। वेतन अपने आप बढ़ेगा ही। पहले आप कारीगर कहलाते हो फिर बावर्ची या शेफ कहलाते हो। जिसके लिए लोग बड़े-बड़े कोर्स करके जॉब ढूंढने निकलते हैं।

सरकारों से उम्मीद रखने का क्या लाभ हुआ जनता को? कौन सा सफल व्यक्ति सरकारी मदद से सफल हुआ है आजतक? खुद ही रास्ता निकाला जा सकता है। सफल व्यक्तियों की जीवन गाथा पढ़िये और देखिये कि जो जितना ज्यादा गरीब, कमज़ोर, लाचार था वही महान अमीर हो सके। जिन पर पहले से कुछ था उनका नाम बहुत कम हुआ है। बदनामी ज्यादा हुई। हमारा अभियान छोटे समझे जाने वाले कार्यों को करने के लिए पढ़ीलिखी जनता को प्रोत्साहित करेगा ताकि कोई भुखमरी से न मरे।

दूसरे नम्बर पर संभोग आवश्यक है क्योंकि इसके बिना इंसान मानसिक रोगी हो जाता है और अपराध कर बैठता है।

अतः मानव की यौन प्रकृति को छेड़ना खतरे से खाली नहीं है। चरमसुख वाली घटना से परहेज क्यों? इसमें जो बाधा है, वह प्रजनन है जो कि आपका अधिकार है कि करें या रोक लें। अतिजनसंख्या और इस कष्टकारी दुनिया में बिना उस भावी शिशु से विचारविमर्श किये उसे इस दुनिया में लाना वैसे भी कानूनी नहीं है। हम सबका जन्म गैरकानूनी ढंग से होता है और इसके लिए हम अपने परिजनों पर मुकदमा भी कर सकते हैं। राफ़ायल नाम के व्यक्ति ने ऐसा कर भी दिया है।

बलात्कार, वैश्यालय, छेड़खानी, फोन सेक्स, सेक्स चैट, हस्तमैथुन, अवैध सम्बंध, पोर्नोग्राफी, अश्लील साहित्य, अश्लील गेम्स, विवाह के बिना संभोग आदि साबित करते हैं कि सम्भोग केवल आनंद के लिये बना है और ये एक ऐसी आवश्यकता है जिसके कारण व्यवस्था विवाह की व्यवस्था तक की गई।

दरअसल प्रकृति सर्वोत्तम का चुनाव करती है तभी विकास सम्भव होता है। हमारा मन सुंदर, गुणवान, कामोत्तेजक (सेक्सी), तन और मन के मालिक (नर या मादा) की ओर आकर्षित होता है ताकि अगली पीढ़ी वैसी ही निकले।

जब शक्तिशाली लोगों का राज़ हुआ तो सुजननिकी के सिद्धांत के चलते विवाह के 2 प्रकार हो गए।

1. ऊंचे कुल के लिए उत्कृष्ट रक्त का चुनाव व भावी पीढ़ी के निर्माण के लिए पालनपोषण की उचित व्यवस्था।

2. आम जनता के लिये 'व्यवस्था विवाह' ताकि जो नकारा और घटिया गुणवत्ता के लोग स्वयं सम्भोग नहीं कर पाते थे, उनके लिए विवाह।

कालांतर में ऊँचे कुलों को तानाशाही और मानवाधिकार के उल्लंघन के चलते राजशाही तख्तों-ताज गंवाना पड़ा और अब केवल दूसरी श्रेणी का विवाह शेष रह गया है। इसमें भी पहली श्रेणी के विवाह का प्रयास किया ही जाता है जिसके चलते उच्च जाति, वर्ण, हैसियत, स्वभाव आदि का आंकलन करके सुजननिकी द्वारा पीढ़ी विकास का प्रयास किया जाता है। इसी कारण निम्न श्रेणी के लोगों को उच्च श्रेणी के लोगों के साथ विवाह करने से मना किया जाता रहा। आगे की सम्पूर्ण पीढ़ी ही खराब न निकले इसलिये माता-पिता अपने बच्चों को निम्न जाति में विवाह करने पर कत्ल तक कर देते हैं।

ये भी सही है लेकिन क्या अमानवीय नहीं? प्रकृति के साथ छेड़खानी नहीं? विवाह को केवल सुजननिकी के आधार पर ही उचित ठहराया का सकता है जोकि मानवीय नहीं है। मतलब दम्पति के सुख-प्रेम की कोई परवाह इसमें नहीं की जाती। परिवार को श्रेष्ठ रक्त की समझ है या नहीं? इसका भी कोई प्रमाण नहीं है।

बेहतर होगा कि सुजननिकी का कार्य केवल इसके लिए बनाई गई व्यवस्था (आयोग/विभाग) ही करे। जिसमें उचित बायोलॉजिकल भ्रूण तैयार करके उसका पालन पोषण किसी प्रशिक्षित से करवाया जाए। आम लोगों को इसमें जबरन न धकेला जाए जो कि एक दूसरे से प्रेम करने में असमर्थ हैं।

प्रेम और सेक्स दोनो भिन्न अवस्थाएं हैं। सेक्स आप किसी से भी कर सकते हैं जो आपको कामुक लगे। जबकि प्रेम करने के लिये दोस्ती अवश्य होनी चाहिए। कुछ लोग विवाह की अवधारणा को उचित मान कर प्रेमी-प्रेमिका से ही सम्भोग करने की प्रतिबद्धता (commitment) रखते हैं और एक दूसरे को खास महसूस करवाते हैं। लेकिन वे सब झूठे होते हैं क्योंकि या तो इनकी दूसरे से सेक्स करने को तड़पते हुए खुद को जबरन रोकने से हालत खराब रहती है या ये सब छुप कर एक दूसरे को धोखा देते हैं।

जब सामने सेक्सी विपरीत लिंग का प्राणी होगा तो आप का शरीर सम्भोग के लिए तैयारी करेगा ही। उसे रोकने के लिए आप को अगले को अनदेखा करना ही होगा। इसी के चलते बुरका, दुपट्टा व कपड़े का चलन हुआ। लेकिन ये स्थिति और खराब करेगा, इसका पता बहुत देर से चला।

दरअसल इससे लाभ की जगह बड़ा नुकसान हुआ। सेक्स की इच्छा कम होने की जगह और भड़क गई क्योंकि अब लोग कपड़ो के भीतर धोखाधड़ी करके खुद को और भी कामुक दिखाने लगे। खुली मुट्ठी खाक की, बन्द मुट्ठी लाख की। अब हर विपरीत लिंग का प्राणी सेक्सी होने की संभावना लिये घूमने लगा। इससे भारी कुंठा पैदा हुई।

विवाह से पूर्व सेक्स करने पर जान से जाने की धमकी से महिला वर्ग सेक्स से अंजान बन के दूर रहना चाहता है तो उधर पढ़ाई और नौकरी की आवश्यकता के चलते हुई देरी से लड़कों का सम्भोग काल चरम पर होता है। जहां पहले (अब भी) बच्चों का विवाह कर दिया जाता था, वहाँ अब 35 साल तक के लड़के का विवाह उसके सेटल न हो पाने के कारण नहीं हो पा रहा है।

परिणाम भयानक होने तय हैं। जबरन सेक्स, शोषण, बलात्कार इसी व्यवस्था का नतीजा हैं। क्योंकि वैसे भी हर कोई वैश्यालय का उपयोग नहीं कर सकता। वैश्यालय अवैध होने के कारण ग्राहक को लूट लेते हैं और शर्म के कारण कोई पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं करता। दूसरे भयानक नतीजे पैदा हुए बलात्कारी को मौत की सज़ा, 7-10 साल के कारावास से।

अपराधी यही सोचता है कि वो तो अपनी नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति कर रहा है, न कि कोई सोना-चांदी चुरा रहा है। फिर इसकी सज़ा क्यों? अतः वह सज़ा से बचने हेतु बलात्कार पीड़ित को ही जान से मार के खत्म कर देते हैं। बलात्कार रोकना सज़ा से सम्भव नहीं। ये कोई चोरी नहीं जो कोई सुधर जाएगा। ये शरीर की भूख जैसी आवश्यकता है। इसकी पूर्ति कहीं न कहीं से करनी पड़ेगी तभी काम बनेगा। सोचिये अगर भोजन करने पर सज़ा होती तो रोज़ अपराध होता। अतः भोजन की तरह सम्भोग की मुफ़्त व्यवस्था आवश्यक है।

अगर हम सम्भोग को मशीन द्वारा उपलब्ध नहीं करवा सकते तो स्वेच्छाचारी लीगल वैश्यालय को मान्यता तो देनी ही चाहिए जो कम से कम मूल्य पर सेवा दे सकें। अन्यथा महंगा होने की अवस्था में गरीब वर्ग बलात्कारी ही रहेगा।

