विवाहमुक्त, शिशुमुक्त, धर्ममुक्त, क्रूरता मुक्त और कम से कम कपड़े पहनने का विचार मुझे तब से याद है जब से मुझे अपना बचपन नज़र आया। मुझे तभी से समझ में आ गया था कि क्या करना है और क्या नहीं। मेरा अबोध लगने वाला मन दरअसल बहुत तेजी से आसपास की घटनाओं को रिकॉर्ड कर रहा था। मुझे अपने बचपन में, लोगो से कही गई इस विषय में बातें याद हैं।
सब कहते रहे कि अभी बच्चा है, बड़ा होकर बदल जायेगा। लेकिन नहीं। जब से बोलना सीखा, पढ़ना आया तब से मैंने अपने विचारों को जांचने का काम शुरू कर दिया। मुझे जानना था कि जो मुझे सही लगता है वह दूसरों को गलत क्यों लगता है?
मैंने सबकुछ किया जो लोगों ने करने की ज़िद की। लेकिन बेमन से। बस विवाह के लिये मैं रुक गया और बच्चे के लिये भी। यह बहुत मुश्किल था क्योंकि पता नहीं क्यों मुझे लड़कियाँ आकर्षित करती थीं लेकिन मैं जानता था कि यह क्षेत्र प्रयोग का नहीं। इसमें दूसरे का जीवन शामिल है। बिना इसे समझे कुछ करना उचित नहीं। इसका भी समय आएगा। जब मैं फैसले लूँगा।
उपरोक्त विचार मेरे भीतर कौंधते रहे और मुझे लगता रहा कि मैं सही हूँ। बस मुझे पक्का प्रमाण चाहिए था। क्या मेरे जैसा कोई नहीं? यही सोच कर अकेला रहता था। लड़कियों से दोस्ती करने में डरता था कि कहीं मुझे या उनको मुझसे प्यार हो गया तो यह सारी दुनिया विवाह करने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा देगी और अभी मुझे जानना था कि विवाह करना सही क्यों नहीं है। आगे चल कर इस विषय में बहुत जानकारी मिली।
मंदिर जाता तो सोचता कि वाह! कोई जादुई दुनिया है लेकिन जब कुछ भी होता नहीं फिर भी लोग यहाँ क्या मांगने आये हैं? मैंने बहुत try किया। कुछ लाभ न हुआ। समझ गया कि यह सब बकवास है। पास ही में एक मस्जिद थी। बहुत प्रसिद्ध। मैं उसमें गया। सिर ढंकने को कहा गया। वहाँ भी मांग कर आया, कुछ नहीं मिला, फिर एक गुरुद्वारे चला गया। उधर भी सिर ढका और अपने लिये कुछ मांगा। कोई लाभ नहीं। चर्च चला गया। उधर भी जीजस से वही माँगा लेकिन कोई लाभ नहीं। एक साधु से मिला उनसे सब बात कही वह बौद्ध भंते निकले। उन्होंने बाकी सभी ईश्वरो को नकार दिया तो सही लगा। लेकिन फिर वह बुद्ध के मंदिर ले आये। बोले इनसे मांग के देखो। मैंने उनसे भी वही माँगा लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ।
लेकिन ऐसा हर जगह लगा जैसे मैं कुछ भूल रहा हूँ। मैंने कहीं पैसा नहीं दिया। मेरे पास था ही नहीं।
कोई बोला, पैसा फेक तमाशा देख। ऊपर वाला भी ऊपरी कमाई लेता है जान कर बहुत कुछ इंसान जैसा लगा। मैंने एक व्यक्ति की मदद की। बदले में कुछ पैसे मिले। कुछ पैसे से बन खरीद के खाया और बाकी सब धार्मिक जगह चढ़ा आया।
लेकिन परिणाम कभी नहीं मिला। बड़ा हुआ। पढ़ाई करी। अखबार में मुझे मेरे जैसे विचारों वाले बहुत से लोग पढ़ने को मिले। बुद्ध से इसलिये प्रभावित था क्योकि उनके बारे में पढ़ा सुना कि उन्होंने पत्नी शिशु त्याग कर तपस्या से ज्ञान प्राप्त किया और नाम कमाया। क्या मैं भी वैसा ही हूँ? मुझे स्कूली पढ़ाई पसन्द नहीं थी। सबकुछ सही कम और गलत ज्यादा लगता था।
