लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है पत्रकारिता। बिके जो उसको पीत पत्रकारिता कहते हैं। असली पत्रकारिता में ज़्यादा कमाई नहीं होती बल्कि ख़तरा और ईमानदारी होती है। ये भोले लोगों और मूर्खों के लिये नहीं है। शुरू में केवल दूरदर्शन और AIR ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया था। अखबारों से ही अधिक खबरें प्रचलित होती थीं।
अब वह दौर गया। केबल TV आया और फिर आने शुरु हुए मीडिया वाले संघर्षकर्ता। इन संघर्षकर्ताओं में कुछ ईमानदारी से आगे बढ़े और कुछ पीत पत्रकारिता की चकाचौंध में उलझ कर मारे गए। पीत पत्रकारिता का अंत हमेशा अच्छा नहीं होता।
पत्रकारिता को आप ज्यादा समय तक बेच नहीं सकते। यह एक प्रतियोगिता का क्षेत्र है। आप जिस खबर को पैसा खाकर बेच रहे हैं वो खबर कोई और पत्रकार वैसे का वैसा ही दिखा देगा। पैसे सबको, सबसे तो नहीं मिल सकते न? कोई न कोई तो रह ही जाएगा। इसीलिए पत्रकारिता कानून बने जो पत्रकारिता को गलत दिशा में जाने से रोकते हैं। आज पीत पत्रकारिता एक भयानक रिस्की कार्य है। जो भी कर रहा है, वह मूर्ख है, लालची है या मजबूर है।
खबर बनाई और बेची जाती है ऐसा हम 'रण' फ़िल्म में देख चुके हैं लेकिन उसका हश्र भी आत्महत्या से ही हुआ। तिहाड़ जेल में बन्द लोग और बाकी जेलों में बन्द लोग, पत्रकार, नेता, कानून के दलाल, आम आदमी सबको देखा जा सकता है।
सत्य सामने आता है। कभी देर से तो कभी जल्दी। देर से आने के पीछे हम लोग ही जिम्मेदार हैं। हम ही व्यवस्था और व्यवहार हैं। हम में से अधिकतर लोग राज़ दबा जाते हैं। अपने ऊपर हुए जुल्मों को छुपा जाते हैं। यही अपराधियों के स्वामिभक्त लोग हैं। जो उनके लिए काम करते हों या नहीं, फर्क नहीं पड़ता है। जुल्म सहना, जुल्म करने वाले की स्वामिभक्ति है, आपको जुल्म पसन्द है, इसकी सहमति है। सहमति से कुछ भी करना, पुण्य (अच्छा कार्य) है, पाप (बुरा कार्य) नहीं है।
परिवार हमको भ्रष्ट बनाता है। परिवार डर पैदा करता है। परिवार ताकत भी बन सकता है लेकिन उसकी परिस्थिति अलग होती हैं। जब परिवार में कमज़ोर और मूर्ख प्रकार के लोग हों तो परिवार ईमानदारी के लिये खतरा है। हमारा समाज विवाह करवा कर लोगों को डरना सिखा देता है।
अकेले लोग ज्यादा आज़ाद ख्याल, बहादुर और ईमानदार होते हैं। जैसे-जैसे हम अपनी जड़ों से ईमानदारी को निकाल कर फेंकते हैं हमारे समाज की जड़ों में भी दीमक लगने लगती है। हम ही सरकार, पत्रकारिता, व्यवस्था, राजनीति और व्यवहार का हिस्सा बनते हैं। हम ही सरकार हैं, ये अटल सत्य है। चाहें वोट दें या न दें। हम सब भारत के नागरिक रहेंगे। चाहें देश का भला न चाहें तो भी और चाहें तो भी।
प्रतियोगिता के युग में एक दूसरे से ज्यादा बेहतर और अच्छी/सच्ची खबर लाना आज पत्रकारिता की मजबूरी बन गया है। बनाई हुई खबरें अब टिकती नहीं हैं। ज़मीनी स्तर पर भी कागजी पत्रकारों का बड़ा समूह है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के परखच्चे उड़ा सकता है। अतः पत्रकारिता को पूरी तरह से बर्बाद नहीं किया जा सकता। थोड़ा सा धैर्य और विवेक चाहिए बस। सत्य आपके सामने जल्द आएगा। ~ Shubhanshu Dharmamukt 2020© (पूर्व पत्रकार, स्वतंत्र चेतना, लखनऊ, बरेली शाखा)
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