विपरीत लिंगों में प्रेम इस मुफ़्त सेक्स की आवश्यकता को समाप्त कर सकता है। प्रेम जीवन में मानसिक सुख के लिये आवश्यक है। प्रेम जीवन जीने के लिये आवश्यकता नहीं है जबकि सम्भोग है। इसीलिये इतने विवाह सफल हैं। दरअसल भोजन इतनी बड़ी आवश्यकता नज़र नहीं आती जितनी कि संभोग है। देखिये, भोजन के लिये कोई कत्ल नहीं कर देता। सामान्य मूल्य से अधिक मूल्य नहीं देता लेकिन संभोग के लिये इंसान न सिर्फ करोड़ो रूपये लुटा सकता है बल्कि कत्ल तक कर सकता है। 

मनपसंद भोजन की थाली सामने हो तो इतनी प्रबल इच्छा नहीं होती कि खुद पर संयम न रखा जा सके लेकिन संभोग के लिये उचित साथी सामने हो तो अच्छे  से अच्छे योगी-मुनि-साधु-साध्वी का भी पानी निकल जाता है।

अतः संभोग कानूनन सभी नागरिकों का कानूनी अधिकार है। इसके लिए किसी तीसरे से आज्ञा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। संविधान आपको इसी वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर बिना विवाह के संभोग का अधिकार देता है। परंतु समस्या है समाज। जिस तरह संविधान धर्ममुक्त है लेकिन समाज अंधविश्वास से भरा हुआ, वैसे ही सेक्स को लेकर भी समाज में अंधविश्वास भरा है।

उनको विवाह के बिना सेक्स से बच्चा होने का डर रहता है जबकि वह तो सहउत्पाद (by product) है सम्भोग का। वह भी माह में केवल अण्डोत्सर्ग के दिन ही सम्भोग करने पर सक्रिय शुक्राणुओं से युक्त वीर्य के अंडे से निषेचन पर ही हो सकता है।

यानि प्रकृति भी चाहती है कि माह के 29 दिन केवल आनंद लिया जाए। केवल एक दिन ही शिशु होने की प्रभावी स्थिति बनती है।

नोट: चूंकि शुक्राणु योनि में 72 घण्टे तक जीवित रह सकते हैं तो अण्डोत्सर्ग के 3 दिन पहले और 3 दिन बाद तक के वीर्य से भी बच्चा होने के आसार होते हैं लेकिन संभावना अण्डोत्सर्ग वाले दिन से अपेक्षाकृत रूप से कम होती जाती है।

फिर संभोग से प्रजनन न हो उसके बहुत से सस्ते उपाय हैं जैसे मैथुन भंग (मुफ़्त), अण्डोत्सर्ग से दूर वाले दिन संभोग (मुफ़्त), कंडोम (99% safe) (मुफ़्त/1₹/5₹), गर्भनिरोधक गोली, 72 hr pill, डायफ्रॉम, इंजेक्शन, IUD आदि तमाम साधन उपलब्ध हैं। बच्चों को सुरक्षित सेक्स कब और कैसे करना है इसका ज्ञान सेक्स एडुकेशन से होगा। STD (सेक्स से फैलने वाली बीमारियां) से बचने के लिये अंजान लोगों से सुरक्षित सेक्स (कंडोम सहित) करें व खून की जांच कराते रहें। जांच में स्वस्थ आने पर असुरक्षित लेकिन गर्भनिरोधक के साथ सम्भोग कर सकते हैं।

स्थायी समाधान नसबंदी है। पुरुष की आसान है। महिला की मुश्किल।

फिर हम कौन होते हैं पुरानी सोच थोपने वाले? विदेश में लोग सेक्स की क्रांति के कारण ज्यादा तनाव रहित होते हैं और बेहतरीन सोचते हैं। (बिल्कुल जैसे आदिमानव ने संभोग की पर्याप्त आपूर्ति के चलते पहिया, आग और पके भोजन की खोज कर डाली थी) वहां सेक्स को लेकर बहुत कम अंधविश्वास है। पोर्नोग्राफी सबसे ज्यादा वहीं बनती है। सेक्स के खिलौने हर चौराहे पर शोरूम में बिकते देखे जा सकते हैं।

लड़कियां इतनी आज़ाद हैं कि वे जो लड़का पसन्द आता है उसे अपनी जगह पर पहल करके, इजाजत लेकर, ले जा कर उससे संभोग कर लेती हैं और पैसा भी देती हैं (यदि आपको चाहिए तो)। वैसा ही आदमी भी करते हैं। सब 50-50%। जबकि इस देश में जैसे इस्लामिक-सनातनी कानून लागू है, ऐसा माहौल बना रखा है। हमने इस तरह के पाखण्ड को नष्ट करके आपके स्वविवेक पर संभोग को रखा है ताकि हम भी विश्व के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल सकें। 

अंततः हमारा अभियान विवाहमुक्त प्रेम, सुरक्षित संभोग, शिशुमुक्त व क्रूरतामुक्त जीवन शैली को भी सहयोग और बढ़ावा देगा। तो बताइये हमारा धर्ममुक्त अभियान किसी भी अभियान से ज्यादा मजबूत और आकर्षक नहीं है क्या?  2019/11/19 18:48 ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

गुरुवार, नवंबर 14, 2019

जनता के मध्य फूहड़ता और बिंदासियत में संतुलन व मर्यादा आवश्यक ~ Shubhanshu



साथियों द्वारा स्त्री सम्बन्धी अपशब्द प्रयोग ज्यादा ही हो रहे। गालियाँ गुस्से वाली और महिला वाली हो रही हैं। भले ही तोड़मरोड़ के हैं लेकिन आपकी छवि खराब हो रही है उनसे।

अपनी शक्ति सकारात्मक रूप से प्रयोग कीजिये। नकारात्मक और शिकायती नहीं। हमें दूसरों से कुछ बेहतर बनने का सोचना है। इसलिये किसी से भी प्रचलित से अलग और बेहतर बनना चाहिए। आप सब मेरे पोस्ट से तुलना करके देख सकते हैं कि बिंदासियत और फूहड़ता (vulgarity) की limit क्या होनी चाहिए।

खासकर लोगों में कितना बोलना है इसका ध्यान रखना है। लोगों को संस्कार संस्कृति की शिक्षा मिली है। उनको थोड़ी-थोड़ी dose देकर बदलावों को लाया जा सकता है लेकिन अगर हम सीधे फूहड़ स्त्री की छवि का वस्तुकरण करने वाले बिंदास बने तो उसका गलत मतलब निकलेगा और सब सीखने की जगह भाग जाएंगे।

हमारे frustration (हतोत्साहित होना) को किसी का अपमान करना शांति देता है। लेकिन कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना न हो इसी में बेहतरी है। जैसे हम जब किसी को बहनचो* बोलते हैं तो दरअसल हमने मन ही मन उसकी बहन का बलात्कार, उसके द्वारा करवा दिया और नहीं करवाया तो इसे कहने का फायदा क्या?

अगर उसकी बहन जिसकी कोई गलती नहीं है, उसका आपसे परिचय तक नहीं और वो वहीं खड़ी हो या उसे कभी पता चले तो वो पूछ सकती है, "आप कह रहे हो कि मेरे भाई ने मेरा बलात्कार किया और मैं चुप हूँ? क्योकि मुझे ये बलात्कार अच्छा लगा? क्या ये मेरी इच्छा-अनिच्छा का अपमान नहीं है?