सोचा पढ़ाई छोड़ दूँ क्योंकि एडिसन ने भी छोड़ दी थी। जब वह इतना महान हो सकते थे तो मैं क्यों नहीं? लेकिन मैं घिसट-घिसट कर पढ़ता रहा क्योकि मुझे चेलेंज दिए गए कि मूर्ख है साला। तभी पढ़ाई नहीं कर पाता। मैंने कहा मैं एडिसन जैसा नया आविष्कार करूँगा। उसे बेच कर अमीर बन जाऊँगा तो लोगों ने कहा, "उसकी किस्मत थी। तुम क्या लाये हो?" मैंने कहा, "जी बस ये दो हाथ।" वो बोले तो जाकर फैला सबके आगे। शायद कोई भीख दे दे।
मैं घर में रोज मार खाता था। पड़ोस के बच्चो से कुछ अश्लील गालियाँ सीख लीं थीं। पीटने पर घरवालों को गालियाँ सुना दीं फिर तो बहुत पिटाई हुई। घर छोड़ के भाग आया। रोज-रोज की कुटाई नहीं सह पाया।
एक रात बाद होश आया कि अब भूख कैसे मिटाऊं? जिस घर से खाना मांगा, हर वह दरवाजा बंद हो गया। मैं नाबालिग था। कोई काम भी नही दे रहा था। क्या करता? भीख माँगू क्या?
मैंने वह भी किया। लेकिन मुझे किसी ने भीख भी नहीं दी। शायद मुझे इसका अनुभव नहीं था। फिर मैंने एक भिखारी को भीख मांग कर दारू पीते और मुर्गा खाते देखा तो कुछ अजीब लगा। क्या ये लाचार दिखने वाले लोग बेईमान हैं? नफरत सी हो गई। मैं रोटी के लिये भीख मांग रहा था और वह नशे और स्वाद के लिये?
एक ढाबे पर गया। मालिक से पूछा कि क्या खाना खिला देंगे? मालिक बोला, "आप ही की दुकान है। आइये-आइये। क्या पेश करूँ?"
मैंने दाल रोटी चुनी। सबसे सस्ती। खाना ख़ाकर धन्यवाद् बोला और जाने लगा तो किसी ने हाथ पकड़ लिया।
मालिक बोला, "पैसे नहीं दिए आपने।" दिल अचानक धक्क हो गया। पैसे की बात तो हुई नहीं थी। फिर अब पैसे क्यों? मैंने कहा कि मैं तो आपसे दया करके खिलाने को कह रहा था और आपने कहा कि आप ही की दुकान है तो अब पैसे क्यों मांग रहे हैं?
मालिक ने खूब गालियां सुनाई और मुझे बर्तन धोने का काम दे दिया। मैं पिटने से बचने के लिये धोने लगा बर्तन। थक कर गिर गया उधर ही। आधा पेट खाना ही खाया था। कमज़ोरी आ गई।
पड़ा रहा उधर ही। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह किसी ने लात मारी पेट में। बहुत दर्द हुआ। देखा कि ढाबे का मालिक पास ही खड़ा था। वहां काम करने वाले ने मुझे कुत्ते की तरह मारा। मैंने पूछा रोते हुए, "क्यों मार रहे हो? बर्तन धो तो दिए थे!"
वह बोला, "साले तेरे बाप का होटल है जो बीच रास्ते में पड़ा है। साला दारू पीकर सब इधर ही गिरते हैं।"
इतना घटिया इल्जाम! खाने को नहीँ और दारू पीने का आरोप! मैं रोता हुआ भाग आया उधर से। सोचा, "कहाँ हैं वो अच्छे धार्मिक लोग? मुझे दिखते क्यों नहीं?"
दूर से देखा, ढाबा मालिक पूजा कर के धूप बत्ती सुलगा रहा था। मैंने देखा, यही तो हैं वे दयालु धार्मिक लोग। विश्वास खत्म हो गया। अब और नहीं। मैंने खुद से कहा, "यहाँ मदद नहीं मिलती। यहाँ खुद की मदद खुद करनी पड़ती है शुभ्। और हां, अभी तू अशुभ है सबके लिए। तुझे शुभ् बनना होगा। क्रमशः
शेष फिर कभी। ~ शुभाँशु जी 2018© मौलिक रचना
नोट: सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक् हैं। यदि किसी से यह मिलती हो तो वह केवल संयोग मात्र होगा। धन्यवाद्।
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