क्या मेरे चरित्र को अपमानित करना नहीं है जबकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं? सोचो मेरा bf हो, मैं उससे मोनोगेम्स कमिटमेंट में हूँ और वो इस गाली को सत्य समझे, तो वो मुझे छोड़ देगा, पीटेगा या हो सकता है मार ही डाले।"

इतनी गहराई से सोचना पड़ता है तब हम महान बन सकते हैं। मैं जितना बिंदास हूँ और यदाकदा मैं भी इस तरह की गालियाँ मजाक में देता हूँ और कभी-कभी गुस्से में भी लेकिन कभी लिख कर सबके सामने दुर्भावना से नहीं करता क्योकि वो इतिहास में जुड़ जाता है।

बोले हुए को माफी मांग कर बदल सकते हैं और कह सकते हैं कि गलती से बोल गए लेकिन लिखने में जानबूझकर ही लिखा जाता है। और ये निजी हो तो ही बेहतर है जैसे निजी मेसेज और खास मित्रों का चैट समूह आदि।

क्योकि हम एक दूसरे को समझते हैं; समझा सकते हैं लेकिन तमाम लोग सीधे ब्लॉक करते और हमेशा के लिए बुरी राय बना लेते हैं। बड़ी बात नहीं कि लोग क्या कहेंगे लेकिन हम उनकी मदद से उनको ही वंचित कर रहे हैं, उनसे दूर जाकर।

हम सब डॉक्टर हैं और हमको ये हक मिला है कि लोगों का दिमाग ठीक करें लेकिन अगर हम ही अपने मरीज को डरा कर भगा देंगे तो हम डॉक्टर ही नहीं रहेंगे। मरीज के बिना डॉक्टर कुछ भी नहीं। अतः दूरदृष्टि आवश्यक है। ~ Vn. Shubhanshu SC 2019©

शनिवार, नवंबर 09, 2019

UP वाले हैं, गालियाँ तो खून में हैं ~ Shubhanshu


ऐसा नहीं है कि मैं इसलिये गाली नहीं देता कि मुझे आती नहीं। बल्कि इसलिये क्योंकि मुझे बहुत ज्यादा गालियां आती हैं लेकिन उनकी अपनी जगह है। दोस्तों में गालियाँ तनाव कम करने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं और जिसका टाइम आ गया होता है उस पर गुस्से में गाली बकने से कम से कम गुस्सा तो कम होता ही है।

जनता के सामने गालियां देने से मानहानि होती है। इसलिये ये एक अपराध है। अकेले में गाली दी जा सकती है। फिर अगला तय करेगा कि क्या फैसला करना है। रहना है या जाना है या फोड़ना है।

बात बात पर नफरत भरी गाली देने वाला कुछ ज्यादा ही सुरक्षित समझता है खुद को। जबकि उसकी जान किसी भी स्वाभिमानी के हाथों में फँसी होती है। गालियाँ वास्तव में घृणित और गुप्त रखे जाने लायक आरोप होते हैं जो कि झूठे होते हैं और उनसे लोगों के मन में शक पैदा किया जाता है।

जैसे गाली सुन के चुप रहने वाले पर 2 शक किये जाते हैं।

1. वाकई में यह वैसा ही है जैसी इसे गाली दी गई है।
2. ये शांत है क्योंकि ये निर्दोष है और आरोप से इसे कोई फर्क नहीं पड़ता।

अब ये दोनों ही अनुमान जनता के ऊपर छोड़े जाते हैं कि वो किस बुद्धि की है। मैं गालियों का प्रयोग सिर्फ अपने साथियों पर करता हूँ जो इनको फ्रेंडली लेते हैं। गुस्से में भी किसी-किसी पर करता हूँ जो दोबारा दिखाई नहीं देता फिर।

जबकि इसके विपरीत गालियों के बदले गाली देने वाला मूर्ख होता है। वह दरअसल उकसावे में आ जाता है और प्रतिक्रिया देकर खुद के बारे में शक पैदा करता है कि यदि निर्दोष है तो आरोप से बुरा क्यों लगा? बुरी तो सामने वाले की सोच है जो आपको गुस्सा दिला कर अपने निचले स्तर पर लाना चाहता है और फिर आपको हराना आसान होगा। दरअसल वो हार चुका है, पहले ही।

ये सत्य है कि मैं सीधा हूँ क्योंकि मैं सबका भला चाहता हूँ। लेकिन मैं चालाक भी हूँ क्योकि जानता हूँ कि सबका भला करना सम्भव ही नहीं। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

शुक्रवार, नवंबर 08, 2019

लड़का, लड़की और पैसा का क्या सम्बन्ध है? ~ Shubhanshu

आइये जानते हैं कि आखिर लड़की और पैसे में क्या सम्बन्ध होता है कि लड़कियां पैसे वाले बुढ्ढों से भी इश्क करती दिख जाती हैं।

जवाब है:

विवाह की अवधारणा धन से जुड़ी है और बेरोजगार लड़कियों के लिये कमाऊ लड़का चाहिए न! फिर जब डेट करते पकड़े गए तो शादी ही हो जाये यही तमन्ना होती है।

धनी होगा लड़का तो माता पिता हाँ कर देंगे। और इसीलिए लड़कियों को जाति, धर्म, व व्यवसाय से भी उतना ही मतलब होता है जितना माता-पिता को।

हमें ऐसी लड़कियों को पैदा करना है जो लड़को की तरह आज़ाद और दबंग हों। खुद लीगली धन कमाने का जुनून होना चाहिए और मार्शल आर्ट में ब्लैक बेल्ट का भी। तभी ये दुनिया समानता के शिखर पर पहुँचेगी। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©

रविवार, अक्टूबर 27, 2019

पारखी लोग ढूंढो ~ Shubhanshu


अगर आपको कोई इज़्ज़त नहीं दे रहा जबकि आप महान हैं तो आप अपनी संगत बदलो। उस जगह जाओ, जहां पारखी लोग रहते हों।

महान लोगों में यही टैलेंट होता है कि वे सदा जगह बदलते रहते हैं या अकेले रहते हैं। पारखी लोग गाहे-बगाहे पहले से कहीं इकट्ठा हैं। आपको उनको ढूढने के लिये खुद के टैलेंट को दर्शाना होगा mass स्तर पर। जो आपको आपके टैलेंट से पसंद करे उनके साथ जाओ। वो अपने जैसे लोगों से मिलवाएगा।

दिल्ली में एक शो में मुझे बुलाया गया था। मेरा पहला standup कॉमेडी शो था। मैं अच्छा नहीं कर सका। दिल्ली की जनता बहुत कठोर है। उनको बहुत ही ज्यादा मंझा हुआ खिलाड़ी पसंद है। मैं अंतर्मुखी होने के कारण भीड़ से डरता हूँ। नर्वस हो गया था। back stage पर जब मैं उदास खड़ा था तो एक लड़के ने मुझे ऑटोग्राफ के लिये पूछा।

मैंने कहा, मजाक कर रहे हो क्या? मेरा तो पूरा शो बेकार गया।

वो बोला, "दिल्ली की सबसे घटिया ऑडियंस आज मैंने देखी। आपके जैसा टैलेंट मैंने कभी नहीं देखा। मैं एक रंगमंच का owner हूँ और आपको आमंत्रित करता हूँ कि आप मेरे साथ काम करें।

इतना अच्छा इंसान कहीं नर्वस न हो जाये इसलिये मैं आपको cheer करने के लिए खुद को रोक नहीं पाया और आपको ढूंढता हुआ यहाँ चला आया। बेस्ट ऑफ लक bro।"

इसी तरह कोई न कोई पारखी आपको सैकङो में से एक मिलता रहेगा। उनसे जुड़िये और देखिये कि जौहरी हीरे की कीमत कितनी बताता है। ~ Vegan Shubhanshu 2019©

सोमवार, अक्टूबर 21, 2019

गर्व से बोलो, धर्ममुक्त जयते ~ Shubhanshu



जब हम कहते हैं, "जय मूलनिवासी" तो अर्थ हुआ, "मूलनिवासी जीते"। "जय भारत" का अर्थ हुआ "भारत जीते"। इसमें व्यक्तिपूजा नहीं परन्तु समूह पूजा है।

इस तरह की पूजा में समस्या पहले भी आ चुकी है। जब भारत माता की जय बोली जा रही थी तो सैद्धांतिक रूप से वो  एक धार्मिक देवी की ही जय थी।

मान्यता है कि विवेकानंद वेदांत के अतिरिक्त पाखण्ड के विरोधी थे लेकिन उन्होंने भारत माता को सशरीर देखा था। जो कि उनको साफ पाखण्डी बताता है। इसी को आधार बना कर ये नारा बन गया था।

जब जवाहरलाल नेहरू आये तो वे इस नौंटकी को समझ न सके और इसमें उन्होंने समझाया कि भारत माता दरअसल भारत के लोग हैं। उनकी जय हो।

इस तरह एक जबरन डाला हुआ मतलब तो बना दिया लेकिन भारत माता को भारत के लोग कहना तर्कसंगत तो कहीं से नहीं हुआ।

फिर हद तो तब हुई जब हर जगह मंदिरों में काल्पनिक भारत माता जो कि विवेकानंद की रची कल्पना थी, मूर्ति के रूप में नज़र आने लगी और भारत माता, अन्य देवियों की तरह पूजी जाने लगी।

इससे क्या लाभ हुआ? अब मान लो कि जय मूलनिवासी बोलने पर कोई 1 व्यक्ति की पूजा नहीं हुई लेकिन क्या एक समुदाय के प्रति श्रेष्ठता की भावना पक्षपाती नहीं हुई? कल को मूलनिवासी देवता बना कर मंदिर बन जायेगा और फिर उस पर भी चढ़ावा चढ़ेगा।

जय भारत वाला नारा भी कल भारत देव नाम से मूर्ति बन कर मंदिर में सजेगा तब? सोच लो, इस तरह भारत माता का लँगड हो चुका है। सम्भव है दोबारा हो। लेकिन अगर हम जय धर्ममुक्त बोलें तो?

धर्ममुक्त न तो कोई व्यक्ति है और न ही कोई बेजान वस्तु और न ही कोई समूह। ये एक विचार धारा है, साम्यवाद की तरह लेकिन इसमें कोई जटिल परिभाषा नहीं। सभी प्रकार के सम्प्रदाय/रिलिजन/मजहब से मुक्त हो जाना, वापस सामान्य इंसान बन जाना, अपनी बुद्धि से चलना ही धर्ममुक्त होना है। एक दम शानदार और खुद को आजमाने का मौका। शरीर तो 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हो गया था लेकिन दिमाग केवल धर्ममुक्त होना ही आज़ाद करा सकता है।

फिर भी क्या पता? कल को कोई मूर्ख धर्ममुक्त देवता भी बना डाले और हमारे और कश्मीर जी के मास्टर प्लान की बैंड बजा डाले तो क्या होगा?

इसलिये अगर जोश बढाना ही है तो सोचा कि दूसरों से कुछ और बड़ा किया जाए। हमने और बढ़िया सोचा और हमे एक शब्द दिखा जिसकी सदियों से कोई मूर्ति नहीं बनी थी, और वो था "सत्यमेव जयते" (भारत सरकार का आधिकारिक शब्द)। अर्थात सत्य की सदा विजय होती है या कहें सत्य सदा जीतता है। देखिये, इस तरह के वाक्य में कोई संज्ञा ही नहीं है। केवल एक भाव है जो सत्य कहलाता है। ये सार्वभौमिक है और शाश्वत है। इसकी कोई मूर्ति बना भी ले तो उसका कोई अर्थ नहीं बनेगा।

फिर क्यों न हम इन्हीं शब्दों में धर्ममुक्त भी रखें? धर्ममुक्त जयते! अर्थात धर्ममुक्त  इंसान जीतता है। धर्ममुक्त कोई भी बन सकता है अतः ये सत्य के समान एक भाव है। इसमें कोई भेदभाव नहीं। समानता है। कोई जातपात नहीं, कोई भेदभाव नहीं, सिर्फ अच्छाई! अतः बोलते रहिये, "धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते, धर्ममुक्त जयते", "जीतेगा भई जीतेगा, हर धर्ममुक्त जीतेगा।" ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

रविवार, अक्टूबर 20, 2019

काल्पनिक रावण ब्राह्मण और विदेशी था ~ Shubhanshu



पूरे विश्व में बच्चा पिता का माना जाता है। उसका ही वंश उसके पुत्र से चलाया जाता है। माँ का कार्य केवल बच्चा पैदा करके पालना होता है। इसीलिए चाहें वो किसी भी जाति, धर्म, वंश, रंग, स्थान की हो, स्वीकार कर ली जाती है। इसीलिए love जिहाद जैसा गिरोह बना जो हिन्दू लड़कियों को प्रेम जाल में फंसा कर विवाह करता था। क्योंकि लड़की कोई भी हो, वंश लडके का चलता है। मेरी बहन ने भी भाग कर एक मुसलमान लड़के से विवाह कर लिया था। अब हमारा और उसका कोई सम्पर्क/सम्बन्ध नहीं है।

हर कहानी, हर फिल्म में आप देख सकते हैं कि जब लड़की विवाह पूर्व गर्भवती होती है तो वो सबसे एक ही सवाल सुनती है, "किसका बच्चा है?" इसका अर्थ ये हुआ कि समाज बच्चा महिला का नहीं मानता। इनके अनुसार महिला केवल एक पात्र है जिसमें बच्चा पुरुष रख गया। आज कानून भी बच्चे के पिता को ही बच्चे का मूल स्वामी मानता है और इसी वजह से बच्चे की मां का परिवार नाम बदल कर लड़के के परिवार नाम पर रख दिया जाता है। जो बताता है कि लड़की कोई भी हो चलेगी। उसके कोई गुण नर बालक में नहीं आते।

मेडिकल साइंस के अनुसार भी नर बालक में पिता के गुण ही प्रभावी होते हैं। इसी तरह मादा बच्चे में भी सिर्फ माँ के ही गुण प्रभावी होते हैं। अतः यदि कोई ब्राह्मण यदि किसी बहुजन या किसी भी अन्य वंश की स्त्री से विवाह कर ले तो उसका वंश ब्राह्मण ही कहलायेगा।

कपोल कल्पित वाल्मीकि रामायण के रचयिता रत्नाकर थे जो कि ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि प्रचेता और माँ चार्शिणी (वर्ण अज्ञात) के पुत्र थे। अतः ये भी ब्राह्मण थे। इनका नाम बाद में वाल्मीकि पड़ गया था।

अब आते हैं रावण के वर्ण और राष्ट्रीयता पर। पुस्तक के अनुसार रावण सीलोन नामक देश में रहता था जिसे आज श्री लंका कहा जाता है। यह एक दूसरा देश है जो भारत से बिल्कुल अलग थलग है। अतः रावण विदेशी था। रावण के पिता ब्राह्मण ऋषि विश्रवा और माता का नाम राक्षसी कैकसी था। अतः उपर्युक्त विवेचनानुसार रावण भी ब्राह्मण था। इतिसिद्धम! ~ Shubhanshu 2019©

ऑनलाइन तो मत डरो ~ Shubhanshu



हम सब असल जीवन में उपनाम छुपा सकते हैं क्योंकि आप किसी जातिवादी के कंट्रोल में हो सकते हैं लेकिन फेसबुक पर उपनाम छुपाने का मतलब है कि आपकी इतनी ज्यादा फटी पड़ी है, जातिवादियों से कि जैसे फेसबुक पर भी वो आपको थप्पड़ लगा देंगे या लाठी से कूट देंगे।

जो मूर्ख आपको ऐसी नाम बदलने की सलाह दे रहा है वो वाकई में फटीचर ही होगा दिमाग से। जिसकी किसी जातिवादी ने नाम पूछ के ले ली खबर। ऐसे फटीचरो से सलाह न लें। अपना नाम जो है वही रखें। अपनी पहचान बनाइये और नाम कमाइए। आखिर इंसान जीता किस लिए है? सम्मान के लिये। जो भी नाम पर उंगली उठाये उस की गेंद में पूरा बाँस डाल दीजिये। ब्लॉक कर दीजिये। ख़त्म हुआ। ~ Shubhanshu Singh Chauhan 2019©

रविवार, अक्टूबर 13, 2019

अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu


जय भीम न बोलने पर पुजारी के हाथ तोड़े, जान से मारने का प्रयास किया, ठाकुर कालोनी में जय भीम न बोलने वालों को जान से मारने की धमकी वाले पर्चे डाले गए, यदि ये सब धार्मिक कट्टरता नहीं है तो क्या है?

जब हम इस तरह के मुद्दे उठाते हैं तो हमें हमारे नाम में सिंह चौहान देख कर जातिवाद किया जाता है जो कि ढोंगी दलितों की असलियत सामने लाता है। अनुसूचित जाति का होने पर भी मुझे ठाकुरों के साथ पढ़ाई के लिये रहना था। अतः पापा ने बचपन में ही मेरे नाम में सिंह चौहान जोड़ दिया ताकि मैं सवर्णों की कट्टरता का शिकार न बनूँ।

जब नास्तिकों के साथ जुड़ा तो इधर भी वैसा ही कट्टरपंथ दिखा। अब जो नाम मुझे सवर्ण कट्टरपंथियों से बचाता था, वही मुझे दलित कट्टरपंथियों से पिटवाने लगा। दोनो में कोई फर्क नहीं था। फेसबुक पर सुदेश, जितेंद्र और भी बहुत से इन जैसे लोग दलित कट्टरपंथी हैं, जो मेरे नाम को और मेरे निष्पक्ष होने को गलत ठहराते हैं।

मेरा पूरा नाम मुझे घटिया सोच वाले नकली नास्तिकों की असलियत दिखाता है जो सम्भवतः किसी नास्तिक समझें जाने वाले धर्म से भी जुड़े हैं। भीम चरित मानस भीम धर्म के लिये तैयार है, भीम कथा की पर्ची कटने लगी हैं। बौद्ध धर्म का प्रचार चरम पर है। अब अगर मैं इनके साथ खड़ा हुआ तो मैं फिर वहीं जाता दिखता हूँ जहाँ से चल कर आया था।

इसीलिये कृपया कट्टरता कौन कर रहा है ये देखिये। किसी व्यक्ति की जय बोलना सबका निजी मत है, लेकिन उसे दूसरे से बुलवाने का कार्य कट्टरता है। तानाशाही है। वैसे ही जैसे जय श्री राम न बोलने पर धार्मिक भीड़ द्वारा मारपीट।

मैं उसी कट्टरता का सही आकलन करता हूँ जो वास्तविक होती है, और जो समस्या वास्तविक है उसी से खतरा है।

जय भीम बोलो, वरना मरो जैसे पर्चे बाँट कर दलित संगठन उसी तरह से मुकर गए जिस तरह हिन्दू संगठनों ने अपने कार्य (गांधी हत्या) करे और बाद में मुकर गये।

कीचड़ से कीचड़ धोकर क्या मिलेगा? कीचड़ ही न? बेहतर होता भीम चरित मानस और भीम कथा/भजन की जगह संविधान में अपने अधिकारों और कर्तव्यों को सिखाया जाता। बेहतर होता जो हर दलित अपनी आरक्षण और शिक्षा के अधिकार का फायदा उठा कर सरकारी वकील बनता।

आज बाबा साहेब जैसे कितने वकील हैं? शायद ही कोई हो। मैं वकील न बन सका, मेरी मजबूरी थी लेकिन क्या आप सब भी मजबूर हैं? सोचो इससे पहले कि बहुत देर हो जाये!

PS: जयभीम, नमो बुद्धाय नहीं रटो, वो तो थे, जो भी थे, अब नहीं हैं। उनसे सीखो, लेकिन अपनी राह सिर्फ खुद बनाओ, याद रखो बुद्ध की एक मात्र शिक्षा: अप्प दीपो भव: ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019© 

संदर्भ: 

विवाहमुक्ति, यौनशिक्षा और बलात्कार ~ Shubhanshu


लिंगानुपात विपरीत हो जाये तो स्थिति बदलेगी ही। लेकिन ऐसा सिर्फ लड़की पैदा करके नहीं होना। उसके माता-पिता द्वारा लड़कों जैसा पालनपोषण भी होना चाहिए। अभी तो लड़कियां एक तरह से मजबूरी समझ कर पैदा की जा रही हैं लड़के की प्रतीक्षा में।

संख्या कोई तब तक नहीं बढ़ाएगा जब तक विवाह लड़की का सौदा जैसा रहेगा। कोई लड़को जैसी आशा रखे लड़की से, तभी कुछ सुधार आ सकता है, उनकी हालत में। इसके लिए लड़कियों को उच्च शिक्षा देना कारगर होगा। जो कि माता-पिता चाहते नहीं।

और हाँ, रेप को लेकर में आश्वस्त नहीं हूँ कि कोई लाभ लिंगानुपात बढ़ने से वास्तव मे हो सकता है। रेप करने के पीछे सामान्य कारण है लड़कियों का सामान्य लड़कों से नफरत करना। बाकी कारण उसके बाद शुरू होते हैं। लड़कियाँ सेक्स को लेकर इतनी डरी हुई है कि साधारण प्रेम भी बलात्कार में बदल जाता है।

वे चाहते हुए भी सेक्स को हाँ नहीं कहती और करना भी चाहती हैं। इसीलिए प्रचलित है कि लड़कियों की न में उनकी हाँ होती है, जबकि मैं कहता हूँ कि लड़कियों की हाँ में ही उनकी न भी होती है। बस लड़के कभी समझ नहीं पाते।

कारण है उनके भीतर सेक्स के प्रति भरा डर और जिस घर में हम रहते हैं उससे निकाले जाने, पीटे-मारे जाने का डर। प्रेगनेंसी का डर तो दरअसल इन सबकी शुरुआत होती है। अन्य कारण है वीडियो/फ़ोटो द्वारा बदनाम होना, विवाह न हो पाना। जबकि विवाह जैसी व्यवस्था खत्म कर देने से बदनामी शब्द समाप्त हो जाता है और सेक्स शिक्षा देने से सेक्स से डर भी निकल जाता है। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2019©

बुधवार, अक्टूबर 09, 2019

मेरे अनसुलझे रहस्य : अनोखे सपने ~ Shubhanshu



स्वप्न में अगर वो हो रहा है जो आप हकीकत में कर नहीं पाते तो सपना कभी खत्म न हो ये मन करता है और अगर बुरा सपना आये तो लगता है कि आते ही टूट क्यों नहीं गया?

मैं उन दुर्लभतम इंसानो में से एक हूँ जिसको कुछ अलग सा बनाने में उनके अनसुलझे रहस्य वाले स्वप्नों का बड़ा हाथ है। मेरा पहला लेखन कार्य एक ऐसे सपने को लिखना था जो कि कहीं स्थित पौराणिक मंदिर में छिपे खजाने तक जाने का रास्ता सुझाता है। (कहानी: रहस्यमय खजाने की खोज)

मैं कभी नहीं समझ सका कि इन सपनो को कोई मस्तिष्क कैसे बना सकता है? मेरे स्वप्न पूर्व आधारित जानकारी पर आधारित नहीं होते, वे मुझे नई जानकारी देते हैं। ये अभी तक के विज्ञान के अनुसार असम्भव है।

मैंने एक फ़िल्म देखी थी इन्सेप्शन। उसमें किसी रसायन द्वारा स्वप्न को प्रोग्राम करने, उसमें कई स्टेज पर जाने का सफलतापूर्वक परीक्षण करके दिखाया गया था। मैं जानता था कि ये कल्पना है लेकिन अवश्य ही ये किसी वास्तविक तर्क, अध्धय्यन, प्रयोगों पर आधारित होगा। उसी को बढ़ा-चढ़ा कर ये फ़िल्म बनी होगी।

मैंने ज्यादा खोजबीन नहीं की। लेकिन मुझे कुछ ऐसे स्वप्न आये थे जो कि 2 से 3 स्तर तक मुझे ले गए। मैने उनको लिख लिया है। मेरे स्वप्न आम नहीं, इनको बचपन से न जाने कितने ही लोगों को सुना-सुना कर देख चुका। स्वप्न इतनी जानकारी भरे होते थे कि उन पर आसानी से कहानी लिखी जा सकती हैं। मेरे 90% कहानियों को मेरे सपनो ने लिखा है और उनकी विचित्रता आप लोग उन कथाओं को पढ़ने के बाद ही समझ सकेंगे।

मेरे सपनों ने मेरी होने वाली सभी सम्भव हत्याओं और दुर्घटनाओं द्वारा मृत्यु को दिखाया है। भविष्य और भी दिखायेगा या नहीं या वाकई इनमें से कोई मेरी मौत की वजह बनेगा या मैं भविष्य देख कर सावधान हो गया हूँ और अपनी तमाम मौत की आहटों को टाल गया हूँ? अब इस पर तो हम कोई राय नहीं दे सकते।

तर्कवादी होने के कारण जहाँ तक हो सकता है, तर्क लगा रहा हूँ लेकिन मैं इस मामले में फेल हो गया। ये सपने मेरे लिये मेरे हमसफ़र, साथी और मेरे रक्षक हैं। नहीं जानता कि इनका राज़ क्या है और खुशी इस बात की है कि यही मेरे सच्चे माँ-बाप हैं। बहुत कुछ लिखूंगा अपनी किताब में अगर कभी लिखी तो। बहुत दिनों से बहुत से सपनो को miss कर दिया। काफी अफ़सोस होता है कि मैं न उनको याद रख सका और न आपको उनका परिचय करवा सका। मुझे माफ़ कर देना। ये सपने आप सबकी धरोहर हैं।

क्या पता? कल इनका दुनिया में कोई सदुपयोग हो सके? या कोई नया राज़ खुले मानव मस्तिष्क की सीमाओं का। ~ मैं हूँ आपका वही दोस्त, Shubhanshu Dharmamukt 2091©

मंगलवार, अक्टूबर 08, 2019

Over qualifieds and unqualifieds are equals ~ Shubhanshu




शुभ: इससे पहले आप मुझे कुछ कहें मैं एक सवाल पूछना चाहता हूँ, कम पढ़े लिखे को भगाने का तो लॉजिक बनता है लेकिन ये ज्यादा पढ़े लिखे को रिजेक्ट करने का क्या लँगड है sir?

बॉस: देखो बेटे, बॉस का काम है नौकर से गुलामी करवाना। नौकर गुलामी तब करेगा जब मालिक से कम सम्मान प्राप्त होगा। मैं आपको नौकरी पर रख भी लूँ तो आपसे कुत्ते की तरह काम नहीं ले सकता। आप मेरे को ही सबके सामने ताना मार दोगे कि साला 2 कौड़ी का आदमी मुझे सिखा रहा है? इससे मेरी साख गिर जाएगी और आपको भी पेमेंट नहीं मिलेगा। हो सकता है, धक्के और दिए जाएं। इसलिये कोई भी मालिक जो आपसे कम योग्य होगा आपको रखने का रिस्क नहीं लेगा।

शुभ: ये बात है। लेकिन अगर मैं हर जायज बात मानने का लिखित आश्वासन दे दूँ तो?

बॉस: मैं रख भी लूँ ऐसा करके और आप पर इच्छाशक्ति हो खुद पर काबू रखने की तो भी आप जल्दी ही आपकी उच्च योग्यता से मेरी जगह ले लोगे और हो सकता है मेरे से ऊपर की भी। मेरे बीवी-बच्चों ने वैसे ही जीना हराम कर रखा है और अगर मेरी जॉब चली गई, जो कि जाएगी ही मुझे लग रहा है तो मैं आपको अपनी मरवाने के लिए क्यों रखूंगा? खुद सोचिये! आप काहे नौकरी के चक्कर में पड़े हैं? आप का नॉलेज मैंने इंटरव्यू में देखा, आप तो किसी प्रोपर्टी अगर हो तो उसपे लोन लेकर अपनी खुद की कम्पनी खड़ी करें। आप employer material हो; employee material बिल्कुल भी नहीं। यहाँ से जाकर मेरी सलाह पर गौर करना। नहीं तो बेकार में परेशान होंगे।

शुभ: Thanks for guidance! समझ नहीं आ रहा कि जो गणित मैंने लगाई थी आपने एकदम अक्षरशः उसको वैसा ही बताया। ये सच है कि मैं आपकी सीट पक्का लपेट लेता। मुझे भी आपकी एक एक खामी दिख रही है। अगर मैं join करता तो सबसे पहले आप ही को कमियां बता-बता कर hopeless कर देता। आपने सही कहा कि मैं नौकरी करने के लिये नहीं बना। देने के लिए बना हूँ। लेकिन उसमें चैलेंज नहीं है। फिर वहीं अटक के रह जाऊंगा। इससे तो अच्छा जैसा हूँ वैसे ही ठीक है। अपनी FD से अच्छी खासी इनकम आ रही है और खेत भी बटाई पर लगे हुए हैं। तो अपना काम तो चलते ही रहना है।

शनिवार, अक्टूबर 05, 2019

राज़ कुमार/कुमारी का ~ Shubhanshu



समाज के गुप्त रहने वाले घृणित ज़हरबुझे सत्य को सबके सामने लाने और देश को एक आधुनिक और स्वस्थ खुली सोच का बनाने की कड़ी में एक बार पुनः आपका स्वागत है। 

आज हम चर्चा करेंगे, नाम के आगे/पीछे लगाए जाने वाले लिंगभेदी शब्द कुमार/कुमारी पर।

कभी-कभी दूरदर्शी सोच की कमी के कारण बड़े-बड़े विद्वान भी इस तरह की समस्याओं पर ध्यान नहीं देते लेकिन ये सब पाखण्ड कभी बिना मकसद के नहीं होते। इनका मकसद क्या है? क्यों ये शब्द लोगों के नाम में डाला जाता है इसका राज़ आज मैं आपको बताने जा रहा हूँ।

दोस्तों, जैसे कि आप जानते ही होंगे कि कुमार शब्द हिंदी के कुंवारा से बना है जो राजस्थान में कुंवर बन गया और फिर उधर से शेष भारत में ये कुमार में बदल गया।

राजाओं के खानदान में वंश परंपरा का बहुत महत्व होता है। राजा का खून ही राजा बनेगा, यही नियम है। ऐसा आनुवंशिक कारणों से समझा जाता है जबकि ये कारण प्रभावी और अप्रभावी वर्ग में बंटे होने के कारण राजाओं के बेटे हमेशा राजा जैसे या उससे बढ़ कर नहीं भी निकलते बल्कि मंदबुद्धि भी निकल जाते हैं। भाई-बहन से जन्मा बच्चा ही राजा का वंशज हो सकता है। दूसरे वंश से आई स्त्री अपना 50% खून (लक्षण) बच्चे में मिलाती है। जो कि अर्ध वंशज ही होता है दोनो का। अतः वंश परंपरा ज्यादा महत्व नहीं रखती। क्योंकि वास्तविक बुद्धिमान शिशु के लिए दोनो सेक्स पार्टनर को जन्म से ही बुद्धिमान होना होगा। तब भी कुछ प्रतिशत मामलों में परिणाम विपरीत निकल सकते हैं। अतः वंशवाद के जाल से निकलें। ये बंधन है।

(लुहार का बेटा/बेटी लुहार, डॉक्टर का बेटा/बेटी डॉक्टर, वकील का बेटा/बेटी सदा वकील ही नहीं बन सकते। उनकी अपनी मर्जी होती है कि वे जो मर्जी हो वो बनें।)

इसी के चलते, वे अपने बेटों और बेटियों के नाम में कुमार (राजकुँवर/राजकुमार और राजकुमारी लिखते/बुलाते थे। इसका अर्थ है कि राजा के वारिस और बेटी की अभी शादी नहीं हुई। अतः प्रजा अगले राजा (नर शिशु) के लिए व्याकुल न हो।

विवाह के दौरान नया वंशज लाने की प्रक्रिया शुरू हो गई, ये दिखाने हेतु प्रजा को भोज पर बुलाया जाता है और वधु को उसका पिता दहेज देता है। इससे वह अपने समृद्ध होने को दर्शाता है। जबकि यही परंपरा आज गले की फांस बन चुकी है। इसे रोकने के लिए कानून तक बने लेकिन लोग ही नहीं चाहते कि ये गन्दगी समाज से जाए, इसलिये वे रिपोर्ट न करके इसके परिणामस्वरूप कष्ट भोगते हैं।

विवाह के उपरांत राजकुमार का नाम बदल कर राजा और वधु का नाम राजकुमारी से रानी कर दिया जाता है। इसका मतलब है कि अब दोनो कुंवारे नहीं रहे। उनके सेक्स अंग अब अगले राजा को पैदा करने के लिए प्रयोग (used) हो गए।

अब जब समय बदला तो जनता भी खुद को राजा समझने लगी। देखा देखी में उनको लगता कि ये तो वो भी कर सकते हैं, करने लग गए। न सिर्फ विवाह की परंपरा अपनाई बल्कि नाम के आगे भी कुमार/कुमारी लिखने लग गए। लेकिन ये सिर्फ देखा-देखी नहीं था। पूर्वज जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं।

समाज में होने वाले प्रत्येक पाखण्ड का एक घृणित मतलब होता है। और वह है इंसान को गुलाम बनाने के लिये मानसिक बेड़ियां पहनाना। ऐसे ही नहीं सब लोग एक सा सोचने लगे। इसके पीछे पीढ़ियों का षडयंत्र है।

सोचो, अगर लड़की नाम के आगे/पीछे कुमारी लगाती है तो क्या उसे कुमारी का मतलब नहीं पता? बचपन में ही बता दिया जाता है कि जिसका विवाह नहीं हुआ वह कुंवारा/कुंवारी। यह इस विश्वास के साथ बताया जाता है कि वे कभी विवाह से पूर्व किसी को भी अपना कुंवारापन खोने नहीं देंगे। इसीलिए 25 वर्षीय ब्रह्मचर्य आश्रम बना जो कि भारतीय संस्कृति में मौजूद बाकी 3 आश्रमो; ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में से पहला है।

ब्रह्मचर्य मतलब, ब्रह्म का आचरण। ब्रह्म मतलब ब्राह्मी लिपि पढ़ने का आचरण। सभी वेद और ग्रँथ इसी लिपि में लिखे गए थे। विद्या ग्रहण करने का कार्य करने का समय 25 वर्ष। इस दौरान सेक्स करना अपराध है, कारण था उससे उतपन्न शिशु को संभालने के कारण विद्या हासिल न कर पाना।

इसके तुरन्त बाद व्यवस्था विवाह करवाया जाता है जो कि ऐसा है जैसे होटल में लेट कर खाना आर्डर करना। इसीलिए मातापिता लड़की से लेकर दहेज, प्रीतिभोज आदि, सबकी व्यवस्था करते हैं। लड़के को बस रात में दूध पीकर सेक्स (मेरिटल रेप) के मजे लेने हैं। लड़की को जल्द से जल्द बच्चों को पैदा करना है। इस सब में जो खर्च हो रहा, लड़के को सिर्फ उसका इंतज़ाम करना है। यही कुल कार्य है जो मातापिता अपनी सम्पत्ति के हस्तांतरण के लिए, इच्छा रहित बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ करके करते हैं।

लेकिन आजकल ऐसा नहीं हो सकता। अशिक्षा, गरीबी में आपकी सोच/इच्छाशक्ति दब जाती है। कंडोम, pull out, IUV, नसबंदी, ipill, माला डी, मेरी सहेली, डिम्पा इंजेक्शन आदि विधियों से बच्चा होने पर अंकुश लगाया जाने लगा है। अतः अब खुल कर सेक्स किया जा सकता है बिना किसी बच्चे की चिंता किये।

सामान्यतः 10 वर्ष की आयु में इंसान का दिमाग 100% विकसित हो जाता है। बस इसमें ज्ञान की कमी रह जाती है। 10 वर्ष की आयु से ही इंसान में सेक्स के प्रति आकर्षण बढ़ने लगता है लेकिन कपड़ों के कारण वह तुरन्त जाग्रत नहीं हो पाता। इसी आयु के करीब लड़कियों में भी माहवारी शुरू हो जाती है। अतः प्रकृति के अनुसार वह अपनी आयु के बालक के साथ सेक्स कर सकती हैं, अधिक आयु के साथी के साथ नहीं क्योंकि अधिक आयु में यौनांगों का आकार बढ़ता है।

लेकिन ऐसा इसलिये करना उचित नहीं है क्योकि प्रथम तो बच्चा होगा नहीं क्योंकि लड़के में कम उम्र में शुक्राणुओं की भारी कमी होती है और अगर बच्चा हो भी गया तो वे दोनों उसे न तो पाल सकेंगे और न ही लड़की नार्मल डिलीवरी कर सकेगी क्योंकि पेल्विक बोन छोटी होने के कारण सम्भवतः बच्चा मर सकता है और उसके गर्भाशय में पड़े रहने से इन्फेक्शन भी हो सकता है।

(वैसे भी डेयरी को अच्छा बता कर कुछ डॉक्टरों ने लड़कियों को कुपोषित कर दिया है। डेयरी वाला विटामिन अधिक मात्रा में जाकर पहले वाला भी निकाल देता है। शरीर जब भी कुछ अधिक मात्रा में पाता है तो उसे निकाल देता है और साथ ही बनाना भी बन्द कर देता है। अतः डेयरी प्रोडक्ट से उल्टी क्रिया होती है और अस्थिभंगुरता उतपन्न हो जाती है। भारतीय 100% लड़कियों में आयरन और कैल्शियम की कमी पाई जाती है जो कि हर समय कपड़ों में लिपटे रहने के कारण सूर्य के प्रकाश से मिलने वाले विटामिन D की कमी से होता है।

कैल्शियम तो पानी में भरपूर होता है, उसी से तो व्हेल का कंकाल, मछली का अस्थि पंजर और शंख/सीप का खोल बनता है बस शरीर इसे विटामिन D के होने पर ही सोखेगा जो कि सूर्य प्रकाश से आसानी से सम्भव है। एक बार 10 मिनट के लिए नँगे होकर धूप सेंकना कई महीनों तक के लिए विटामिन D बना देता है। विदेश में इसीलिये भी लोग धूप सेंकते हैं। साथ ही स्किन कैंसर से बचने के लिए भी धूप ज़रूरी है।)

कंडोम भी बच्चों के लिंग के आकार के नहीं आते और बाकी गर्भनिरोधक दवा का कम उम्र में इस्तेमाल का क्या लाभ/नुकसान हैं, मुझे ज्ञात नहीं। भारत में बहुत समय तक 11 साल की लड़कीं से वयस्क पुरूष सेक्स करता आया है जो कि बड़े आकार के लिंग को छोटी योनी में डालने के कारण उसे गम्भीर रूप से फाड़ कर घायल कर सकता है। कई मौतें होने के बाद तय हुआ कि 12-14 वर्ष (मतभेद) से कम आयु की लड़की का विवाह अपराध है। बाद में इसमें भी समस्या आने पर इसे बढ़ा कर 15 वर्ष कर दिया गया।

मतलब ये है कि 15 वर्ष की आयु में लड़की बच्चा पैदा करने योग्य मानी जाती है कानूनन। अब हुआ ये कि पढ़ाई करने की आयु से पहले ही बच्चा हो जाये तो लड़की पढ़ाई कैसे करेगी? इसलिये इसे बढ़ा कर 16 किया गया। फिर इस पर आरोप लगे कि सिर्फ 10th तक की पढ़ाई करवा कर लड़की की पढ़ाई छुड़ाई जाने लगी। तब इसे बढ़ा कर 18 कर दिया गया। यानी 12th पास होते ही विवाह। लड़के की आयु 21 वर्ष रखी ताकि वह स्नातक भी कर ले। साथ ही समाज की सोच कि लड़की की उम्र कम होनी चाहिए लड़के से, इसका भी तुष्टिकरण (वोटों की व्यवस्था) हो जाये।

अब जब जनता की आदत पड़ी है 10 से 14 साल की उम्र में सम्भोग करने की तो कानून क्या कर लेगा? लेकिन संस्कार नाम के कानून अपना काम करते हैं। विवाह से पहले सेक्स नहीं करना है ये सोच इतना डरा कर भर दी जाती है कि लड़की बलात्कारी से भी विवाह को राजी हो जाती है। उसे सिर्फ यही डर शेष रह जाता है कि अब उसकी शादी कहीं नहीं होगी।

अब जैसे हर बात के कई side effects होते हैं, इसका भी हुआ। अब कोई भी विवाह का वादा (झांसा) देकर महिला को उसके संस्कारो से मुक्ति दिला सकता है। जबकि विवाह जैसा कुछ न होता तो लड़की अपनी मर्जी से ही किसी से सेक्स करती। जीवन भर आवास, भोजन और सेक्स का विवाह रूपी ऑफर कुबूल करके वो सेक्स करे तो ये सिर्फ लालच है। इसी को फुसलाना कहा जाता है। संविधान में यह अपराध घोषित है।

अपना मतलब निकल जाने पर छोड़ दीजिए और वो किसी से नहीं कहेगी क्योंकि फिर उसकी दूसरी जगह शादी नहीं होगी। विवाह के कॉन्सेप्ट से लड़कियों का शोषण, date rape, धोखा करना बेहद आसान हो गया है। जबकि ये न हो तब देखो, कैसे लड़कियों को फुसलाना असम्भव हो जाता है। वह तब केवल अपनी मर्जी से ही सेक्स करेगी। शोषण समाप्त। कोई जबरदस्ती करे तो सीधा पुलिस में रिपोर्ट करेगी क्योकि उसे लाज-शर्म का कोई डर नहीं होगा और न ही 'शादी नहीं होगी तो क्या होगा?', इस बात का रोना-पीटना।

लेकिन इच्छाशक्ति विहीन समाज का निर्माण किया जा चुका है। नाम के आगे कुमारी लगाए घूमने वाली लड़की इस sexual status को माथे पर चिपका कर घूमती है कि उसने आज तक सम्भोग नहीं किया। इसे वो गर्व का विषय मानती है। सीधे विवाह के बाद ही ये स्टेटस हटेगा और इसकी जगह श्रीमति लग जायेगा। जबकि पुरुषों का क्या? जो नाम में श्रीमान और कुमार लगाये घूम रहे?

बलात्कारी सँस्कृति वाला समाज इस तरफ ध्यान नहीं देता। पुरुष इस स्टेटस को विवाह के बाद भी लगाए रखते हैं ताकि किसी कुमारी लगाये हुई लड़की को विवाह का झांसा दे सकें। उनके नाम के आगे लगा श्रीमान बचपन से लेकर मृत्यु तक नहीं हटता जबकि महिला पहले कुमारी और फिर श्रीमती बना दी जाती है।

अब सवाल उठता है कि क्या कुंवारा पन जांचा जा सकता है? कुछ लोगों को लगता है कि हाँ, परन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि जांचने की विधि 100% कार्य करनी चाहिए तभी उसे जांचने की विधि कह सकते हैं। जैसे, कैंसर जांचने की विधि सोनोग्राफी/मेमोग्राफी साफ बताएंगी कि कैंसर है या नहीं है। जबकि कौमार्य परीक्षण सिर्फ महिला के लिये होता है। मैने कई कम उम्र (10 से 17 वर्ष) की लड़कियों से बात की कि वे अपने कौमार्य की जांच करें। 10 में से 9 ने नकारात्मक जवाब दिए। इसका मतलब, क्या वे उस उम्र में सेक्स कर चुकी थीं? संभव नहीं। अगर सम्भव भी मान लें तो फिर आप ये मान लो कि 10-17 वर्ष की आयु के आते 90% लडकिया सेक्स कर चुकी होती हैं। जो कि आपने मान लिया, जबकि सत्य कुछ और है।

अब गौर करते हैं कि कौमार्य है क्या? कौमार्य दरअसल त्वचा का बना एक रिंग होता है। कभी-कभी ये जालीदार भी हो सकता है। ये एक अवरोध है बड़े लिंग के लिये। छेद छोटा करने का उद्देश्य जैसे, हमउम्र बच्चे के पतले लिंग के प्रवेश के लिये अधिक घर्षण पैदा करना हो सकता है। दुर्लभ जालीदार कौमार्य एक आनुवंशिक गलती हो सकती है, अतः उसे अनदेखा करना ही उचित रहेगा।

आयु के साथ ये छल्ला घटता जाता है और 15-18 वर्ष की आयु तक समाप्त होने लगता है। कुछ में हार्मोनल असंतुलन/आनुवंशिकता के कारण 18 से अधिक आयु तक भी रह सकता है। अतः हम सभी लड़कियों के कुंआरी होने का दावा कौमार्य फटे होने/अनुपस्थित होने पर नहीं कर सकते। फटने के लिए व्यायाम, साइकिल चलाना, दौड़ना, penetrative masturbations आदि ज़िम्मेदार हो सकते हैं। तब? हम सब जानते हैं कि हस्तमैथुन को विवाह/सेक्स करना नहीं कह सकते।

100% जाँच सफल न होने के कारण कौमार्य को कुंवारे होने का प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता।

अब आते हैं पुरुष के कौमार्य के ऊपर, शिश्न (penis) के पिछले हिस्से में एक लकीर शिश्नमुंड के छिद्र से जुड़ी होती है। जब लिंगमुंड पर चढ़ी उप त्वचा को पीछे खींचा जाता है तो ये भी खिंच जाती है और इसमें फटास आ जाती है। यह भी शिश्न के मैल को साफ करने के दौरान कई बार टूट जाती है। हस्तमैथुन भी ज्यादा जोर से करने पर ये टूट जाती है और कई बार ये उपत्वचा के शिश्नमुंड के किनारों से चिपके होने पर भी बल पूर्वक उतारने में भी टूट जाती है। कम चिकनाई के सम्भोग से भी ये टूट सकती है और अधिक चिकनाई के सम्भोग से ये बिना छतिग्रस्त हुए भी रह सकती है। 

अतः ये भी लड़के के कुंवारे होने का प्रमाणपत्र नहीं हो सकती। अब जब हम जान चुके हैं कि कुंवारे होने का कोई प्रमाण सम्भव नहीं है तो फिर इसे अनदेखा करना चाहिए। आप सेक्स करे हुए हों तो भी आप कह सकते हैं कि ये किसी और कारण से हुआ होगा।

अगर आप सोचते हैं कि पहले सेक्स के बाद किसी अन्य से सेक्स करने पर उसे पता चल जाएगा तो वह आपके डर से ही से ही सम्भव है, कौमार्य/लकीर टूटने से नहीं।

अब आते हैं उनके ऊपर जो कौमार्य/लकीर की मांग करते हैं। ये वे लोग हैं जो अपने साथी को दर्द से तड़पता हुआ और खून से लथपथ देखना चाहते हैं। खुद के कुंवारे होने का प्रमाण नहीं और दूसरे से सर्टिफिकेट चाहिए। अगर कोई पहले से सेक्स करा हुआ है तो क्या हो गया? अब तो वह आपके साथ है। मैं तो कहता हूं कि गर्भवती भी हो कोई तो क्या हो गया? अपने ही खून का बच्चा पैदा करना ही क्यों है? ऊपर ये बात समझाई गयी है कि आप सिर्फ 50% खून अपने बच्चे में डाल सकते हैं यदि आप सगे भाई-बहन नहीं हैं। जबकि उधर अनाथालय में बच्चे अपने लिए माँ-बाप की राह देख रहे। आप कितने खुदगर्ज हैं इस बात से पता चलता है, न कि सिर्फ अपना ख्याल रखने से। अपना ख्याल रखना तो हम सबसे कहते हैं लेकिन "अपने ही खून का बच्चा पैदा करना" ये किसी से नहीं कहते।

तो खुदगर्जी से निकलिये। कुँवारे पन का ढोंग बन्द कीजिये। पश्चिमी देश कुँवारे होने को असफलता की निशानी मानते हैं। इसका मतलब है कि आप को अब तक कोई सेक्स साथी नहीं मिला। आप में आकर्षण नहीं है या आप रूढ़िवादी हैं। मजे लेने की कोई उम्र नहीं होती। जितनी जल्दी आप इसे ले सकते हैं, सुरक्षित रहकर, उतना अच्छा है आपके स्वास्थ्य के लिए, क्योंकि इच्छा तो होती ही है। उसे दबाना मतलब दिमाग को खराब करना।

जिनकी ये इच्छा पूरी नहीं होती और जिनको खुद पर कंट्रोल कम होता है वे अक्सर मानसिक रूप से बीमार हो जाते हैं। अधिकतर मानसिक रोगी सेक्स के न मिल पाने के कारण मानसिक रोगी बने हैं। सबसे पहला आधुनिक masturbatory system चिकित्सकों ने ही बनाया था। हिस्टीरिया के मरीजों का इलाज करने के लिए। इस हिस्टीरिया की पहचान वही है जो हमारे देश में "माता आने" पर लड़कियों में दिखती है। उनको सेक्स की बहुत आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति न होने पर जिस प्रकार हाथी "मस्त/पागल" हो जाते हैं, वैसे ही इंसान भी हो जाते हैं।

विदेशों में इसके लिए ब्रोथल (एक तरह के वेश्यालय) बने हैं। जहाँ मातापिता खुद अपने लड़कों को सेक्स करवाने के लिए वहाँ ले जाते हैं। लड़कों को सेक्स समय पर न मिलने के कारण उनमें गुस्सा, नफरत, वहशीपन और पढ़ाई में मन न लगने जैसी समस्या हो जाती हैं। पुरूषों द्वारा भीभत्स बलात्कार करना भी इसी कारण से सम्भव हुआ है।

मैंने कक्षा 8 से मानसिक तनाव होने पर हस्तमैथुन करना शुरू किया और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ जबकि उससे पहले हर वर्ष फेल होकर supplementary exam और सिफारिश से पास होता रहा। मेरे सहपाठी काफी समय से करते थे और पढ़ाई में भी अच्छे थे। आज तरह-तरह के male और female masturbators उपलब्ध हैं। male/female सिलिकॉन सेक्स डॉल भी उपलब्ध है। जो आपको सेक्स साथी के जैसा एहसास दे सकते हैं।

अतः सेक्स, मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसीलिए पुराने समय में और आज भी बाल विवाह करवाये जाते हैं। जो कि बच्चा पैदा करने के कारण आज के समय में जीवन बर्बादी की ओर धकेल देते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि उनको हस्तमैथुन/सुरक्षित सम्भोग की जानकारी (sex education) देकर पढ़ाई में उनका मन लगवाना चाहिए। सर्वे बताते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा पोर्न महिलाओं द्वारा देखा जाता है। सोचिये कि वे कितना हस्तमैथुन करती होंगी? पुरुष तो करता ही है।

आपने देखा कि 

1. कुंवारापन किसी विधि से 100% नहीं जांचा जा सकता है।
2. कुंवारे होने की मांग करने वाले घटिया रूढ़िवादी लोग हैं।
3. वंशवादी/रूढ़िवादी लोग मूर्ख और घटिया हैं क्योकि बिना एकदम करीबी रक्तसम्बन्धी से बच्चा पैदा किये बिना ये सम्भव ही नहीं। साथ ही incest (रक्त सम्बन्धों में सम्भोग) को भी ये लोग पाप मानते हैं। तो ये सम्भव ही नहीं।
4. सेक्स/हस्तमैथुन शरीर और मस्तिष्क के लिये बेहद ज़रूरी है।
5. नाम में कुमार और कुमारी लगाना उन्हीं घटिया लोगों को तुष्ट करना है क्योंकि हमारा sexual status कभी भी बदल सकता है लेकिन नाम नहीं। (हालांकि हम शपथपत्र देकर अपना नाम कभी भी बदल सकते हैं, लेकिन ये सुविधाजनक नहीं है।)

एक और बात, जो अपना बच्चा पैदा करना चाहते हैं, उनको अपनी बुद्धि से अधिक बुद्धि वाले से बच्चा पैदा करना चाहिए तभी उनकी अगली पीढ़ी पहले के मुकाबले अधिक सुधर सकती है। अतः वह साथी किसी भी जाति/धर्म/गोत्र का हो, इससे फर्क नहीं पड़ता, बस बुद्धिमान होना चाहिए। ~ Shubhanshu (VSSC) 2019©  2019/10/05 12:57